हमारे पूर्वज, हमारे ऋषि, बड़े ही चेतनावान, दिव्ययुग पुरुष थे, जिन्होंने मानव के जीवन में विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार साधनाएं विकसित की, जिनके द्वारा व्यक्ति अपना अभीष्ट पूर्ण कर सके। ऋषि वे उच्चतम कोटि के योगी, यति होते हैं जो पूर्ण रूप से ब्रह्ममय हो जाते हैं, स्वयं ब्रह्म स्वरूप हो जाते है और जिनके लिए असम्भव नाम की कोई स्थिति नहीं होती, ऋषि ही वास्तव में इस ब्रह्माण्ड के नियंता हैं, उनकी सूक्ष्म, नियन्त्रक तरंगो के माध्यम से ही, समस्त ब्रह्माण्ड गतिशील हैं। वे सही अर्थों में मनुष्य थे, क्योंकि अपने जीवन की सभी डोर उनके स्वयं के हाथ में थी और अगर हम अपने पूर्वजो की स्थिति तक न भी पहुँच पायें तो कम से कम ये स्थितियाँ तो अपने जीवन में उतार ही लें, जिससे हमारा मनुष्य होना सार्थक हो सके। इस ज्ञान द्वारा सत्य का साक्षात्कार हो जाता है। वेद दृष्टा ऋषि अंर्तज्ञान के भण्डार हैं। इन सब दर्शन को स्पष्ट करने के पीछे यह उद्देश्य है कि वही व्यक्ति जीवित है जो अपने जीवन में दृष्टा बन जाता है और जो दृष्टा बन जाता है वह ऋषि बन जाता है। ऋषि व्यक्तित्व होने के लिए अंर्तज्ञान का अंर्तदृष्टि का पूर्ण विकास होना आवश्यक है।
अगर व्यक्ति स्वस्थ, निरोगी हो तो वह दिन भर ज्यादा अच्छा काम कर सकेगा और सफलता प्राप्त कर सकेगा। केवल मनुष्य में वह क्षमता होती है कि वह आध्यात्मिक दृष्टि से अपने नाम को ऊँचा उठाकर ब्रह्मलीन हो सके।
इसलिए ऋषियों ने एक ऐसा दिवस का चयन किया, जो अपने आप में तेजस्विता युक्त है, जो कि ऋषि पंचमी कहलाई। इस दिवस पर सद्गुरूदेव जी ‘सप्त ऋषि ब्रह्म वर्चस्व प्राप्ति सकल पीड़ा नाशक दीक्षा’ साधकों को प्रदान करेंगे। जिससे समस्त जीवन क्रम पुनः ऊर्जा से आपूरित हो जाता है और वह हर प्रकार से श्रेष्ठ बन पाता है। पूरी तरह से किसी व्यक्ति का आमूलचूल परिवर्तन इसी दीक्षा से सम्भव है, यह दीक्षा कोई मामूली दीक्षा नहीं है, ऋषियों के उस अवर्णनीय ब्रह्मत्व से आपूरित हैं। जो व्यक्ति जीवन में ये सभी बिंदु प्राप्त करना चाहते है उन्हें तो यह दीक्षा अवश्य ग्रहण करनी चाहिए।
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