यहां जब शक्ति शब्द का उल्लेख किया गया है, तो उसका अर्थ कोई दुर्गा या जगदम्बा से नहीं है, अपितु शक्ति से तात्पर्य तो उस शाश्वत निखिल तत्व से है, उस गुरूत्व शक्ति से है, जिससे समस्त ब्रह्माण्ड गतिशील है, जिसके फलस्वरूप दिन और रात होती है, ऋतुएं बदलती है, जन्म और मृत्यु होती है…. और वह शक्ति जिसके पूंजीभूत होने से अनेक देवी-देवताओं का प्रादुर्भाव हुआ है।
वह गुरूत्व शक्ति अदृश्य रूप में प्रत्येक जीव, प्रत्येक प्राणी में सुप्तावस्था में रहती है, जिसे कुण्डलिनी कहते हैं।
शरीर संरचना के अनुसार मानव मस्तिष्क तीन भागों में विभक्त है-मुख्य मस्तिष्क, लघु मस्तिष्क एवं अधः लघु मस्तिष्क। इन तीनों में ही ‘अधः लघु मस्तिष्क’, जिसे वैज्ञानिक भाषा में Medulla Oblongota कहते है, अति रहस्यमय है। उसका आकार अण्डे के समान होता है, जिसके भीतर कोई द्रव्य भरा होता है। इसमें सूक्ष्मतम ज्ञान तन्तुओं का एक समूह होता है, जो अपने स्थान पर गोलाकार छल्ले की तरह एक हजार बार घूमा हुआ होता है- इसी को योग भाषा में ‘सहस्त्रार’ की संज्ञा दी जाती है। प्रायः मनुष्यों में ज्ञानश्चेतना मूलाधार के स्तर तक ही होती है। योग साधनाओं द्वारा इस शक्ति को मूलाधार से उठा कर सहस्त्रार में ब्रह्म अर्थात् गुरू तत्व से मिलन करा देना ही जीवन की पूर्णता है और योग सिद्धियों का सार है।
कुण्डलिनी शक्ति ही जीवन की मूल शक्ति है, जिसके जाग्रत होने पर ही उसकी अनन्त की ओर यात्रा प्रारम्भ होती है। मूलाधार से सहस्त्रार की यह यात्रा प्रारम्भ होती है। मूलाधार से सहस्त्रार की यह यात्रा में जो शक्ति मूल रूप से सहाय होती है, वह गुरू की शक्ति ही होती है। इस साधना द्वारा कुण्डलिनी जागरण की क्रिया में त्वरिता आ जाती है। यह विद्वान साधकों से छिपा नहीं है, कि कुण्डलिनी जागरण ही मनुष्य जीवन का हेतु है, शव से शिव बनने की प्रक्रिया है, बिना कुण्डलिनी शक्ति को जाग्रत किए पूर्णता प्राप्ति सम्भव ही नहीं।
यह साधना उस कुण्डलिनी शक्ति के जागरण की आधारभूत साधना है।
जब साधक गुरू की शक्ति रूप में आराधना करता है, तो सद्गुरू उसी रूप में साधक के शरीर में बीज रूप में स्थापित हो जाते है, और फिर शनैः शनैः जैसे साधक साधनाओं को सम्पन्न करता जाता है और यही शक्ति बीज फिर एक एक कर सातों चक्रों को भेदता जाता है। इसी दौरान साधक को अनेको सिद्धियों की प्राप्ति होती रहती है। इन सिद्धियों को शास्त्रों में अष्टादश सिद्धियों के नाम से जाना जाता है-
अणिमा, महिमा सिद्धियों का सम्बन्ध शरीर से होता है, अतः इन सिद्धियों का स्वामी अपनी इच्छा के अनुरूप सूक्ष्म या विराट रूप धारण करता है। लघिमा सिद्धि प्राप्त होने पर व्यक्ति कोई भी रूप धारण करता है, आकाश की तरह फैल सकता है, एक स्थान पर रहते हुए दूसरे स्थान पर जा सकता है, अदृश्य होने की सिद्धि भी मिल जाती है। साधक अपने एक रूप को अनेक रूपों में प्रकट कर सकता है।
प्राप्ति नामक सिद्धि से साधक को किसी भी स्थान से मनोवांछित वस्तु मंगा लेने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। प्राकटय द्वारा साधक को अंतरीक्ष में विचरण करने वाली देवी, देवता, यक्ष, किन्नर, गंधर्व आदि के दर्शन होने लगते है। ईशित्व की शक्ति से साधक किसी भी प्रकार का शरीर धारण कर सकता है। वशित्व द्वारा साधक को तुरीयावस्था प्राप्त होती है और उसे समस्त विषयों में आसक्ति समाप्त हो जाती है। इसी प्रकार आगे सिद्धियां प्राप्त करता हुआ साधक गुरू के शक्ति स्वरूप की साधना करते-करते अंत में गुरू की समस्त शक्तियों का स्वामी बन जाता है। फिर अलग-अलग सिद्धियों के लिए अलग-अलग साधनाएं करने की आवश्यकता नहीं होती है।
शक्ति मूल रूप में नारी स्वरूपा कही गई है। गुरूदेव के इस स्वरूप की साधना करने से साधक को स्वतः ही उनकी करूणा और वात्सल्यता प्राप्त हो जाती है। फिर उसके सामने शिष्य जीवन की कठिन और कड़ी परीक्षा कसौटिया नहीं रहती, वह तो एक शिशु की तरह इस साधना के द्वारा गुरू को मातृ रूप में देखता हुआ गुरू चरणों में निमग्न हो जाता है और गुरूदेव भी करूणा के वशीभूत अपने शिष्य को गोद में उठाकर अत्यन्त मधुरता से सब कुछ प्रदान करते रहते है और शिशुवत शिष्य को पता भी नहीं चल पाता कि वह बड़ा हो गया है और उसके अन्दर विशेष शक्तियों एवं सिद्धियों का स्थापन हो गया है।
गुरूदेव के मातृत्व स्वरूप की इस साधना द्वारा साधक में मातृत्व गुणों का विकास होना कोई आश्चर्य वाली बात नहीं है। शिष्य के अन्दर फिर व्यक्तिगत चिन्तन नहीं रह जाता, वह अपने कल्याण से ऊपर विश्व चिन्तन से आपूरित हो जाता है, परोपकार की भावना उसमें व्याप्त हो जाती है और देवत्व के यही तो लक्षण होते है, निश्चय ही इस साधना के द्वारा वह देवत्व का स्तर प्राप्त कर लेता है, सिद्धियां तो स्वतः ही उसमें निहित हो जाती है, उसके लिए उसे अलग से प्रयास नहीं करना पड़ता, क्योंकि समस्त सिद्धियों की प्रदाता मातृ स्वरूप में, पूर्ण करूणामयी रूप में गुरूदेव उसके अन्दर ही तो विराज रहे जाते है, एक अविनाशी शक्ति बीज बनकर।
इस साधना द्वारा साधक के अन्दर जिस गुरूत्व शक्ति के बीज का स्थापन होता है, वही साधक को जीवन पर्यन्त गतिशील भी करता है। जिस प्रकार अग्नि तीव्र होने पर ऊपर उठती है, उसी प्रकार साधक के भीतर शक्ति तत्व का विकास होने पर वह अपने जीवन में ऊपर उठता ही जाता है, जो अपने दुर्भाग्य पर, अपनी दीनता पर, अपने आपको हीन नहीं समझता है, वरन् स्वाभिमान का सागर, उसके अन्दर लहरा रहा होता है और यह सभी सम्भव है जब गुरू में शिष्य की पूर्ण आस्था एवं अटल विश्वास हो।
इस साधना को करना प्रत्येक शिष्य का सौभाग्य है, इस साधना को प्रत्येक माह की 21 तारीख, नवरात्रि, सर्वाथ सिद्धि योग अथवा किसी भी माह के गुरूवार को सम्पन्न किया जा सकता है। इसमें ‘गुरू मंत्र सिद्ध कुण्डलिनी जागरण यंत्र’, ‘गोमती चक्र’ व ‘शक्ति माला’ आवश्यक है।
साधना विधि
साधक को चाहिए कि वह प्रातः काल उठकर स्नान आदि से निवृत होकर पीली धोती व गुरू चादर धारण कर उत्तर दिशा की ओर मुख कर बैठे। सामने गुरू चित्र का स्थापन कर संक्षिप्त पूजन करें, फिर कुण्डलिनी जागरण यंत्र को अक्षत के आसन पर स्थापित करें। यंत्र के बगल में ‘गोमती चक्र’ को रखें। फिर गुरूदेव के कुण्डलिनी स्वरूप का ध्यान करें-
जिनके शरीर का वर्ण सिन्दूर के समान लाल है, जिनके तीन नेत्र है, जिनके शिरोभाग में माणिक्य जड़ित मुकुट सुशोभित हो रहा है, जो मंद-मंद मुस्करा रहे है, जो अपने दोनों हाथों में मणिमय पात्र तथा रक्त कमल धारण किए है, जिनका स्वरूप सौम्य है, जिनके चरण रत्नयुक्त घड़े पर स्थित हैं, गुरूदेव के ऐसे कुण्डलिनी स्वरूप को मैं ध्यान करता हूँ।
इसके बाद निम्न मंत्र बोलते हुए यंत्र पर क्रमशः पाद्य हेतु जल, अर्घ्य हेतु दो आचमनी जल, स्नान, कुंकुंम, चन्दन, धूप, दीप, नैवेद्य, पुष्पाजंलि आदि अर्पित करें।
ऊँ ह्रीं एतत् पाद्य समर्पयामि नमः।
ऊँ ह्रीं एतत् अर्घ्यं समर्पयामि नमः।
ऊँ ह्रीं इदमाचनीयं समर्पयामि नमः।
ऊँ ह्रीं इदं स्नानं समर्पयामि नमः।
ऊँ ह्रीं एतं गन्धं समर्पयामि नमः।
ऊँ ह्रीं इदं सचन्दनं समर्पयामि नमः।
ऊँ ह्रीं एतं धूपं आघ्रापयामि नमः।
ऊँ ह्रीं एतं दीपं दर्शयामि नमः।
ऊँ ह्रीं इदं नैवैद्यं निवेदयामि नमः।
ऊँ ह्रीं एतं पुष्पांजलिं समर्पयामि नमः।
इसके बाद निम्न मंत्र की शक्ति माला से 5 माला नित्य 21 दिन तक करें-
इसके बाद
मंत्र बोलते हुए एक आचमनी जल छोड़ते हुए जप का समर्पण करें।
साधना समाप्ति के बाद समस्त सामग्री को जल में विसर्जित करें। यदि संभव हो तो साधना के बाद नित्य एक माह तक इस मंत्र का नित्य एक माला जप करें।
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