मनुष्य ऐसे है जैसे कली। कली जब तक फूल न हो, तब तक परेशान होगी। कली फूल होगी तो ही खुलेगी और खिलेगी। कली फूल होगी तो ही आनंद को उपलब्ध होगी। कली सिर्फ मार्ग पर है- फूल होने के मार्ग पर है। कली अंत नही, कली मंजिल नहीं। ऐसा ही मनुष्य है।
मनुष्य का दुःख भी यही है, मनुष्य की गरिमा भी यही है। दुःख यह है कि मनुष्य पूरा नहीं है। और पशु-पक्षी पूरे है। पूरे से अर्थ हैः वे यात्रा पर नहीं है। वे जैसे है जहां है, वहीं समाप्त हो जाएंगे। कुत्ता कुत्ते की तरह ही रहेगा और मर जायेगा। कुत्ते में कोई प्रगति नहीं है। तुम किसी कुत्ते से यह न कह सकोगे कि तुम कम कुत्ते हो। सब कुत्ते बराबर होते है। लेकिन आदमी से तुम कह सकते हो कि तुम थोड़े कम आदमी हो। क्यों कह सकते हो? क्योंकि कोई आदमी थोड़ा कम आदमी होता है और कोई आदमी थोड़ा ज्यादा आदमी होता है। कोई आदमी इतना पूर्ण आदमी हो जाता है-कोई बुद्ध, कोई महावीर- कि हमें उसे भगवान कहना पड़ता है। वस्तुतः बात इतनी ही घटी है कि बुद्ध का फूल खिल गया, और कुछ नहीं हुआ है। हमारी कली बंद थी, बुद्ध का फूल खिल गया है।
हम जहां है, जैसे है, वहां से आगे जाना होगा। आगे जाने की कला का नाम धर्म है।
तो धर्म और मनुष्यता एक ही नहीं है। अगर साधारण मनुष्य को हम मनुष्य समझे, तो धर्म मनुष्य के पार जाने का विज्ञान है। अगर हम बुद्ध और महावीर को मनुष्य समझे और साधारण आदमी को समझे कि अभी मनुष्य नहीं है, तो फिर धर्म मनुष्य होने का विज्ञान है।
धर्म है मनुष्य के भीतर गहराई पैदा करने का उपाय, मनुष्य के भीतर डुबकी। और गहराईयों पर गहराईयां है। एक गहराई छूओगे, दूसरी गहराई के दर्शन शुरू होंगे। एक द्वार खोलोगे, नया द्वार सामने आ जाएगा। द्वार पर द्वार है। इस रहस्य की अनंतता है। धर्म के बिना मनुष्य नाममात्र का मनुष्य होगा। न तो फूल खिलेगा और न सुवास होगी।
धर्म के संबंध में मूल्य तो उसके वक्तव्य का है जिसने ध्यान जाना हो, जिसने ध्यान की गहराई छूई हो, ध्यान का अमृत पीया हो, उनके वक्तव्य का कोई मूल्य है जो अपने भीतर गए हो, जिन्होंने भीतर डुबकी मारी हो, जिन्होंने भीतर का रस पीया हो, जिन्होंने भीतर की रोशनी देखी हो, जो अंतर-आकाश में उड़े हो। उन सबने कहा है कि धर्म के बिना आदमी आदमी ही नहीं है। आदमी फिर कली रह जाएगा। और कली कितनी भी सुंदर हो, कुछ कमी है। अभी कली फूल नहीं हुई। और जब तक फूल न हो, तब तक नाचेगी कैसे? और जब तक फूल न हो, तब तक सुवास को लुटाएगी कैसे? और जब तक फूल न हो, तब तक तृप्ति कहां? आनन्द कहां?
धर्म मनुष्य के पार जाने की सीढ़ी है। ऐसा कहो, या ऐसा कहो कि असली मनुष्य होने की कला है। दोनों का मतलब एक ही होता है। अगर तुम असली मनुष्य हो, तो मनुष्यता के पार जाने की कला है धर्म। तुम्हारे तो पार जाना ही होगा। तुम जैसे हो उससे ऊपर उठना ही होगा। तुम तो परिधि पर जी रहे हो, तुम्हारे जीवन में कोई केंद्र नहीं है। और अगर बुद्ध और महावीर, कृष्ण को हम मनुष्य की परिभाषा माने, तो फिर धर्म का अर्थ होगाः पूर्ण मनुष्य होने की कला। यह मनुष्य की परिभाषा पर निर्भर होगा।
धर्म जानने के लिए प्रार्थना में उतरना पड़ता है। वह काम हिम्मतवाले का है। पागल होना पड़ता है। मस्ती में डूबना पड़ता है। किताबी नहीं है काम, शब्दों का नहीं है, शून्य के अनुभव में जाना होता है। और जो उस अनुभव में जाएगाः धर्म के अतिरिक्त मनुष्य के जीवन में कभी सुंगध नहीं आती।
समाधि! सत्संग और ध्यान अन्योन्याश्रित है। ध्यान बढ़ेगा तो सत्संग में रस बढ़ेगा। सत्संग में रस बढ़ेगा तो ध्यान की गहराई बढ़ेगी। दोनों दो पंख की भांति है। इनमें एक पंख को भी काट डाला तो नुकसान होगा। एक पंख से फिर आकाश में उड़ न सकोगे, ध्यान में उतरोगे, फिर जब मुझे सुनोगे, मेरे पास बैठोगे, तो नई गहराई आएगी। ध्यान ने रास्ता बनाया। ध्यान ने सफाई कर दी, मार्ग के पत्थर हटा दिए, अवरोध हटा दिए। फिर मेरे पास बैठना, तो झरना बहेगा। फिर झरना बहेगा तो और नये रास्ते टूटेंगे। नये रास्ते टूटेंगे तो नये पत्थरों का आविष्कार होगा। फिर ध्यान में जाओगे, उन पत्थरों को हटाने का आनंद! ये दोनो अन्योन्याश्रित है।
ऐसा अक्सर हो जाता है। कुछ लोग सोचते है कि जब यहां आपके पास बैठ कर ही आनंद आ जाता है, तो फिर ध्यान क्या करना? उनका आनंद रूक जायेगा। उसमें गति नहीं होगी फिर। फिर रोज-रोज नई सीढ़ियां तय नहीं होगी। फिर जहां तक आ गया है, वहीं बात ठहर जाएगी। और वहीं ठहरी नहीं रहेगी, थोड़े दिन में पाएंगे कि वहां से भी पीछे हटने लगी।
कुछ विपरीत सोचने वाले भी लोग है। वे सोचते है, ध्यान में तो बड़ा मजा आ रहा है, अब सत्संग में क्या आना? अब सुनने में क्या है? अब तो हम खुद ही ध्यान में उतरने लगे। अब गुरू के पास बैठने की क्या जरूरत है? उनका ध्यान भी जल्दी डगमगा जाएगा। और न डगमगाया तो भी अवरूद्ध हो जाएगा।
स्मरण रहे, जितने प्रयोगो से संभव हो सके, चोट करो, जितनी दिशाओं से हमला हो सके, हमला करो। प्रार्थना भी करो, पूजा भी करों, ध्यान भी, प्रेम भी, सत्संग भी, भजन-कीर्तन भी। सब दिशाओं से हमला करो। इस दुश्मन को मिटा ही देना है। इस अंधेरे को तोड़ ही देना है। इसमें एक ही तरफ से हमला किया, तो शायद जीत संभव न हो। दुश्मन किसी और दरवाजे पर छिप जाए, किसी और कोने में बैठ जाए। अंधेरा कहीं और अपने लिए गुफा बना ले। तुम सब तरफ से रोशनी लाओ। सब द्वार-दरवाजे, खिड़कियां खोल दो। इसमें कंजूसी मत करो। एक ही दरवाजे से रोशनी आए, ऐसा क्या? सब दरवाजों से रोशनी आने दो। ध्यान भी करो, सत्संग भी करो। नाचो भी, गाओ भी, मौन भी बैठो। जितना संभव हो सके, उतना इस रसधार को अनेक-अनेक रूपों में बहने दो। और तुम पाओगे, इसकी सम्मिलित प्रक्रिया का परिणाम गहन होता है।
अच्छा हो रहा है कि सत्संग में शून्यता आ जाती है। समाधि को मैं देख रहा हूं। कोई फल पकने के करीब आने लगा है। यहीं खतरा है। जब फल पकने के करीब आने लगता है, तो मन कहता है, अब तो सब हो गया, अब और क्या करना है? अक्सर ऐसा हो जाता है कि लोग मंदिर के ठीक द्वार पर आते-आते लौट जाते हैं। मंजिल जहां पूरे होने के करीब होती है, वहीं ठहर जाते है। सोचते है, आ तो गया!
जिंदगी बड़ी है। जिंदगी तुम्हारी आकांक्षाओं से बड़ी है। और जिंदगी में ऐसे खजाने पड़े है जिनके तुमने सपने भी नहीं देखे। इसलिए इस भ्रांति में तो कभी पड़ना ही मत कि आ गया। कितना ही मिल जाए, यात्रा जारी रहे, यात्रा चलती रहे, क्योंकि और मिलने को है, और मिलने को है।
तुम्हारी आकांक्षाएं भी बड़ी दीन-दरिद्र है। तुम सोचते हो, मन थोड़ा शांत हो गया, बस हो गया। अभी बहुत होने को है! और ऐसा तो कभी नहीं होता जब कि कुछ होने को न बचे। इसीलिए तो कहते है कि परमात्मा का रहस्य अनंत है। जानो, और जानो, और जानो, फिर भी अनजाना रह जाता है। पहचानो और पहचानो, फिर भी पहचान कहां हो पाती है! सागर जैसा विराट है। खोजते-खोजते खोजी खो ही जाता है, समग्र रूप् से लीन हो जाता है।
जब तक तुम समग्र रूप से मिट न जाओ, तुम्हारे भीतर कहीं भी ‘मै’ का कोई स्वर न रह जाए, तब तक सत्संग भी चलने दो, ध्यान भी चलने दो, प्रार्थना भी चलने दो। पराभक्ति का जन्म न हो जाए, तब तक चलने दो गौणी-भक्ति। और इसमें कृपणता की कोई जरूरत नहीं है।
कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि तुम मान लेते हो कि सब हो गया। और जब सब होने के करीब होता है, तभी ऐसा होता है। मंजिल सामने दिखाई पड़ने लगती है, आदमी बैठ जाता है। तुमने देखा? यात्रा करके तुम आऐ हो-दूर लंबी पहाड़ की यात्रा-चलते रहे, चलते रहे, थके थे तो भी चलते रहे, अब सामने मंदिर आ गया तो तुम बैठ जाते हो। तुम कहते हो, अब तो सुस्ता ले, अब तो यह रहा मंदिर! मंजिल पर आकर लोग सुस्ताने लगते है। दूर होते है तो चलते रहते है।
बहुतों के भीतर बहुत कुछ घटने के करीब आ रहा है। यह जो फसल लगाई जा रहीं है, इसके काटने के दिन भी करीब आएंगे ही। ये जो बीज बोए जा रहे, ये अंकुर भी हो गए है, इनमें फल भी लगेंगे। स्मरण रखना, तुम्हें पता ही नहीं है कितने फल लगेंगे! अनंत फल लगेंगे। एकाध फल से राजी मत हो जाना। सच तो यह है, साधक जितने सिद्धि के करीब आता है, उतनी ही साधना और भी गहरानी पड़ती है।
शुभ है कि सत्संग में शून्यता फलती है, मन मौन हो जाता है। लेकिन सत्संग में तुम मेरे साथ जुड़े हो। सत्संग में तुम मेरे पंखो के सहारे उड़ रहे हो। संत्संग में तुम्हारी आँख मेरी आँख से देख रही है। सत्संग में मेरा हृदय तुम्हारे हृदय के साथ धड़क रहा है। ध्यान में भी इतना ही होना चाहिए। नहीं तो कल अगर में चला गया, फिर तुम क्या करोगे? कल अगर मैं हुआ तो फिर तुम क्या करोगे? और एक दिन तो आएगा कि मैं नहीं होऊंगा। तो जिसने सत्संग पर ही निर्भर किया, वह एक दिन कठिनाई में पड़ जाएगा। जिसने सत्संग से लाभ लिया और ध्यान की गहराई को बढ़ाता गया, वही मेरे जाने पर रोएगा नहीं, अनुग्रह से भरेगा।
मेरे साथ एक संगीत सध जाता है। उसमें कितना तुम्हारा है कितना मेरा है, कहना कठिन है। जब ध्यान में सधता है संगीत, तो तुम्हारा ही तुम्हारा है-सुनिश्चित तुम्हारा है! और जो तुम्हारा है, उसी पर अंतिम भरोसा करना।
ऐसा हो जाता है, हिमालय पर जाओगे, शांत बैठोगे, बड़ी शांति मालूम होगी, मगर उस शांति में बहुत कुछ हिमालय का है, तुम्हारा नहीं है। जब ऐसा ही बीच बाजार में बैठ कर हो सकेगा, तब तुम्हारा है। हिमालय से उतरोगे, जैसे-जैसे पहाड़ से नीचे आने लगोगे, भीड़-भाड़ बढ़ने लगेगी, वैसे-वैसे शांति खो जाएगी। रोज तो लोग पहाड़ जाते है और शांति का अनुभव करते है और लौट आते है- और फिर वही अशांति! तो हिमालय पर बैठ कर जो शांति तुम्हें अनुभव होती है, उसमें निन्यानवे प्रतिशत हिमालय का है, एकाध प्रतिशत तुम्हारा होगा।
एक प्रतिशत जरूर तुम्हारा होगा। क्योंकि ऐसे भी लोग है जो हिमालय पर बैठ जाते है और वहां भी शांति अनुभव नहीं होती। उनका बाजार जारी ही रहता है। उनकी भीड़ खड़ी ही रहती है। दिखता हिमालय है, मगर वे देखते रहते है उन्हीं को जिनको पीछे छोड़ आए है। सोचते रहते है उन्हीं की। लोग अखबार लेकर हिमालय चले जाते है, रेड़ियो लेकर हिमालय चले जाते है, ताकि दिल्ली की खबरें वहां बैठ कर सुन सके। फिर तुम गए ही किसलिए? लोग मित्रों को लेकर हिमालय चले जाते है, और उनके साथ वही बातचीत जारी रहती है जो यहां जारी थी। वही भीड़-भाड़, वही बकवास!
तो ऐसे भी लोग है जो हिमालय जाकर भी अनुभव नहीं करते शांति का। तो एक प्रतिशत तो तुम्हारा होगा। यहां भी ऐसे लोग है।
तो जब तुम मेरे साथ शांति में डूब जाते हो, मेरे पास बैठे-बैठे मेरी और तुम्हारे हृदय की धड़कन कभी-कभी एक हो जाती है, तुम मेरे साथ श्वास लेने लगते हो, तुम्हारा मेरे प्रति सारा प्रतिरोध टूट जाता है, तुम अपनी रक्षा नहीं करते, तुम मेरे साथ हो लेते हो, बेशर्त, बिना आगे पीछे की फिकर किए, तुम चल पड़ते हो मेरे साथ कि देखे क्या है, तुम हिम्मत कर लेते हो, तुम साहसी होते हो, तुम जाए पर दांव लगा देते हो-कभी-कभी वैसे क्षण आ जाते है- तब तुम अपूर्व शांति से भर जाओगे, अपूर्व आनंद से भर जाओगे।
लेकिन ध्यान रखना, उसमें बहुत कुछ मेरा है। जैसे ही घर लौटोगे, वह खो जाएगा। उस पर निर्भर मत रहना। उसका लाभ लो। उससे तुम्हारे भीतर क्या हो सकता है, इसकी झलक मिलेगी। फिर उस लाभ का उपयोग ध्यान में करो। फिर ध्यान में खुदाई करो, फिर अपनी कुदाली उठाओं और अकेले में खोदो। और जब तक वहीं आनंद न मिलने लगे जो सत्संग में मिला था, तब तक रूकना मत-खोदे जाना, खोदे जाना। जब वही आनन्द एकांत, अकेले में, घर बैठे हुए, मुझसे दूर मिलने लगे, तब फिर तुम समझना कि अब सत्संग के लिए फिर जरूरत आ गई, अब थोड़ा और आगे के दृश्य देखे, ताकि आगे की यात्रा हो सके।
सत्संग और ध्यान का ऐसा उपयोग करोगे, तो निश्चित पहुँच जाओगे। लेकिन मन ऐसा होने लगता है, मन कहता है, जब सत्संग में आनंद आता है, तो सत्संग ही कर ले। या मन कहता है, जब ध्यान में आनन्द आता है तो सत्संग क्यों करें?
दो तरह के लोग है। जो लोग स्त्रैण वृत्ति के है-सरल, ग्राहक, अंगीकार करने वाले-उन्हें सत्संग ज्यादा रूचेगा बजाय ध्यान के। यह आकस्मिक नहीं है कि स्त्रियां सत्संग में ज्यादा दिखाई पड़ती है। सरल है। सरलता से किसी के भी साथ उनका हृदय धड़क सकता है। उन्हें एक कला स्वाभाविक है कि प्रेम में पड़ सकती है। और बिना प्रेम में पड़े सत्संग नहीं होता। प्रेम में पड़ते ही तंरगे एक सी होती है। गुरू के साथ शिष्य की तरंग एक हो जाती है। दोनों के तार मिल जाते है। ऐसे क्षण आ जाते है जब दो नहीं रह जाते शिष्य और गुरू। कभी-कभी दोनो बस एक हो जाते है। उसी घड़ी अपूर्व शून्यता आ जाती है। अपूर्व पूर्णता आ जाती है। अपूर्व आनंद बरस जाता है। मेघ घिर जाते है। मल्हार बज उठती है। वीणा पर टंकार पड़ जाती है। कोई नृत्य भीतर होने लगता है।
जो परूष है, जो परूष है उसी को तो पुरूष कहते है। परूष यानी कठोर, पथरीला, दंभी, अहंकारी, झुकने को राजी नहीं। टूट जाए, वह कहता है, मगर झुकेंगे नहीं। वह अगर सत्संग में आता भी है तो अपनी म्यान-तलवार लेकर आता है। वह सत्संग में आता भी है तो अपनी ढाल के पीछे छिपा रहता है। वह कहता है, कहीं झुकना न पड़े। वह झुकने से डरा रहता है। उसे ध्यान ज्यादा रूचेगा, क्योंकि ध्यान में वह अकेला है, कोई किसी के सामने झुकना नहीं है।
तो पुरूषो को अक्सर यह हो जाता है कि वे ध्यान की तरफ झुक जाऐंगे और सोचेंगे, सत्संग की अब क्या जरूरत है? इतना तो सुन लिया गुरू को, अब सुनने की क्या जरूरत है? अब तो अपने एकांत में ध्यान सम्भालों! स्त्रियों को अक्सर ऐसा होने लगेगा कि और सुनो, और सुनो, ध्यान की क्या जरूरत है, मगर दोनो गलत है। दोनो की जरूरत है। दोनों पंख चाहिए उस यात्रा के लिए। और अब कोई व्यक्ति संतुलित होता है तो वह पचास प्रतिशत स्त्री होता है और पचास प्रतिशत पुरूष होता है। इसीलिए तो अर्धनारीश्वर की हमने मूर्ति बनाई है। वह संतुलन की मूर्ति है। देखी है न अर्धनारीश्वर की मूर्ति? आधे शिव-पार्वती है आधे पुरूष है।
वह अपूर्व प्रतिमा है। दुनिया में किसी ने वैसी प्रतिमा नहीं गढ़ी, क्योंकि दुनिया में किसी जाति ने मनुष्य के भीतर इतने समन्वय की बात नहीं खोजी। आधा पुरूष, आधा स्त्री। ये दोनों पंख पूरे हो गए- समर्पण और ध्यान। अर्धनारीश्वर का अर्थ हैः समर्पण और ध्यान, स्त्री और पुरूष दोनों साथ-साथ। झुको भी कि समर्पण हो जाए, और अपने पर निर्भर भी हो जाए। दोनों में चुनना नहीं है, दोनों को जोड़ना है। जो हो रहा है, शुभ है, मगर उसकी वजह से ध्यान को मत छोड़ देना जो हा रहा है, वह समर्पण है।
इस दशा में है समाधि। इस दशा में यहां बहुत मेरे संन्यासी है। दूर की आवाज करीब आने लगी है। कोई गीत भीतर फूटने लगा है। कोई नग्मा जगने लगा है। कोई सुगंध प्रकट होने लगी है।
मस्ती, मादकता, पागलपन का आविर्भाव हो रहा है। धन्यभागी है, वे जिनके जीवन में प्रभु का पागलपन आ जाए। और पागलपन के आते ही सारा खेल बदल जाता है।
बुद्धि हारने लगती है, हृदय जीतने लगता है। भाव जीतने लगते है, विचार हारने लगते है। शुभ है। सत्संग का लाभ लो, लेकिन ध्यान को मत छोड़ देना। यह सत्संग का लाभ, समाधि, तू इसीलिए ले पा रहा है कि ध्यान किया है। और हर सत्संग के बाद ध्यान की गहराई बढ़ती जाएगी। दोनों एक-दूसरे को सहारा देते है। दोनों एक दूसरे के सहारे ऊपर उठते जाते है। इन्हीं दोनों के सहारे किसी दिन गौरीशंकर का शिखर तुम्हारे भीतर प्रकट होता है। इन दोनों को मिलने दो। इस दोनों के मिल जाने का नाम योग है। तुम्हारे और तुम्हारी प्रीति को मिलने दो। तुम्हारे पुरूष और तुम्हारी स्त्री को मिलने दो। अर्धनारीश्वर बनो।
ये चप्पू है। तुमने देखा, चप्पू दो रखने पड़ते है। एक चप्पू से नाव नहीं चलती। कभी एक चप्पू से नाव चला कर देखी? गोल चक्कर खाने लगेगी। यात्रा नहीं होगी, कोल्हू का बैल बन जाएगी। कभी चलाना जाकर, नदी में जाकर एक चप्पू से चलाना। बस नाव गोल-गोल घूमने लगेगी अपनी ही जगह पर। उस पार जाना हो तो चप्पू चाहिए। सत्संग और ध्यान में चुनना नहीं है, दोनों के पंख बना लेने है, दोनों के सहारे उड़ जाना है।
कोई जहर खाकर आत्मघात कर लेता है। कोई गोली मार कर आत्मघात कर लेता है। कोई रस्सी से लटक जाता है, आत्मघात कर लेता है। वे विधियां अलग हैं, मगर आत्मघात एक है।
ऐसे ही ये सब विधियां अलग है, लेकिन मूल में तो आत्मघात है। मिटो! अहंकार समाप्त हो जाए। यह असली आत्मघात है जो मैं तुम्हें सिखा रहा हूँ। शरीर को मिटा कर तो कुछ खास मिटता नहीं, फिर लौट आओगे। और फिर ऐसे ही शरीर में लौटोगे, क्योंकि तुम्हारी चेतना तो बदली नहीं। चेतना के खास ढंग के कारण ही तो तुमने यह शरीर लिया था। चेतना का ढंग तो बदला नहीं। तुम फिर इसी शरीर में आ जाओगे। तुम फिर ऐसा ही शरीर चुन लोगे, ऐसा ही गर्भ चुन लोगे।
आत्मघात असली आत्मघात नहीं है, असली आत्मघात संन्यास है, इसमें तुम्हारी चेतना ही अपना व्यक्तित्व खो देती है, अपना अंधकार खो देती है। फिर लौटना नहीं है। जो मिट गया, वह हो गया। जिसने अपने को बचाया, उसने खोया। इसलिए मेरी देशना का सार सूत्र है-मिटो! फिर जो विधि तुम्हें रूच जाए। सारी विधियों की जरूरत नहीं है। एक विधि काफी हो सकती है-सम्यकरूपेण की जाए।
इस संसार में न कोई गलत काम कभी हुआ है, न होगा। हो ही नहीं सकता। असंभव है। क्योंकि परमात्मा सर्वव्यापी है।
तुम जिसको गलत कहते हो, वह तुम्हारी धारणा है। तुम जिसको सही कहते हो, वह तुम्हारी धारणा है। तुम्हारी धारणा के कारण सही और गलत दिखाई पड़ता है। धारणा को छोड़ा, फिर क्या सही और क्या गलत है? ध्यानी को कुछ गलत नहीं दिखाई पड़ता और कुछ सहीं नहीं दिखाई पड़ता, क्योंकि ध्यानी की धारण छूट गई। एक बात तुम्हें ठीक दिखाई पड़ती है, दूसरे की वही गलत दिखाई पड़ती है।
समझो, तुम कहते होः चोरी पाप है।
लाओत्सु वजीर हो गया था अपने देश का। एक आदमी चोरी करके पकड़ा गया। उसने चोर को साहूकार को, दोनों को छह-छह महीने की सजा दी। साहूकार चिल्लाया कि तुम होश में हो कि शरीब पीए हो, मामला क्या है? साहूकार को सजा! कभी सुनी?
लेकिन लाओत्सु ने कहा, अगर तुम इतना धन इकट्ठा नहीं करते, तो चोरी होती नहीं। तुमने सारे गांव का धन इकट्टा कर लिया, चोरी न हो तो क्या हो? सच तो यह है कि मैंने खुद ही कई बार सोचा है। यह आदमी तो नंबर दो का कसूरवार है, नंबर एक के तुम कसूरवार हो। न तुम इतना धन इकट्ठा करते, न चोरी होती।
सम्राट के पास बात गई। सम्राट भी बहुत हैरान हुआ कि इस तरह की सजा! लेकिन लाओत्सु की बात में बल तो था। चोरी ठीक है या गलत? चोरी गलत है, अगर तुम यह मानते हो कि लोगों का धन इकट्ठा करना बिलकुल ठीक है। तो गलत है। अगर लोगों का धन इकट्ठा करना ही गलत है, तो फिर चोरी कैसे गलत होगी? चोरी तो एक तरह का साम्यवाद है। यह व्यक्तिगत रूप से साम्यवाद फैला रहा है आदमी। बांट रहा है संपति लोगों की। जहां ज्यादा इकट्ठी हो गई है, वहां से छुटकारा दिला रहा है।
पश्चिम के बहुत बड़े विचारक प्रूधो ने लिखा हैः सब संपत्ति चोरी है। संपत्ति मात्र चोरी है। तुम्हारे पास इकट्ठी कैसे होती है? किसी ने किसी की जेब खाली होगी तो इकट्ठी होगी। तो साहुकार और चोर में फर्क क्या है? प्रूधो के हिसाब से ? चोर छोटा-मोटा चोर है, साहूकार बड़ा चोर है- बस इतना ही फर्क है। क्या ठीक है? क्या गलत है?
विचार की बात तो है ही। तुमने किसी आदमी को रूपये दिए, कि वह भूखा था, और उसने जाकर शरीब पी ली। न तुम रूपये देते, न वह शराब पीता। शराब पीकर आया और अपनी पत्नी को मार डाला। तुम्हारी दया ने बड़ी हानि कर दी। क्या ठीक है? क्या गलत है?
तुम जरा बुरे को अलग कर लो जीवन से, असाधु को अलग कर लो-तुम्हारे साधु कहां बचेंगे? बुरे को अलग करते ही तुम्हारी महात्माओं में कितना महात्मापन रह जाएगा? किस कारण रह जाएगा? संयुक्त है, जैसे दिन और रात जुड़े है। राम और रावण एक ही सिक्के के दो पहलू है। न तो रावण हो सकता है राम के बिना, न राम हो सकते है रावण के बिना।
महर्षि रमण ने ठीक उत्तर दिया था। एक जर्मन विचारक ने उनसे पूछा-यही पूछा था, जैसे तुमने पूछा है- कि दुनिया में इतना पाप क्यो है? इतनी बुराई क्यों है?
पता है रमण ने क्या कहा? बड़ा अद्भूत उत्तर दिया, शायद ही किसी ने दिया हो! कोई ज्ञानी ही दे सकता है। रमण ने कहाः टु थिकेट दि प्लॉट। कहानी को जरा रसपूर्ण बनाने के लिए। सघन करने के लिए। कहानी में थोड़ा मजा लाने के लिए।
तुमने देखा, तुम कोई कहानी बना सकते हो जिसमें बुराई न हो? सच तो यह है, कहा जाता है कि अच्छे आदमी की जिंदगी में कहानी होती ही नहीं। अच्छा आदमी बिलकुल सपाट कोरे कागज की तरह होता है। बुराई कुछ की ही नही, अच्छाई ही अच्छाई है। बैठ कर घर में भजन ही करते रहे, कहानी कहां? तुमने अच्छे आदमी की कहानी देखी है? अगर अच्छे आदमी की भी कहानी होगी तो बुरे आदमी को लाना पड़ेगा, जो उनकी कहानी को जान देगा। नहीं तो रामचंद्र जी लेकर सीता जी को और लक्ष्मण जी को घूमते रहते। अभी तक घूम ही रहे होते! वह तो भला रावण का…… ! नहीं तो घूमते रहो सीता जी को लेकर। कहा रूकोगे? कैसे रूकोगे?
इस जगत में बुराई और भलाई विपरीत नहीं है, परिपूरक है। रात के बिना दिन नहीं है, दिन के बिना रात नहीं है। स्त्री के बिना पुरूष नहीं है, पुरूष के बिना स्त्री नहीं है। सर्दी के बिना गर्मी नहीं, गर्मी के बिना सर्दी नहीं है। यहां जितने द्वंद्व है, वे ऊपर से दिखाई पड़ रहे है, भीतर जुड़े है। यह तुम्हें स्मरण आ जाए, तो तुम समझोगे कि बड़ी प्यारी कहानी चल रही है। फिर बुरे से भी तुम नाराज नहीं हो, तुम जानते हो, वह भी अनिवार्य है। रावण की अनुकंपा है, इसीलिए राम इतने प्रगाढ़ होकर प्रकट हुए है।
काले ब्लैक-बोर्ड पर लिखना पड़ता है न सफेद खड़िया से! ब्लैक-बोर्ड न हो तो सफेद खडिया से लिख न सकोगे। रावण ब्लैक-बोर्ड है, राम सफेद खड़िया की तरह उभरते है। रावण को इसीलिए तो काला पोता गया है। जितना काला रावण को पोतोगे, उतने ही राम सफेद होकर प्रकट होते है। जीवन की यह अनिवार्यता है। यह खेल है। यहां न कुछ बुरा है, न कुछ भला है।
जो जानते है उनके लिए यह पृथ्वी बड़ा मंच है। यहां न बुरा कभी हुआ है, न होता है। यहां बुरा-भला सब नाटक का हिस्सा है। टु थिकेन दि प्लॉट। कहानी को जरा रसपूर्ण बनाने के लिए। राम अकेले-अकेले आएंगे, दिखाई भी न पड़ेंगे, रावण को लाना पड़ता है। रावण अकेला आएगा तो भी राम के बिना कोई रस नहीं होगा उसके जीवन में। जो इस तरह देखेगा, वह मुक्त हो जाएगा-शुभ-अशुभ दोनों से। और शुभ-अशुभ से मुक्त हो जाना संतत्व है। साधु-असाधु से मुक्त हो जाना संतत्व है।
इसीलिए ध्यान रखना, संत का अर्थ साधु मत करना। साधु तो संत है ही नहीं। साधु कैसे संत होगा?अभी असाधु से लड़ रहा है। संत तो वह है जिसे दिखाई पड़ गया कि साधु-असाधु एक ही सिक्के के दो पहलू है। अब न जो साधु रहा, न असाधु रहा, जो दोनों के पार खड़ा हो गया, साक्षी हो गया, द्रष्टा हो गया।
वही द्रष्टा होना मैं तुम्हें यहां सिखा रहा हूँ। इसीलिए बहुतों को अड़चन होती है। वे यहां आकर सोचते है कि अरे! बुरा-भला सब चल रहा है! वे सोच कर आए कि लोग बैठे होंगे झाड़ों के नीचे अपनी-अपनी माला लिए, राम-राम जप रहे होंगे। यहां हजार काम हो रहे है।
मेरी दृष्टि में, जीवन जैसा है, स्वीकार्य है। जीवन प्यारा है, उसमें बुरा-भला सब अंगीकार होना चाहिए, उसमें खट्ठा-मीठा सब चाहिए। नहीं तो जीवन एक स्वाद का होगा तो उसके आयाम खो जाएंगे। जीवन बहु-आयामी होना चाहिए। हां, इस सबके भीतर साक्षी जगना चाहिए। सब चलता रहेगा ऐसा ही, साक्षी जग जाना चाहिए।
और निश्चित ही रावण का साक्षी जगा होगा-उतना ही, जितना राम का। इसलिए लक्ष्मण को भेजा है रावण से शिक्षा लेने- कि जा, मरते रावण से कुछ सीख ले! कहा कि वह महाज्ञानी था। क्या बात होगी, क्या राज होगा? साक्षी था।
कहानी को जरा नये ढंग से देखो, जरा मेरी आंखों से देखो! और तब तुम पाओगेः यहां कुछ बुरा नहीं है, कुछ भला नहीं है। यहां कांटे फूलों की रक्षा कर रहे, उनके दुश्मन नहीं है। यहां फूल कांटों के संगी-साथी है, सखा है, उनमें कोई शत्रुता नहीं है। यह आदमी की बुद्धि है जो निर्णय कर लेती है- यह लगता है तो सवाल उठता है कि परमात्मा बुरे-भले को क्यों मौका दे रहा है? भला ही भला होना चाहिए।
परमात्मा तुम्हारी बुद्धि के अनुसार नहीं चल रहा है। तुम्हारी बुद्धि बड़ी छोटी है। तुम्हें क्या बुरे का पता है, क्या भले का पता है?
अब तुम परेशान हो रहे हो कि सिंह आया और आदमी को झपट कर खा गया, तो यह बड़ा बुरा हो रहा है। क्यों बुरा हो रहा है? सिंह को भूखा मारना है? अरे सिंह की भी तो सोचो? वह सिर्फ अपना नाश्ता कर रहा है।
अब आदमी बड़ा होशियार है। जब सिंह को मारता है, उसको कहता है-शिकार, खेल। और जब सिंह मारता है तब नहीं कहता शिकार, तब खेल नहीं मानता। यह तो बड़ी बेईमानी हो गई। तुम सिंह को मारो, तो खेलने गए थे-आखेट, क्रीड़ा! ऐसे तुमने नाम बना रखे है। और जब सिंह कभी शिकार कर जाए, तो नरभक्षी है। क्यों साहब, उनको भी कुछ खेलने दोगे कि नहीं?
सब खेल-खेल में हो रहा है। तुम्हारा भी खेल में हो रहा है, उनका भी खेल चल रहा है। जिस दिन तुम साक्षीभाव से देखोगे……… आदमी की तरह मत देखो, क्योंकि उसमें तो पक्षपात हो गया। तुम जब आदमी की तरह देखते हो, तो पक्षपात हो गया, फिर तुम सिंह की तरह नहीं देखते। पक्षपात छोड़ कर साक्षीभाव से देखो, तो तुम देखोगे, क्या फर्क पड़ता है, तुमने सिंह खाया कि सिंह ने तुमको खाया? राम ही राम को खा रहा है! राम ही राम को पचा रहे है! ठीक चल रहा है। कुछ अड़चन नहीं है।
परम ज्ञानी को अगर सिंह खा जाएगा, तो वह यही जानता है कि ठीक है, परमात्मा ने मुझे आत्मसात् कर लिया- सिंह के द्वारा, सिंह के रूप में आया और मुझे ले गया।
साक्षी के लिए कुछ बुरा नहीं, कुछ भला नहीं,। सब लहरें है। और सब एक की ही लहरें हैं।
तुम पूछते होः‘और अगर वही कराता है सब कुछ, तो फल भी वही क्यों नहीं भोगता?
तुम क्या सोचते हो, तुम भोग रहे हो? वही भोग रहा है। कराता भी वही, भोगता भी वही। कर्ता भी वही, भोक्ता भी वही। तुम्हारी भ्रांति है, भ्रम है, माया है। तुम तो लहर हो उसी की। जो कुछ भी हो रहा है, उस पर ही हो रहा है। ऐसा ध्यान जब तुम्हारा खुलेगा, साफ होगी दृष्टि, तो दिखाई पड़ेगा।
अनुभूति ही उत्तर हो सकती है। थोड़े साक्षी बनो। थोड़े ध्यान में जाओ। तुम्हें दिखाई पड़ने लगेगा जो मैं कह रहा हूँ। मेरी बात मान लेने से हल नहीं होगा, क्योंकि तुम्हारा अनुभव तो विपरीत ही रहेगा। एक बिच्छू आकर काट जाएगा और जब भूल जाएगा। तुम कहोगे कि अरे, यह बिच्छू! इसमें कैसे परमात्मा देखे? और फिर परमात्मा ने इसमें जहर क्यो रखा है? टु थिकेट दि प्लॉट। नहीं तो मजा ही क्या होता? वह जो डंक दे गया है तुम्हें जोर से उसमें मजा ही नहीं रह जाता। तुम क्या सोचते हो उसमें कॉफी या चाय रख देता? सब पोच हो जाता, खेल का मजा ही चला जाता। उसके डंक में रखा है जहर, कि दे जाए मजा तुमको? मगर वही है। वही जहर है, वही अमृत है।
जरा सा कांटा चुभ जाता है और तुम्हें सवाल उठने लगते है-बड़े दार्शनिक सवाल तुम सोचते हो- कि कांटा क्यो चुभा? अगर परमात्मा सर्वव्यापी है, तो कांटा क्यों चुभा?
कांटे में भी वही चुभ रहा है, लेकिन हम भेद किए बैठे है। हमारा परमात्मा से मतलब कुछ ऐसा होता है कि जो-जो हम चाहें, वहीं होना चाहिए, तो परमात्मा है।
अगर तुम इस तरह सोचोगे, तो तुम पाओगे कि ऐसी कोई चीज नहीं है, जिसको ठीक मानने के लिए सारे लोग राजी हो जाएं, या गलत मानने के सारे लोग राजी हो जाएं। परमात्मा किसकी सुने?
साक्षी बनो। तुम्हारे साक्षी में ये सारे सवाल गिर जाएंगे। और जिस दिन तुम्हें राम और रावण में एक दिख जाएगा, उस दिन जानना कि कुछ हुआ। जब तक रावण तुम्हें दुश्मन दिखाई पड़े और राम तुम्हें प्यारे दिखाई पड़े, तब तक समझना, अभी कुछ हुआ नहीं। फूल और कांटा जिस दिन एक हो जाएं, सुख और दुःख एक दिन एक हो जाएं, उस दिन जानना, कुछ हुआ है।
नया सदा ही भयभीत करता है। अपरिचित डराता है। लेकिन अपरिचय में ही विकास है। अनजान में ही यात्रा है। रोज-रोज पुराने को छोड़ना है, रोज-रोज नये में गति करनी है।
जैसे रोज नया सूरज उगता है सुबह, रोज नये फूल खिलते है सुबह, ऐसे ही तुम्हारे जीवन में भी रोज नई रोशनी चाहिए, नये फूल चाहिए। किताबों में दबे हुए मुर्दा फूलों को लेकर मत बैठे रहो। तुम्हारी स्मृतियां किताबों में दबे मुर्दा फूल है। अतीत के साथ मत उलझे रहो। सुविधापूर्ण है। साहस की कोई जरूरत नहीं है अतीत के साथ जीने में। कमजोर के लिए बड़ी सुरक्षा है। लेकिन अतीत में ही डूबे रहना, तो फिर विकास कैसे करोगे? विकसित कैसे होओगे?
नया पुकारता है रोज-रोज। परमात्मा नित नया है, नित नूतन है। जो नये में उतर सकता है, वहीं परमात्मा को जान सकता है। पुराने के प्रति रोज मरना है और नये के प्रति रोज जन्मना है। और यह समय की धारा, जो जा रही है तुम्हारे पास से, फिर नहीं लौट कर आएगी। एक क्षण भी खोना मत। अतीत के साथ, पुराने के साथ गंवाया गया हर क्षण व्यर्थ गया।
अगर तुम्हारा जीवन एक ज्योति नहीं बन सकता है, अगर अंगार लपट कर लौ नहीं बन सकता है, तो जल्दी ही राख हो जाएगा। फिर एक अवसर गया। ऐसे ही बहुत अवसर तुमने खोए है। अब इस अवसर को मत खोओ। मेरे साथ होने का पूरा लाभ ले लो।
ध्यान रखना, यहां कुछ भी स्थिर नहीं है, या तो आगे जाओ या पीछे जाओ। जाना तो पड़ेगा ही वैज्ञानिक कहते हैः स्थिर होना असंभव है। कोई चीज स्थिर नहीं है। या तो रोज-रोज नये जीवन में प्रवेश करो, या रोज-रोज पुरानी मृत्यु में दबते जाओगे।
छोड़ो भय! भय से भर भय करो, और किसी चीज से भय मत करो।
राख हुआ जाता है जीवन, प्रतिपल राख की पर्त पर जम जाती है। अंगार को लपटने दो। अंगार को लौ बनने दो। नये का भय क्या? नया तो जीवन है। नये का भय क्या? नया तो परमात्मा है। लेकिन बहुत लोग राख होने में सुविधा पाते है। बहुत लोग मरने के पहले मर जाते है। बहुत लोग ऐसे जीते है जैसे कब्र में हों।
खोलो द्वार दरवाजे मन के। परमात्मा रोज दस्तक देता है। उनकी दस्तक सुनो। नये के साथ जाने में ही तुम्हारा विकास है। नये के साथ ही तुम आकाश में उड़ सकोगे।
भूलें होंगी। और वही कारण है डर का। हर एक आदमी को यह समझाया गया है बचपन से-भूलें मत करना। उसके कारण भय पैदा हो गया है, कहीं भूल न हो जाए। पुराने काम में भूल नहीं होती, क्योंकि जाना-माना है। वही-वही तुम करते रहते हो, करते ही रहे हो, वही-वही करते रहते हो, भूल नहीं होती। एक बात तय होती है कि भूल नहीं होती। मगर सबसे बड़ी भूल हो गई, कि तुम मुर्दा हो गए, तुम जिंदा न रहे। मैं तुमसे कहता हूं, भूलों से भय मत खाओं। भूलें करने वाले ही जीवन में कुछ सीख पाते है। एक ही बात याद रहेः वही भूल बार-बार न हो। नई भूल रोज करो। नई भूल ईजाद करो। जाग कर भूल करो, ताकि भूल से कुछ सीख लो और भूल का कुछ परिणाम हो जाए। भूल तो पीछे छूट जाएगी, लेकिन भूल से सीखी जो बात तुमने, उसकी सुंगध तुम्हारे साथ सदा रह जाएगी। भूलें करके ही तो आदमी सीखता है।
तुम ध्यान रखना, जिसने पाप ठीक से नहीं पहचाना, वह कभी पुण्य को नहीं पहचान पाएगा। और जिसने संसार को ठीक से नहीं देखा, वह परमात्मा के पास नहीं आ पाएगा। यह संसार परमात्मा के पास आने के लिए ईजाद की गई भूल है। यह परमात्मा के द्वारा ही ईजाद की गई भूल है। यह उपाय है, यह अवसर है- तुम्हें भटकाने का, तुम्हें भुलाने का। और भूल-भूल कर तुम जब याद करोगे, चूक-चूक कर जब तुम फिर वापस लौट आओगे, तो हर बार तुम्हारी प्रोढ़ता बढे़गी, हर बार तुम्हारा केंद्रीकरण बढ़ेगा। हर बार तुम्हारी चेतना ज्यादा प्रखर होती जाएगी।
भूल से भयभीत न होओ। वही भय है, कि कहीं भूल न हो जाए, इसलिये घर के भीतर छिपे रहो। गोबरगणेश बने बैठे रहो, कहीं भूल न हो जाए।
मैं तुमसे कहता हूँः भय छोड़ो। निकलो घर के बाहर!भूलें होने दो। बस एक भूल दुबारा न हो, इतना स्मरण रहे। जल्दी ही भूलें चुक जाएंगी। और जल्दी ही तुम पाओगेःसद्यःस्नात, ताजे तुम हो गए। अभी-अभी नहाए तुम हो गए। और जब जीवन एक नया आविर्भाव लेता है। एक नया रंग!जीवन एक नई धुन लेता है। एक नया गीत! जीवन आनंद बन जाता है।
जीवन के उस आनंद बन जाने का नाम ही ईश्वर का अनुभव है।
भूल और भूल और भूल, शूल और शूल और शूल, और सब तरफ से चुभा हुआ आदमी, और सब तरफ से चेष्ठा करके हार गया आदमी, सब तरफ से अपने अहंकार को सिद्ध करने की यात्रा में चला आदमी और सिद्ध नहीं कर पाया, विफल हो गया, ही समर्पण करने में समर्थ हो पाता है। समर्पण कमजोर की बात नहीं है। गोबरगणेश की बात नहीं है समर्पण। घर में ही जो बैठा रहा, उसकी बात नहीं है। समर्पण उसकी बात है, जिसने जीवन को जाना- सब तरह से जाना। सब तरह से लड़ा, संघर्ष किया, सब तरह से जूझा, युद्ध किया और हारा, और एक दिन पाया हार-हार कर, कि जीतने की चेष्टा में हार है। तो अब हार का भी प्रयोग करके देख लूं। अब अपने से हार जाऊं। और तभी जीत फलित होती है। उड़ो, जितने दूर तक उड़ सको। जाओ, जितने दूर परमात्मा से जा सको। एक दिन गिरोगे। और तब गिरने का मजा और। जो गया ही नहीं, उसके गिरने में बल नहीं होता। जो लड़ा ही नहीं, उसकी हार में जीवन नहीं होता। जो पास ही बैठा रहा, वह पास हो ही नहीं सकता। पास होने के लिए दूर जाना अनिवार्य है।
साफ है कि इस जगत में कोई घर नहीं बना सकता। और साफ है कि बिजली की लताओं पर नीड़ बनाने कोई जाएगा तो हारेगा।
लौटना भी पता था। लेकिन तब तक क्या लौटना, जब तक आगे जाने की सुविधा हो! लौटना तो तभी सार्थक होता है, जब आगे जाने का उपाय ही न रहा। आखिरी सीमा तक अहंकार जाता है तो ही टूटता है, गिरता है, समर्पित होता है।
कौन नहीं जानता? पानी पर रेखाएं खींच रहे हैं हम। कागज की नावें तैरा रहे है हम। लेकिन तैरना जरूरी है। वे नावें डूबे, तो हमें अनुभव हो, वे लकीरें मिटे, तो हमें पता चले।
वह जो दूर उड़ रहा था आकाश में, इस भूमि की आकांक्षाओं की खबर आकाश को देना चाहता था।
समझ लेना यह बात। जो सच में ही जीवन को जीकर, जीवन में जाग कर लौटे है, उन्हें पश्चाताप नहीं होता। वे परमात्मा से यह नहीं कहते कि हम पश्चाताप कर रहे है, कि हमसे भूले हुई। पश्चाताप क्या? क्योंकि उन्हीं भूलों के कारण तो परमात्मा मिला, पश्चात्तप कैसा? अंधेरे में गए, अंधेरे को भोगा, उसी से तो प्रकाश की एक तलाश पैदा हुई, पश्चाताप कैसा? पाप किया, उसी पाप से तो पुण्य की यात्रा शुरू हुई, पश्चाताप कैसा?
इसलिए मैं तुमसे कहता हूँः पश्चाताप मत करना। पश्चाताप करने की कोई जरूरत ही नहीं है। पश्चाताप का तो मतलब होता है, हमने कोई भूल की थी। नहीं करनी थी, ऐसी कोई बात की थी।
ऐसी कोई बात ही नहीं है, जो नहीं करनी है। सारी बात कर लेनी है। कर लेने से ही बोध है। बोध से मुक्ति है। पश्चाताप नासमझ करते है। समझदार जीवन को जीते है और जानते है कि जीवन परमात्मा ने दिया है, उसके पीछे राज है। यह पाठशाला है।
यह कमजोरी के कारण नहीं गिरा हूँ, जितनी शक्ति थी, उतना तो मैं उठा था आकाश में शक्ति चुक गई। सीमा आ गई। अब जो गिरा हूँ, कमजोरी के कारण नहीं गिरा हूँ-शक्ति की उड़ान के कारण ही गिरा हूँ। यह जो मेरी समर्पण की दशा है, यह अहंकार की अंतिम निष्पति है।
और एक सीमा आ जाती है, उसके बाद धन का कोई मूल्य नहीं होता। क्योंकि जितना ज्यादा धन होता है, उतना मूल्य कम होता है, खयाल रखना। तुम्हारे पास जब एक रूपया होता है, तो एक एक रूपये की कीमत ज्यादा होती है। जब तुम्हारे पास हजार रूपये होते है, और फिर एक रूपया होता है, उसकी कीमत न के बराबर होती है। अगर तुम्हारे पास दस अरब रूपये है, एक रूपये की क्या कीमत? यह वही रूपया है! लेकिन एक आदमी के पास एक ही रूपया है, उसके पास बड़ी कीमत है। यह उसका सर्वस्व है।
मैनें अपनी शक्ति, अपने संकल्प की परीक्षा तो आकाश में कर ली है।
अब भक्ति की परीक्षा होगी। शक्ति की परीक्षा के बाद ही भक्ति की परीक्षा है। संकल्प की परीक्षा के बाद ही समर्पण की परीक्षा है।
भय न करो। जीवन को जीओ, यह परमात्मा का वरदान है। रोज-रोज जीओ! गहनता से जीओ! सघनता से जीओं! जरा भी भय न करो। अभय होकर जीओ! भूलें करो और खूब करो, बस वही-वहीं भूले बार-बार करो। और जल्दी ही वह घड़ी आ जाएगी, सब भूलें चुक जाएंगी। भूलों की सीमा है।
और जिस दिन सब भूलें चुक जाती है, उस दिन तुम लौटोगे। परमात्मा भी तुम्हारे लिए उस दिन दीपमालाएं सजाता है। परमात्मा भी उस दिन तुम्हारे लिए फूल के हार तैयार करता है। उस दिन परमात्मा के द्वार पर तुम्हारा स्वागत है। मगर जाना तो होगा दूर!दूर जो गया, वही पास आ सकता है।
परम पूज्य सद्गुरू
कैलाश श्रीमाली जी
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