हमारा शरीर भी कहाँ समाप्त होता है, यह भी कहना मुश्किल है। जिस शरीर को हम अपनी सीमा मान लेते हैं, वह भी हमारे शरीर की सीमा नहीं है। दस करोड़ मील दूर सूरज है, अगर ठंडा हो जाये, तो हम यहां अभी ठंडे हो जायेंगे। इसका मतलब यह हुआ कि हमारे होने में सूरज पूरे समय मौजूद है, और हमारे शरीर का हिस्सा है; सूरज ठंडा हुआ कि हम ठंडे हुये; सूरज की गर्मी हमारे शरीर की गर्मी है। चारों तरफ फैला हुआ हवाओं का सागर है, वहां से प्राण हमें उपलब्ध होता है। वह न उपलब्ध हो, हम अभी मृत हो जाये। तो जो श्वास हम ले रहे हैं, वह श्वास हमें भीतर से भी जोड़े है, हमें बाहर से भी जोड़े है।
यदि पूरी खोज करें तो पूरा जगत ही हमारा शरीर है। अनंत, असीम हमारा शरीर है और ठीक से खोज करें तो सब जगह हमारे जीवन का केंद्र है और सब जगह विस्तार है। लेकिन इसकी प्रतीति और इसके अनुभव के लिये हमें स्वयं भी अत्यंत जीवंत ऊर्जा, लिविंग एनर्जी बन जाना जरूरी है।
जब आप ध्यान में प्रविष्ट होंगे, तो आपके भीतर जो ऊर्जा छिपी है, जो एनर्जी छिपी है, वह इतने जोर से जागे कि बाहर की ऊर्जा से उसका संबंध स्थापित हो जाये और जैसे ही बाहर की शक्तियों से उसका संबंध स्थापित होता है, वैसे ही हम एक छोटे से पत्ते रह जाते हैं अनंत हवाओं में कंपते हुये; हमारा अपना होना खो जाता है; हम विराट के साथ एक हो जाते हैं। जब हम ऊर्जा के स्पंदन मात्र रह जाते हैं, तब ऐसा नहीं होता कि हम सागर में गिरते हैं; जब हम काँपते हुये जीवंत स्पंदन मात्र रह जाते हैं, तो अनंत ऊर्जा का सागर हममें गिर पड़ता है। निश्चित ही, फिर कहना मुश्किल है कि क्या होता है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि जो होता है वह हमें पता नहीं चलता। ध्यान रहे, कहने और पता चलने में सदा सामंजस्य नहीं है। जो हम जान पाते हैं, वह कह नहीं पाते। जानने की क्षमता असीम है और शब्दों की क्षमता बहुत सीमित है। बड़े अनुभव दूर, छोटे अनुभव भी हम नहीं कह पाते। अगर मेरे सिर में दर्द है, तो वह भी मैं नहीं कह पाता और अगर मेरे हृदय में प्रेम की पीड़ा है, तो वह भी नहीं कह पाता हूँ, पर ये तो बड़े छोटे अनुभव हैं और जब परमात्मा हम पर गिर पड़ता है, तब जो होता है उसे तो कहना बिलकुल ही कठिन है। लेकिन जान हम जरूर जाते हैं। पर उसे जानने के लिये हमें सब भांति शक्ति का एक स्पंदन मात्र रह जाना जरूरी है। जैसे एक आंधी, एक तूफान, ऐसा शक्ति का एक उबलता हुआ झरना भर हम हो जायें। हम इतने जोर से स्पंदित हों-हमारा रोये हृदय की धड़कन-धड़कन, उसकी प्रार्थना, उसकी प्रतीक्षा से इस भांति भर जाये कि हमारा होना ही मिट जाये। उस क्षण में ही उससे मिलन है और वह मिलन कहीं बाहर घटित नहीं होता। जैसा मैंने कहा, वह मिलन हमारे भीतर ही घटित होता है। हमारे भीतर ही सोये हुये केंद्र हैं। हमारे सोये केंद्र से ही शक्ति उठेगी और ऊपर फैल जायेगी।
एक बीज पड़ा है। फिर एक फूल खिलता है। फूल और बीज को जोड़ने के लिये वृक्ष को तना बनाना पड़ता है, शाखायें फैलानी पड़ती हैं। फूल छिपा था बीज में ही, कहीं बाहर से नहीं आता। लेकिन प्रकट होने के लिये बीज और फूल तक के बीच में जोड़नेवाला एक तना चाहिये। वह तना भी बीज से निकलेगा, वह फूल भी बीज से निकलेगा। हमारे भीतर भी बीज-ऊर्जा, सीड-फोर्स पड़ी हुई है। तने की जरूरत है। वह तना हमारे भीतर उपलब्ध है। जिसे हम रीढ़ की तरह जानते हैं बाहर से, ठीक उसके निकट ही वह यात्रा-पथ है जहां से बीज-ऊर्जा उठेगी और फूल तक पहुँच जायेगी। वह फूल बहुत नामों से पुकारा गया है। हजार पंखुड़ियों वाले कमल की तरह जिन्हें उसका अनुभव हुआ है, उन्होंने कहा है, हजार पंखुड़ियों वालें कमल की तरह। जैसे हजार पंखुड़ियों वाला कमल खिल जाये, ऐसा हमारे मस्तिष्क में कुछ खिलता है, कुछ फ्लावर होता है। लेकिन उसके खिलने के लिये नीचे से शक्ति का ऊपर तक पहुँच जाना जरूरी है और जब यह शक्ति ऊपर की तरफ उठना शुरू होगी, तो जैसे भूकंप आ जायेगा, जैसे अर्थक्वेक हो गया हो, ऐसा पूरा व्यक्तित्व कांप उठेगा। उस कंपन को रोकना नहीं है, उस कंपन में सहयोगी होना है। साधारणतः हम डर जायेंगे। अगर डरेंगे तो गति न हो पायेगी। भय से ज्यादा अधार्मिक और कोई वृत्ति नहीं है। भय से बड़ा और कोई पाप नहीं है। जिन्हें ऊर्जा के जगत में प्रवेश करना है, उस सुप्रीम एनर्जी की यात्रा करनी है, उन्हें सब भय छोड़ देने पड़ेंगे और सरल होकर, अगर शरीर कंपता हो, कंपित होता हो……..
यह जानकर आपको आश्चर्य होगा, लेकिन जान लेना जरूरी है कि जितने भी योगासन हैं, वे सब ध्यान की स्थितियों में आकस्मिक रूप से ही उपलब्ध हुये हैं। उन्हें किसी ने बैठकर, सोचकर निर्मित नहीं किया। उन्हें किसी ने बैठकर तैयार नहीं किया है। वह तो ध्यान की स्थिति में शरीर ने वैसी स्थितियां ले ली हैं और तब पता चला कि ये स्थितियाँ हैं। जब मन एक दशा में जाता है तो शरीर इस दशा में चला जाता है। तब फिर यह ख्याल में आ गया कि अगर शरीर को इस दशा में ले जाया जाये तो मन उस दशा में चला जायेगा। जैसे हमें पता है कि अगर भीतर रोना भर जाये तो आँख से आँसू आ जाते हैं। अगर आँख से आँसू आ जायें तो भीतर रोना भर जायेगा। ये एक ही चीज के दो छोर हो गये। जैसे हमें क्रोध आता है तो मुट्ठियां बंध जाती हैं; जैसे हमें क्रोध आता है तो दाँत भींच जाते हैं; जैसे हमें क्रोध आता है तो आँखे लाल हो जाती हैं।
ऐसे ही ध्यान की प्रत्येक स्थिति में भी शरीर की अपनी व्यवस्था है। तो जब ध्यान की स्थितियों में शरीर विशेष रूप से मुड़ने लगे, घुमने लगे, तब अगर आप उसे रोकते हों, तो भीतर की स्थिति को भी आप पंगु कर देंगे। वह स्थिति फिर आगे नहीं बढ़ेगी। जितने योगासन हैं वे सब ध्यान की स्थितियों में ही उपलब्ध हुये; मुद्र्राओं का बहुत विस्तार हुआ। अनेक प्रकार की… आपने बुद्ध की मूर्तियाँ देखी होंगी बहुत मुद्राओं में। वे मुद्राएं भी मन की किन्हीं विशेष अवस्थाओं में पैदा हुईं। फिर तो मुद्राओं का एक शास्त्र बन गया। फिर तो बाहर से देखकर कहा जा सकता है, अगर आप झूठ न कर रहे हों और ध्यान में सीधे बह जायें, तो आपकी जो मुद्रा बनेगी उसे देखकर भी बाहर से कहा जा सकता है कि भीतर आपके क्या हो रहा है।
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