जो बड़े से बड़ा रूपांतरण है, जो गहरे से गहरा अध्यास है, वह हैः हम प्रत्येक चीज के साथ अपने को जोड़ लेते हैं, जिससे हम जुड़े हुए नहीं हैं। जुड़ते ही चीज की जो वस्तु-स्थिति है वह खो जाती है और जो स्वप्न-स्थिति है वह सही मालूम पड़ने लगती है। जैसे जहाँ-जहाँ हम कहते हैं मेरा कहते हैं, मेरा मकान! मकान हम न थे तब भी था; हम न होंगे तब भी होगा। जो हमारे होने से पहले हो सकता है और जो हमारे होने के बाद भी बना रहेगा और जो हमारे मिटने के साथ मिटता नहीं है, वह मेरा कैसे हो सकता है? मैं इसी क्षण मर जाऊं तो मेरा मकान मिटता नहीं है। मेरे मकान को मेरे मिटने का पता भी नहीं चलेगा। तो मुझ से जोड़ ही क्या है मेरे मकान का? संबंध क्या है? कल कोई और रहेगा उस मकान में और वह भी उसे मेरा कहेगा। कल कोई और रहता था, वह भी उसे मेरा कहता था। न मालूम कितने लोगों ने अपने मैं को उस मकान पर चिपकाया है और विदा हो गए हैं! लेकिन वह मैं चिपक नहीं पाता, वह मकान किसी का हो नहीं पाता। मकान हो भी नहीं सकता किसी का। मकान अपना है, मकान खुद का है। इस जगत में प्रत्येक वस्तु स्वयं है। इसे हम ठीक से समझ लें तो अध्यास को तोड़ने में आसानी हो जाएगी। जमीन का एक टुकड़ा है, आप कहते हैं, मेरा खेत, मेरा बगीचा। आदमी जहाँ भी पैर रखता है वहीं अपने मैं की छाप लगा देता है। प्रकृति उसकी छाप को मानती नहीं लेकिन दूसरे आदमियों को मानना पड़ता है, अन्यथा संघर्ष खड़ा होता है और वे दूसरे लोग भी इसीलिए मानते हैं उस छाप को वे भी वैसा छाप लगाना चाहते हैं। तो मकान किसी का हो जाता है, जमीन किसी की हो जाती है और हमारी इतनी आतुरता क्यों होती है कि हम इस मैं की छाप को कहीं लगा दें? आतुरता इसलिए होती है कि जितनी जगह हम यह छाप लगा देते हैं, हस्ताक्षर कर देते हैं, जितना हमारा मेरे का विस्तार बड़ा हो जाता है, उतना ही बड़ा मैं हमारे भीतर हो जाता है। मैं उतना ही बड़ा होगा, जितनी चीजों पर उसका बड़ा मैं कैसे होगा। दूसरा आदमी कहता है, एक हजार एकड़ जमीन मेरी। मेरे के विस्तार के साथ मैं बड़ा होता मालुम पड़ता है। मेरे का विस्तार कम होता है तो मैं छोटा, कम होता है। तो मैं की एक-एक ईंट मेरे से निर्मित होती है। तो जितना ज्यादा मैं कह सकूं मेरा, उतना बड़ा मैं का महल खड़ा हो जाता है।
इसलिए सारे जीवन हम एक ही दौड़ में होते हैं कि कितनी ज्यादा चीजों पर छाप लगा दें अपनी, कह पाएं कि मेरी हैं। इस छाप लगाने-लगाने में चीजों पर छाप लग भी जाती है और हम छाप लगाते-लगाते विदा हो जाते हैं और जिसे हमने कहा था मेरा, उस पर कोई और छाप लगाना शुरू कर देता है। वस्तुएं अपनी हैं, किसी की भी नहीं। उपयोग उनका हो भी सकता है, मालकियत नहीं हो सकती। मालकियत भ्रम है और उपयोग जब हम करते हैं तब अनुग्रह का भाव होना चाहिए, क्योंकि जो हमारा नहीं है उसका हम उपयोग कर रहे हैं। लेकिन जब हम कहते हैं मेरा तो अनुग्रह का भाव भी चला जाता है और मेरे का एक जगत निर्मित हो जाता है। उसमें धन है, पद है, प्रतिष्ठा है, शिक्षा है, सब सम्मिलित है और ये ही सम्मिलित हों तो भी आश्चर्य नहीं, जिन चीजों का मैं से कोई संबंध नहीं होता, वे भी सम्मिलित हो जाती हैं। हम कहते हैंः मेरा धर्म, मेरा ईश्वर, मेरा देवता, मेरा मंदिर; जिनसे कि मैं का कोई भी संबंध नहीं हो सकता और अगर हो, तो फिर इस जगत से छुटकारे का कोई उपाय नहीं। ईश्वर भी इसके भीतर आ जाता हो, तो फिर बाहर जाने के लिए कोई जगह भी नहीं बचती।
मैं बड़ा होता है मेरे से; लेकिन जितना मेरे का फैलाव होता है, उतना दुःख भी बढ़ जाता है। अकेला मैं ही बड़ा होता, तब भी कोई कठिनाई न थी। मैं की बढ़ोतरी के साथ दुःख की भी बढ़ोतरी होती है; क्योंकि मैं है एक घाव है। और जितना बड़ा मैं होता है, उतने ही आप चोट के लिए खुले हो जाते हैं; उतनी बड़ी जगह हो जाती है जिस पर चोट की जा सकती है। जैसे कि बड़ा घाव हो तो उस पर दिन भर चोट लगे, कहीं से भी उठें-बैठें और चोट लगे। घाव है बड़ा, जगह है बड़ी, कुछ भी इशारा चोट बन जाता है। जितना बड़ा मैं हो, उतनी बड़ी चोट लगने लगती है, उतना दुःख होता है। मेरे के विस्तार से मैं बढ़ता है, रस आता है। मैं बढ़ता है, दुःख भी बढ़ता है। इधर लगता है सुख बढ़ रहा है, उधर साथ-साथ दुःख भी बढ़ता जाता है। जितना हम सुख बढ़ाते हैं, उतना दुःख बढ़ता चला जाता है। और इन दोनों के बीच में एक अध्यास, एक भ्रम चल रहा है। जहाँ मेरे का कोई उपाय नहीं कहने का, वहाँ हम व्यर्थ ही, झूठ ही मेरा कहे चले जा रहे हैं। यह हाथ जिसको आप मेरा कहते हैं, शरीर जिसको आप मेरा कहते हैं, यह भी आपका नहीं है। आप नहीं थे तब भी इस हाथ की हड्डी, इस हाथ की चमड़ी, इस हाथ का खून कहीं था; और आप नहीं होंगे तब भी यह होगा। आपके शरीर में जो हड्डी हैं, वे न मालूम कितने शरीरों में हड्डियां रह चुकी हैं। जो आज आपका खून है, कल किसी पशु में बहता था, परसों किसी वृक्ष में बहता था और न मालूम कितनी लंबी यात्रा है उसकी अरबों-खरबों वर्षों की। आप नहीं होंगे तब भी आपके शरीर में एक-एक कण कोई भी नष्ट होने वाला नहीं है। वह सब बना रहेगा। वह किन्हीं और शरीरों में बहेगा। जिंदगी प्रतिपल किसी का दावा स्वीकार नहीं करती, बही चली जाती है और हम दावें ठोंकते चले जाते हैं। यह दावे का जो भ्रम है, यह मनुष्य का गहरे से गहरा अध्यास है। तो जब भी कोई आदमी कहता है मेरा, तब अज्ञान में गिरता है।
हमें खुद के आत्मतत्व को जान लेना अत्यन्त आवश्यक है। अपने को जान लेना ही अज्ञानता का नाश और सफलता का रहस्य है। जो व्यक्ति अपने को जान लेता है, आत्मतत्व पहचान लेता है, उसके लिए यह शरीर एक रथ है, जीवात्मा रथ का स्वामी और बुद्धि सारथी है तथा मन लगाम है। परम्ब्रह्म प्राप्ति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है अहंकार। इसी अहंकार के कारण सारी साधना निष्फल हो जाती है। वास्तव में यह अहंकार एक ऐसी दीवार है जो भाव प्रकट में, परम रहस्य को जानने तथा सत्य को पहचानने में बाधक है। भगवान सामने होते हुए भी हम दर्शन नहीं कर पाते हैं। भगवान पास होते हुए भी खो गए हैं।
आवश्यकता है केवल भावना बदलने की। जो भी कर्म हम करते हैं, ‘मैं’ और ‘मेरे लिए’ न होकर, ईश्वर के लिए हो। ऐसी स्थिति में हमारा प्रयत्न होना चाहिए कि हम जो भी कार्य करें भगवान की प्राप्ति के लिए ही करें और इस बात का सदा ध्यान रखें कि जिस कार्य में किसी प्राणी का अहित है, वह कार्य भगवान की प्राप्ति के लिए नहीं हो सकता।
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