ये चारो रात दिन ‘‘हरि शरणम्’’ मंत्र का जप करते है। इन्हें भगवान की लीलाओं का आनंद मिलता है और कभी-कभी शेष नाग के पास जाकर अमृत चखते है। ये सदा आत्मा की अंतरात्मा में अद्वितीय आनंद जिसे ब्रह्मानंद कहते है, उसी में सदा मगन रहते है। चारो कुमार जिन्हें श्री सनकादि ऋषि कहते हैं श्रेष्ठ उपदेशक है इनके उपदेशों के माध्यम से कईयों का उद्धार हुआ एवं मानसिक और आध्यात्मिक विकास हुआ। इन्होंने शुकदेव और भीष्म को आध्यात्मिक ज्ञान का उपदेश दिया। महाराज पृथु जो भगवान विष्णु के एक अंश थे, (जिसका वर्णन मैं अगले अंकों में करूंगी) उन्हें भगवत कथा का उपदेश दिया था। चार बालको के रूप में सभी कुमार सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का विचरण करते है, व अपने ज्ञान का प्रसार करते है, उचित समाधान भी देते है। इन्होंने पूर्व कल्प के ज्ञान को पुनः ऋषियों के प्रति प्रकट किया जब प्रलय हुआ था तथा इन्होंने ही जब प्रलयकाल में वेद लुप्त हो रहे थे तब हंसावतार में उनकी रक्षा कर पुनः स्थापना की थी। महाभारत में सनकादि मुनि ने धृतराष्ट्र को बहुत ही अच्छा संदेश दिया। पौराणिक ग्रंथ उद्योग पर्व के एक महत्त्वपूर्ण भाग में श्री सनकादि ऋषि का सनत्सुजातीय के नाम से एक प्रचलित एवं प्रसिद्ध उपदेश है। इस उपदेश की भगवान शंकराचार्य ने भी संस्कृत के एक भाष्य में व्याख्या की थी। ये सभी कभी-कभी एक दूसरें के साथ भगवत चर्चा किया करते थे, जिसमें एक व्यक्ति वक्ता बनकर व अन्य श्रोता बनकर चर्चा करते थे। ऐसी चर्चाओं में बड़े-बड़े महत्त्वपूर्ण और गहरे मार्गदर्शन दिये जाते थे। श्री भागवत् पुराण में बताया है कि एक बार एक मुख्य विषय पर चर्चा हुई थी। जिसमें श्री सनन्दन जी प्रवचनकार थे व अन्य कुमार श्रोता। इसमें एक महत्त्वपूर्ण सवाल का उत्तर मिला कि-वेदों में भगवान विष्णु का वर्णन कैसे किया जाता है। इस उपदेश में बताया गया है कि वेदों में भगवान के विषय में कैसे जानकारी दी जाती है, और वेदों का अंत भी इस बारे में बताता है कि भगवान में पहुंचने का तरीका कैसे होता है। भगवान के भक्त, जीवनमुक्त और सिद्ध महापुरूषों में संसार के दोष जैसे काम, क्रोध, और अन्य विकार नहीं होते है लेकिन विशेष परिस्थितियों में उनके जीवन में भगवद इच्छा से कुछ विचित्र घटनायें हो सकती है।
ये घटनाएं भगवान की दिव्य लीला का हिस्सा होती है। इसे समझने में कठिनाइयों के कारण, कुछ लोग इन महात्माओं की लीलाओं की गलत तरीके से व्याख्या कर सकते है क्योंकि उनके अंतर्मन में दोष और विकार हो सकते है। हालांकि ये लीलाएं आमतौर पर सार्थक होती है और जगत के लाभ के लिये होती है और पुराणों में इसका वर्णन भी होता है। यूं तो श्री सनकादि ऋषि भाव रहित, क्रोध, ईर्ष्या, सुख, दुःख भाव से विरक्त होने के लिए जाने जाते है परन्तु एक बार वैकुण्ड की यात्रा के दौरान, वैकुण्ड में इन्हें वहां के द्वारपाल जय और विजय द्वारा रोके जाने पर इन्होंने उन्हें श्राप भी दिया था। द्वारपाल जय, विजय ने सनकादि ऋषि कुमारों को बालक जानकर स्वर्ग में आने से मना कर दिया उन्हें उनकी अवस्था अनुचित प्रतीत हुई थी। सनकादि ऋषियों को दोनों द्वारपालों के व्यवहार में गर्व व कपट के भाव की अनुभूति हुई। यह देखकर सदा शांत रहने वाले सनकादि मुनियों को क्रोध आ गया। उन्होंने द्वारपालों को बताया कि बड़े आश्चर्य की बात है कि वैकुण्ड लोक के निवासी होकर भी तुम्हारा विषम स्वभाव नहीं हुआ। तुम लोग यहा रहने के योग्य नहीं हो अतः तुम नीचे मृत्युलोक में चले जाओं। तुम्हारा पतन हो जायेगा। जय और विजय मुनियों के चरणों में गिर पड़े। तभी भगवान विष्णु वहां प्रकट हुये। मुनियों ने भगवान को प्रणाम किया। भगवान विष्णु ने जय विजय द्वारा किये अनुचित व्यवहार के लिए क्षमा मांगी। जय विजय क्षमा याचना करने लगे। भगवान विष्णु ने उनसे कहा के मैं इस श्राप को समाप्त कर सकता हूँ परन्तु मैं ऐसा नहीं करूंगा क्योंकि तुम लोगों को यह श्राप मेरी इच्छा से प्राप्त हुआ है। (और इस प्रकार श्री सनकादि मुनियों की भगवच्चर्चा से जो निष्कर्ष निकला, वह सिद्ध हुआ कि भगवान की इच्छा से ही सभी कुछ सम्पन्न होता है) भगवान विष्णु की बात मानकर जय और विजय ने श्राप ग्रहण किया।
जय विजय ने प्रभु से निवेदन किया कि हे प्रभु तीनों जन्मों में हमारा उद्धार आपसे ही हो, प्रभु ने तथास्तु कहा और अंतर्ध्यान हो गये और इसी श्राप के कारण ही दोनों द्वारपाल तीन जन्मों तक राक्षस बने।
वे पहले जन्म में हिरण्याक्ष-हिरण्यकश्यपु बने जिनका उद्धार भगवान विष्णु ने नरसिंह अतवार व वरह अवतार में किया दूसरे जन्म में जय-विजय, रावण-कुम्भकर्ण बने जिनका उद्धार श्री विष्णु ने श्रीराम के रूप में किया और तीसरे जन्म में जय और विजय शिशुपाल-दन्तवक्र बने जिनका उद्धार भगवान विष्णु के श्रीकृष्ण अवतार ने किया।
निधि श्रीमाली
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