पर नहीं, इन सब उपमाओं से प्रेम को परिभाषित नहीं किया जा सकता है, जीवन तो चूक जाता है, पर प्रेम को परिभाषित नहीं किया जा सकता है, जीवन तो चूक जाता है, पर प्रेम की समाप्ति हो ही नहीं सकती, न इसका ओर है, न छोर है, यह हृदय भी नहीं है, क्योंकि वह तो प्रेम का एक छोटा-सा अंश है और समाधि में भी प्रेम का पूर्णत्व कहाँ है? हम प्रेम को पृथ्वी कह कर ‘प्रेम’ की संकीर्णता को ही स्पष्ट कर पाते हैं, क्योंकि धरती को नापा जा सकता है, पर प्रेम को नापना कहां सम्भव है, मानसरोवर की गहराई जाँची जा सकती है, हिमालय के सर्वोच्च शिखर पर मानव पांव रखकर खड़ा हो सकता है, पर प्रेम…प्रेम तो इन सब से परे है, इन सबसे ऊँचा है, वह तो आकाश है, जिसकी न ऊँचाई नापी जा सकती है, न जिसका ओर-छोर आंका जा सकता है, इसीलिये तो प्रेम को अनन्त आकाश कहा है, कबीर ने ‘‘गगन मंडल बिच डेरा’’ कहां है, सूर ने ‘‘लाली’’ कहा है, तो मीरा ने ‘‘अलख अगोचर ईसर’’ कहा है।
इसीलिये तो मैं कहता हूँ कि प्रेम की परिभाषा को भली प्रकार से जान लेना चाहिये, यह तो जीवन की तीर्थ यात्रा है, जिसके भाग्य में है, वही इस पगडंडी पर पांव बढ़ा सकता है, वही अपने-आप में प्रार्थनामय बन सकता है, वही अपने-आप को खो सकता है, प्रभु को पा सकता है, ईश्वर से एकाकार कर सकता है, जिसने प्रेम को समझा ही नहीं वह ईश्वर तक पहुँच भी कैसे सकेगा, गुरु को पूर्णता के साथ पा भी कैसे सकेगा!
क्योंकि प्रेम में दो छोर हैं ही नहीं, एक ही छोर है, एक ही किनारा है, प्रेम में द्वैत हो ही नहीं सकता… जो यह कह रहा है- मैं प्रेम करता हूँ, वह झूठ है, जो यह कह रही है- मैं प्रेम करती हूँ वह असत्य उच्चारण कह रही है… क्योंकि ‘‘करने का’’ मतलब कोई और भी है… और जहाँ ‘‘कोई और’’ भी है, वहाँ प्रेम हो ही नहीं सकता, प्रेम तो सम्पूर्ण समर्पण है, अपने-आप को मिटा देने की क्रिया है, अपने ‘अहं’ को गला देने की प्रक्रिया है, और जहाँ यह प्रक्रिया समाप्त होती है, वहीं से प्रेम का प्रारम्भ होता है।
और जब मैं ‘प्रेम’ शब्द का प्रयोग करता हूँ, तो लोग चौकन्ने होकर देखने लग जाते हैं, कि गुरुदेव ने यह क्या कह दिया, क्योंकि उनका दिमाग संकीर्ण है, छोटी-सी तंग कोठरी में बंद है, उनके दिमाग में प्रेम का तात्पर्य वासना है, प्रेम का मतलब शरीर है, प्रेम का मतलब गिद्ध दृष्टि है, इन्द्रिय लोलुपता है, स्वार्थ है, नारी शरीर को निगलने की कुत्सित भावना है, और चालाकी मक्कारी पर चढ़ा हुआ नकली प्यार का झीना सा आवरण है।
प्रेम शब्द बना है ‘प्र’ से… ‘प्र’ जो अद्वैत है, द्वैत है ही नहीं… जहाँ दो की भावना होती है, वहाँ प्रेम नहीं हो सकता, इसीलिये पति, पत्नी से प्रेम कर ही नहीं सकता, क्योंकि उसमे अहंकार है, कि वह पति है, वह कुछ और है, कुछ ऊँचा है… और जब यह है तो वहां समर्पण कहां है, प्रेम कहां है? वहां तो पति-पत्नी केवल सामाजिकता की दृष्टि से दिखावा करते हैं… नाटक करते हैं, वह उसको मेरी ‘प्राण-प्रिया’ कहकर धोखा देता है, वह मैं ‘आपके चरणों की दासी’ कह कर छलावा करती है- लोगों को दिखाने के लिये, समाज को समझाने के लिये, एक-दूसरे से स्वार्थ तो है, पर प्रेम कहाँ है?
प्रेम तो अपने-आप को गलाकर मिटा देने की क्रिया हैं, जहां ‘प्रेमी’ और ‘प्रेमिका’ दो शब्द हैं, वहाँ भी प्रेम नहीं है, क्योंकि प्रेम में दो का अस्तित्व होता ही नहीं, जब प्रेमिका अपने-आप को गला देती है, मिटा देती है, तब वहाँ प्रेम का प्रस्फुरण है, वहां प्रणय की सुवास है, वहां प्रीत की सुगंध है।
प्रेम तो बीज है ईश्वर का, जब बीज मिट जाता है, तब ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है, प्रेम तो प्रार्थना है, समर्पण है, पूर्णता के साथ मिटा देने की प्रक्रिया है, प्रेम तो पीड़ा है, सुखद और आनन्ददायक पीड़ा…
प्रेम हृदय का उच्छावास है, जो हृदय को चरकर पूरे ब्रह्माण्ड में समा जाता है।
प्रेम आंसू की बूंद है, जो आँख तो ढुलकाती है, पर पलक उस आँसू की बूंद को अपने पास रोक लेती है, क्योंकि उसमें उसे प्रियतम का दिखाई देता है।
प्रेम निरहंकारिता है, सम्पूर्ण जीवन का गौरव है, जो दोनों बांहें पसार कर पूरे ब्रह्माण्ड को भर लेता है अपने-आप में…
प्रेम प्राणत्व है, क्योंकि इसी के माध्यम से आकाश में, ऊँचाई की ओर उठा जा सकता है, सुदूर ऊँचाइयों में पहुँचा जा सकता है, अनन्त आकाश में उड़ा जा सकता है, सम्पूर्णता के साथ ईश्वर से एकाकार होकर पूर्णत्व पाया जा सकता है।
वे सौभाग्यशाली हैं, जिन्होंने प्रेम किया है, लाखों-करोडों में से कोई एक आध ही भाग्यशाली होता है, जिनके नसीब में प्रेम होता है… जिन्होंने प्रेम किया ही नहीं, वे जीवन को उत्सव बना ही नहीं सकते, वे ध्यानावस्थित हो ही नहीं सकते, वे डूब कर अखण्ड समाधि में लीन हो ही नहीं सकते, वे सही अर्थों में गुरुत्व प्राप्त कर ही नहीं सकते, ईश्वर को प्राप्त कर ही नहीं सकते।
इसीलिए तो में कहता हूँ कि जीवन का श्रेष्ठ तत्व ‘प्रेम’ है, सम्पूर्ण मनुष्यता का मूल उत्सव ‘प्रेम’ है, हृदय को हिलोरों से आलोड़ित कर देने की क्रिया ‘प्रेम’ है, प्रेम तो वसन्त है, फाल्गुन मास की पुरवाई है, अन्दर उतर कर ब्रह्म को चीन्हने का राजपथ है, प्रेम तो अनुग्रह है, प्रार्थना है, त्याग है, समर्पण की सम्पूर्णता है, ‘‘पूर्णमदःपूर्णमिदं’’ की सही अर्थों में व्याख्या है। मेरी दृष्टि में प्रेम नृत्य है, जीवन की सम्पूर्ण पूर्णता है, सोने की कलम से लिखा हुआ सौभाग्य है, जीवन के आनन्द का उत्सव है, ईश्वर में लीन होने की प्रक्रिया है, ब्रह्म से साक्षात्कार करने का सुगम-सहज मार्ग है।
‘‘ब्रह्म’’ पर बोलना आसान है, ईश्वर पर ग्रंथ लिख देना सहज-सुगम है, वेदों की व्याख्या करना सरल है, उपनिषदों को परिभाषित करना सुविधाजनक है पर… ‘प्रेम’ पर बोलना, लिखना, या समझाना दुष्कर है, कठिन है, फिर भी मैंने इस ग्रंथ में प्रेम को समझाने का सफल प्रयास किया है, आकाश की ऊँचाइयां नापने की सफल कोशिश की है, मानसरोवर के अथाह जल में सुखद डुबकी लगाने की, तैरने की क्रिया समझाने की आनन्ददायक उपलब्धि प्रदान की है।
यह पुस्तक प्रेम का जीवन्त नृत्य है, जीवन का सम्पूर्ण महारास है, आनन्द का सही अर्थों में महोत्सव है, उमंग है, उत्साह है, उछाह है, डूबने की सम्पूर्ण प्रक्रिया है, ईश्वरत्व को पूर्णता के साथ प्राप्त करने की कुंजी है, समाधि का प्रारंभिक और अंतिम द्वार है, ध्यान की सम्पूर्ण क्रिया है, धारणा का आधार है, जीवन… आनन्दमय जीवन जीने का महाद्वार है, जिसमें प्रवेश के लिये आप सब को निमंत्रण है, कुंकुम पत्रिका है… स्वागत है।
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