जीवन का सब से बड़ा अभिशाप है दरिद्रता, जिससे व्यक्ति की सामाजिक रूप से अथवा भरण-पोषण के प्रति नहीं, वरन् इसी से हो जाती है एक ऐसी आंतरिक क्षति, दीनता के भाव की उत्पति, जिसका समाधान सहज नहीं होता। जीवन का इस रूप में क्षय कैसे न हो, इसी का समाधान प्रस्तुत कर रही है यह साधना-
यह सत्य है, कि धन जीवन में सर्वस्व नहीं होता, धन सम्पति को सर्वस्व के भाव में ग्रहण करना भी नहीं चाहिए, किन्तु इसके उपरांत भी धन, जीवन की एक महती आवश्यकता ही नहीं आधारभूमि भी होती है, इस सत्य से कौन इंकार कर सकता है? धन का तात्पर्य केवल उसके माध्यम से भरण पोषण की व्यवस्था कर लेना अथवा भौतिक सुख-सुविधाएं एकत्र कर लेना ही नहीं होता, धन का अर्थ और कार्यक्षेत्र इससे भी कहीं अधिक विस्तृत होता है, जिसका अनुभव प्रत्येक व्यक्ति चेतन अथवा अवचेतन मन-मस्तिष्क से निरन्तर करता ही रहता है।
धन-सम्पति का अर्थ – जो निरंतर किसी भी व्यक्ति के अवचेतन में गुंजरित रहता ही है, वह होता है जीवन की सुरक्षा का प्रश्न ! यह सत्य है कि धन की प्रचुरता, जीवन की सुरक्षा का एक निश्चित मापदण्ड नहीं है किन्तु अन्ततोगत्वा किसी भी व्यक्ति को तभी सुरक्षाबोध की प्रतीति हो पाती है, जब उसके पास धन का एक संग्रह हो अथवा संग्रह की स्थिति न भी हो, तब भी उसे इस बात की पूर्ण निश्चिंतता हो, कि उसके पास धन का अविरल प्रवाह बना रहेगा। यह सत्य भी है, कि जब तक धन के आगमन की एक सुनिश्चित स्थिति नहीं होती तब तक संचित धन का कोई अर्थ भी नहीं होता क्योंकि भले ही किसी व्यक्ति ने कितना ही क्यों न संग्रहित कर लिया हो, जब तक नवीन प्रवाह की स्थिति नहीं बनती तब तक भय का एक दुश्चक्र व्यक्ति के मानस को एक अव्यक्त सी यंत्रणा में आबद्ध रखता ही है।
इन्हीं बातों को संक्षेप में इस प्रकार से कहा जा सकता है कि धन की जीवन में तभी पूर्णता कहीं जा सकती है, जब किसी भी व्यक्ति के समीप जहां एक ओर यथेष्ट मात्रा में संग्रहित धन हो, तो वहीं ऐसी स्थितियां भी हो। यहां इस बात को औचित्य सिद्ध करने का प्रयास नहीं है, कि प्रत्येक व्यक्ति के पास बैंक बैलेंस हो, किन्तु एक युक्तियुक्त रूप में धन का संग्रह व्यक्ति को आश्वास्ति देता ही है, इस व्यावहारिक सत्य से इन्कार भी तो नहीं किया जा सकता है।
भौतिक तृप्ति, व्यक्ति को ऐसा आह्लाद देती है जो व्यक्ति को जीवन के उच्चतर सोपानों की ओर बढ़ने का चिंतन एवं अवसर देती है। जिसका जीवन नित्य के भरण-पोषण की समस्याओं एवं विविध इच्छाओं की पूर्ति में ही अटका रह गया वह तो प्रयास करके भी अपने जीवन को श्रेष्ठता नहीं दे सकता है। यह तो व्यक्ति का अपना चिंतन होता है कि वह उच्चतर सोपानों से तात्पर्य भौतिक अर्थो को ग्रहण करता है अथवा आध्यात्मिक अर्थो में, किन्तु दोनों ही स्थितियों में प्राथमिक आवश्यकता नित्य की समस्याओं से मुक्ति पाना ही होता है। प्रत्येक समस्या यद्यपि धन से ही नहीं सुलझ सकती किन्तु विश्लेषण करके देखें तो प्रायः आधी से अधिक समस्याओं का समाधान धन के माध्यम से होता ही है।
आज की आवश्यकता यह है कि प्रत्येक साधक, साधना की सामान्य पद्धतियों को प्रयोग में लाने के साथ-साथ उन पद्धतियों की ओर भी दृष्टिपात करे जो तंत्र की पद्धतियां कहीं गई है, जिसके विषय में यह धारणा बना ली गई है, कि उनका प्रयोग सामान्य व्यक्तियों के लिए वर्जित है।
तंत्र में कोई विकृति नहीं है, तीक्ष्णता अवश्य है और कोई भी साधक, भले ही वह जीवन के किसी क्रम में क्यों न हो, तांत्रोक्त उपायों का अवलम्बन उसी प्रकार ले सकता है जिस प्रकार कोई शक्ति साधक अथवा संन्यस्त साधक। इस भाव को ध्यान में रखकर 21 मई को नृसिंह जयन्ती, छिन्नमस्ता जयन्ती है, इन दोनों शुभ अवसर पर धन प्रदायक साधनाओं से सम्बन्धित शक्ति तंत्र की ऐसी साधना विधि की प्रस्तुति की जा रही है, जिसका प्रयोग कोई भी साधक अपने जीवन को संतुलित बनाने के लिए निःसंकोच कर सकता है।
यहां यह बात ध्यान में रखने योग्य है, कि इसी मुहुर्त का उपयोग वे शक्ति तंत्र ( या तंत्र की कोई भी पद्धति) से सम्बन्धित लक्ष्मी साधनाओं को सम्पन्न करने के रूप में भी कर सकते है। प्रस्तुत साधना विधि इसी प्रकृति की साधना विधि है, जो लक्ष्मी नृसिंह साधना के रूप में सुविख्यात साधना रही है।
जीवन को दारिद्र के चंगुल से छुड़ाने व जीवन के भौतिक पक्षों को संवारने में दैवबल को ग्रहण करने के इच्छुक साधकों को चाहिए, कि वे अवसर रहते ‘लक्ष्मी नृसिंह यंत्र’ को प्राप्त कर ले जो पूर्णतः चैतन्य एवं प्राण प्रतिष्ठित भी हो। साथ ही आवश्यक सामग्री के रूप में ‘चार लक्ष्मी फल’ एवं कमल गट्टे की माला को भी प्राप्त कर लें।
यह साधना पहले बताये गये दो विशिष्ट मुहूर्तो में अथवा किसी भी माह के शुक्ल पक्ष में पड़ने वाले बुधवार की प्रातः की जा सकती है। यह प्रातः कालीन साधना है, जिसको आठ बजे के भीतर ही सम्पूर्णता दे देनी चाहिये।
इस साधना में साधक पीले वस्त्र धारण कर पीले ही आसन पर पूर्व की ओर मुख करके बैठे और अपने समक्ष एक पीला वस्त्र बिछाकर लक्ष्मी नृसिंह यंत्र को किसी ताम्रपात्र में स्थापित कर उसे जल से धोकर, पोंछकर, कुंकुम, अक्षत, पुष्प, सुगन्ध व नैवेद्य भेंटकर घी का एक दीपक लगा लें। यदि चाहें तो सुगन्धित धूप आदि भी प्रज्ज्वलित कर सकते है। इसके पश्चात जीवन में जो कुछ भौतिक रूप से मनोवांछित हो, उन सभी कामनाओं का मन ही मन स्मरण कर ‘नृं’ बीज मंत्र की कमलगट्टे की माला से चार माला मंत्र जप सम्पन्न करें-
मंत्र जप के पश्चात अपने दैनिक कार्यो को कर सकते है किन्तु समस्त सामग्री को उसी स्थान पर रहने दें और सुनिश्चित कर लें, कि घी का दीपक सायंकाल तक अखण्ड रूप से प्रज्ज्वलित रहेगा। सांयकाल को यंत्र, लक्ष्मी फल एवं माला को किसी मंदिर में कुछ दक्षिणा के साथ रख दे, इस प्रकार से यह साधना सम्पूर्ण होती है। यदि संभव हो तो आगे भी उपरोक्त मंत्र की एक माला मंत्र जप अपनी नित्य प्रयोग में ली जाने वाली माला से करते रहें।
लक्ष्मी तत्व में भगवान श्री नृसिंह की तेजस्विता समाहित होने से इस मंत्र की चैतन्यता अद्भूत ही है, जो इस प्रकार से है मानों सूर्य के उदित होते ही समस्त बादल स्वयं ही उसके तेज से छंटकर इधर-उधर बिखरने को बाध्य हो जायें।
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