प्रेम प्रभु का दिव्य प्रसाद है। इससे आत्मा प्रकाशित एवं आलोकित होती है। यह परमात्मा का उपहार है। इसके बाद आनंद से लगातार हृदय पुलकित होता रहता है। ठीक इसके विपरीत संसार का स्वरूप इतना ही दयनीय होता है। संसार के स्वार्थ की अधिकता के चलते लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष का खेल बराबर चलता रहता है। परमात्मा सच्चिदानंद स्वरूप हैं। सत् एवं चित् के साथ आनंद का अपार समुद्र है। परमात्मा प्रेम मय है। प्रेम के अभाव में जीवन शुष्क और नीरस बन जाता है। साथ ही मानव शरीर से तरह-तरह के विकार उत्पन्न होने लगते हैं और प्रेम का प्रभाव नष्ट होने लगता है। आदर्श प्रेम वही है जो हर प्रकार के स्वार्थ और मोह-माया से अछूता हो। यदि कोई ईश्वरीय प्रेम भाव से भरा हुआ है उसके जीवन में त्याग, उदारता, सहनशीलता सरीखे गुणों का समावेश होना आवश्यक है। वस्तुतः यही गुण इन बातों को रेखांकित करते हैं कि व्यक्ति ने प्रेम के भाव को सही तरह से समझ लिया है। परमात्मा में प्रेम की साधना है और इसी सघनता के कारण दिव्य आलोक की सतरंगी आभा बिखरती रहती है। यह आभा जीवन पथ का पाथेय है।
प्रेम उचित-अनुचित, अच्छा-खराब आदि के बीच सूक्ष्मता का भेद दिखाता है। प्रेम और इसकी निर्णय क्षमता को विवेक, प्रज्ञा, मेधा आदि भिन्न-भिन्न देखा और जाना जाता है। प्रकाश जीवन को सच्चाई के पथ पर अग्रसर करता रहता है। यह नश्वर से अमरता की ओर, असत्य से सत्य की ओर, अंधकार से दिव्यलोक की ओर बढ़ता है। प्रकाश परमात्मा का अनमोल वरदान है, प्रकाश का अभाव ही अंधकार का उद्भव है। प्रकाश के अभाव में अंधकार अपनी सभी अंधभक्तियों के साथ साम्राज्य का विस्तार करता है और इस साम्राज्य का केंद्र अपना ही संसार है। संसार में दैवी शक्तियों की अभिवृद्धि के लिए आवश्यक है परमात्मा के दिव्य प्रकाश का निर्झर होना। परमात्मा हर तरफ, हर जगह-कण-कण में मौजूद है, लेकिन प्रश्न उठता है कि भौतिक जगत और अध्यात्म जगत भिन्न क्यों दिखते हैं।
भिन्न दिखना ही दृष्टि भेद है और इसी दृष्टि भेद से संसार में प्रभु के प्रेम एवं प्रकाश की न्यूनता अंधकार के रूप में दिखाई देती है। प्रेम अपनी पीयूष धारा से गहरी प्यास को तृप्त करता है। फलों से लदा वृक्ष पत्थर के बदले फल देता है, जल से भरे मेघ तपती धरा पर बरसने के लिए उमड़ पड़ते हैं।
आस्था और विश्वास के साथ परमेश्वर से किया गया प्रेम निष्फल नहीं होता। परमेश्वर तो कण-कण में व्याप्त है उस सर्वशक्तिमान को प्रेम से ही पाया जा सकता है। जहां प्रेम है, वहीं परमेश्वर है।
किसी आदर्श लक्ष्य में तन्मय हो जाने, खो जाने, विलीन हो जाने की प्रक्रिया ही प्रेम है। प्रेम प्रभु रूपी वह अथाह सागर है जिसमें मनुष्य उतरकर अपना कायाकल्प कर लेता है। प्रभु की निकटता पा लेता है। प्रभु का स्मरण करने में प्रेम की उत्पत्ति होती है। ध्यान से मन स्वच्छ, निर्मल एवं पवित्र हो जाता है। जब हम परमेश्वर के प्रेम के वशीभूत होने लगते हैं तो हमारे मन मस्तिष्क की अधिकांश शक्तियों को परमेश्वर सत्ता का ज्ञान होने लगता है और हमारी आंखों में पड़ा अज्ञानता का आवरण धीरे-धीरे हटने लगता है। शनैः-शनैः हमारे शारीरिक कोषों में इच्छित एवं वांछित परिवर्तन होने लगते हैं।
प्राचीन काल से योगी, ऋषियों द्वारा परमेश्वर का साक्षात्कार पाने का सहज मार्ग प्रेम ही बताया गया है। जब हम उसके प्रेम में आकंठ डूबने लगते हैं तो उनकी महानता, व्यापकता, संवेदनाओं का संगीत बनकर झरती है। प्रेम भावनावों का प्रवाह बन बहता है और आनंदरूप ही अंतः- करण को रससिक्त करता है।
प्रेम अजर-अमर है। इस संसार में प्रेम शायद अकेली ऐसी चीज है जो अनश्वर है। प्रभु के प्रेम में सदैव रत रहने का सर्वोत्तम तरीका है उसका सतत स्मरण करना। प्रभु के सतत-स्मरण के लिए यह मानकर चलें कि आप जो भी कार्य कर रहे हैं वह आप नहीं, बल्कि प्रभु ही कर रहे हैं। परमेश्वर सर्वव्यापी है, सर्वज्ञ है, सर्वशक्तिमान है और संपूर्ण जड़ चेतन उनके अधीन है। फिर उसे हम कैसे अपने वशीभूत कर सकते हैं। उसे तो प्रेम की डोर से ही बांधा जा सकता है। यह निर्विवाद सत्य है कि परमेश्वर प्रेम के भूखे हैं, भाव के भूखे हैं। प्रेम वाणी का वाक्जाल नहीं, बल्कि प्रेम तो विकल हृदय की करुणामयी भाषा है। जब भक्त भगवान को प्रेम रूपी पुण्य अर्पित करे तो भला वह कैसे शांत रह सकते हैं। स्वामी राम कृष्ण ने कहा है कि जब परमेश्वर को प्रेम से पुकारते हैं तो वह हमारी पुकार अवश्य सुनते हैं।
अगर हमारे प्रेम की पुकार परमेश्वर नहीं सुनते तो समझना चाहिए कि हमारा प्रेम परमेश्वर के प्रति सच्चा नहीं है जिससे वह हमारी पुकार नहीं सुन रहे। भक्तों के अनेकों उदाहरण हैं जिनकी पुकार परमेश्वर सुनते थे। उनकी साधना में, भक्ति में, ध्यान में प्रेम था। अपने परमेश्वर के प्रति उनका प्रेम निष्कलुश था। प्रेम परमेश्वर के प्रति किया गया समर्पण भाव है, जिसमें भक्त अपना सर्वस्व परमेश्वर पर अर्पित कर देता है। अपने सच्चे प्रेम भक्त को परमेश्वर कभी निराश नहीं करते। वह उसकी प्रेममयी पुकार में दौड़े चले आते हैं। इसलिए आस्था और विश्वास के साथ परमेश्वर से किया गया प्रेम निष्फल नहीं होता। परमेश्वर तो कण-कण में व्याप्त है उस सर्वशक्तिमान को प्रेम से ही पाया जा सकता है।
प्रेम शब्द नहीं अनुभूति है। प्रेम ऐसा गीत है, जो गाया नहीं जा सकता। यह तो अनहद नाद है। प्रेम की मस्ती में तुम भीतर गुनगुनाओगे, थोड़ा नर्तन करोगे और कुछ कह न पाओगे। जब अंतः करण द्रवित होने लगे, हृदय पसीजने लगे और परपीड़ा आंसू बनकर झरने लगे तो समझो कि प्रेम का आविर्भाव हो रहा है। जगते हुए अहंकार को सुलाने वाला और सोती हुई अंतरात्मा को जगाने वाला प्रेम ही तो है। अंतहीन अतृप्ति में एकमात्र तृप्ति का नाम ‘प्रेम’ है। प्रेम में आनंद और वेदना का सम्मिश्रण है। तभी तो भगवान को साक्षात प्रेम कहा गया है।
प्रेम शब्द नहीं अनुभूति है। प्रेम ऐसा गीत है, जो गाया नहीं जा सकता। यह तो अनहद नाद है। प्रेम की मस्ती में भीतर गुनगुनाओगे, थोड़ा नर्तन करोगे और कुछ कह न पाओगे। शब्द के पीछे का दिव्यभाव देखो। प्रेम पाती है और शब्द लिफाफा। प्रेम की भाषा तो मौन है, जो हृदय से सीधे निकलकर परमात्मा तक पहुंचता है। प्रेम के प्रदर्शन से प्रेम की गहराई कम हो जाती है। प्रेम को अपने भीतर फूल की तरह खिलने दो। सच्ची श्रद्धा रखो कि उसकी सुगंध सहज ही बाहर फैल जाएगी। आत्मिक प्रेम को दिखावे की जरूरत नहीं है, वह तो दैनिक कार्यों में अनायास ही प्रकट होता रहता है। प्रेम ही परमात्मा है। प्रेम के महासागर में सर्वरस तरंगित है। ‘प्रेम-पयोधि’ में जो डूबता है वह वहीं मस्ती में उछल-कूद करता है। वह न किसी की सुनता है और न किसी को सुनाता है।
सस्नेह आपकी माँ
शोभा श्रीमाली
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