भगवान विष्णु की कृपा से ये सभी युगों और लोकों में कहीं भी प्रकट हो सकते हैं। लघिमा शक्ति के बल पर ये आकाश में गमन किया करते थे। लघिमा अर्थात् लघु और लघु अर्थात् छोटा या हलका रूई जैसे पदार्थ के समान बन आकाश आदि में विचरण करना। जिसे वर्तमान में टाइम ट्रेवल कहा जाता है। नारद मुनि की ही भांति सनतकुमार भी टाइम ट्रेवल किया करते थे। नारद जी गायन के माध्यम से संदेश देने के लिये अपनी वीणा का उपयोग करते थे, ये त्रिकालदर्शी एवं इन्हें स्वयं विष्णु जी द्वारा अमरत्व का वरदान प्राप्त था। नारद जी हमेशा अपनी वीणा की मधुर तान से विष्णु जी का गुणगान किया करते थे। वे अपने मुख से सदा नारायण-नारायण का जप करते हुए विचरण करते व सदा अपने आराध्य श्री विष्णु के भक्तों की मदद भी करते। देवर्षि नारद व्यास जी, वाल्मीकि, परम ज्ञानी शुकदेव जी के साथ ही भक्त प्रह्लाद, ध्रुव एवं भक्त अम्बरीष के गुरू एवं मुख्य मार्गदर्शक रहें व इन्हें भक्ति में प्रवृत्त किया था।
साथ ही श्री नारद मुनि सहायक के रूप में सदा सच्चे एवं निर्दोष लोगों की पुकार श्री हरि तक पहुँचाते थे। इन्होंने देवताओं ही नहीं अपितु असुरों का भी सही मार्गदर्शन किया इसीलिये ये सभी लोकों में सम्माननीय पद पर आसीन थे। हिन्दू धर्म के अमूल्य दिव्य ग्रंथ रामायण एवं श्रीमद् भागवत पुराण मनुष्यों तक नारद जी ने ही पहुँचाये थे।
नारद मुनि द्वारा रचित ग्रंथों में ‘पांचरात्र’ प्रमुख है, ये नारद पुराण के भी रचनाकार हैं, जिसमें कुछ 25 हजार श्लोक हैं। ‘नारद संहिता’, ‘नारद के भक्ति सूत्र’, बृह्मन्नारदीय उपपुराण-संहिता, नारद-परिव्राज कोपनिषद आदि नारद जी द्वारा ही रचित हैं।
देवर्षि नारद भगवान ब्रह्मा के मानस पुत्र है। धर्म ग्रंथों में वर्णित है कि पूर्व कल्प में नारद ‘उपबर्हण’ नाम के एक गन्धर्व थे। एक बार प्रजापति ब्रह्मा जी ने उपबर्हण को उनके अशिष्ट आचरण के कारण शूद्र योनि में जन्म लेने का श्राप दे दिया। श्राप के फलस्वरूप वह ‘शूद्रादासी’ के पुत्र हुए। बाल्यकाल से ही साधु-संतों के साथ रहने के कारण इस बालक के चित्त में रजोगुण और तमोगुण को नाश करने वाली भक्ति का प्रादुर्भाव हो गया। निरन्तर श्री नारायण की भक्ति करते हुए उन्हें एक दिन भगवान की एक झलक विद्युत् रेखा की भांति दिखाई दी और तत्काल ही अदृश्य हो गई। यह बालक नारायण के उस स्वरूप को हृदय में समाहित करके बार-बार दर्शन करने की चेष्टा करने लगा, परन्तु उसे पुनः नहीं देख सका।
इतने में अदृश्य शक्ति की आवाज सुनाई दी- ‘है दासीपुत्र! अब इस जन्म में फिर तुम्हें मेरा दर्शन नहीं होगा, अगले जन्म में तुम मेरे पार्षद हो जाओगे’। समय बीतने पर बालक का शरीर छूट गया और कल्प के अंत में जिस समय भगवान नारायण एकार्णव (प्रलयकालीन समुद्र) के जल में शयन करते हैं, उस समय उनके हृदय में शयन करने की इच्छा से सारी सृष्टि को समेटकर ब्रह्मा जी जब प्रवेश करने लगे, तब उनके श्वास के साथ दासीपुत्र की आत्मा भी श्री हरि के हृदय में प्रवेश कर गई। एक सहस्त्र चतुर्युगी बीत जाने पर ब्रह्मा जागे और उन्होंने सृष्टि करने की इच्छा की, तब उनकी इन्द्रियों से मरीचि आदि ऋषियों के साथ मानस पुत्र के रूप में नारद जी अवतीर्ण हुए और ब्रह्मा जी के मानस पुत्र कहलाए। तभी से श्री नारायण के वरदान से नारद मुनि वैकुण्ठ सहित तीनों लोकों में बिना किसी रोक-टोक के विचरण करने लगे। इन्हें अजर-अमर माना गया है। स्वर ब्रह्म से विभूषित भगवान विष्णु की दी हुई इनकी वीणा भगवन जप ‘महती’ के नाम से जानी जाती है, उससे श्रीमन नारायण-नारायण की ध्वनि निकलती है। माना जाता है कि वीणा पर तान छेड़कर प्रभु की लीलाओं का गान करते हुए ये ब्रह्ममुहूर्त में सभी जीवों की गति देखते हैं।
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