अध्यात्म क्या है? अध्यात्म इस बात का अनुभव पाना है कि हम मात्र शरीर या मन नहीं हैं, बल्कि वह आत्मा हैं, जो इस शरीर में बस रही है। हम अपने आपको सिर्फ एक शरीर समझते हैं, जिसका एक नाम है। इस तरह हम अपने आपको भारत देश का नागरिक समझते हैं या फिर किसी एक या दूसरे धर्म से जुड़ा हुआ मानते हैं। पर अध्यात्म के द्वारा हम यह जान जाते हैं कि इन सभी भिन्न-भिन्न बाहरी नामों और ठप्पों के पीछे, मूलतः हम सभी आत्मा हैं और एक ही परमपिता के अंश हैं।
जब तक मानव को परमात्मा की झलक नहीं मिलती, तब तक उसका जीवन अपूर्ण रहता है। यह संसार अधिकाधिक गंभीर विपत्ति में भटक रहा है। इसकी मुक्ति किसी अन्य उपाय द्वारा नहीं हो सकती। संपूर्ण विश्व की अशांति, अराजकता और विभीषिका को चुनौती देने के लिए जो शक्तियाँ तत्पर हैं, वे हमें आत्मस्मृति द्वारा ही प्राप्त हो सकती हैं।
आत्मिक एकता की स्वीकृति संपूर्ण अध्यात्मिक अनुभूतियों का सार है। जब व्यक्ति अपनी निष्ठा में चैतन्य होकर कर्तव्य के मार्ग पर बढ़ता है तब समस्त दिशाएं उसे लक्ष्य की ओर प्रेरित करने लगती हैं। यदि आध्यात्मिक आकांक्षाएं पूर्ति के लिए तत्पर हो जाएं तो व्यक्ति में पुनर्जागरण की प्रक्रिया घटित होती है। यह प्रक्रिया ही व्यक्ति को धार्मिक बनाती है। सच्चे अर्थों में आध्यात्मिक व्यक्ति का जीवन अत्यधिक सरल और सहज होता है।
अध्यात्म के उन्नत शिखर को उन धार्मिक विश्वासों, धार्मिक मतों, धार्मिक विधियों और एकपक्षीय संस्कारों द्वारा स्पर्श नहीं किया जा सकता जिनमें व्यक्ति को परतंत्रता की गंध आती है। अध्यात्म की अनंत ऊँचाइयां वही चढ़ पाता है जिसके पास आत्मवेत्ताओं की निष्ठा, तत्वज्ञान में श्रद्धा और सद्गुरू के श्रीचरणों में शरणागति का अहोभाव होता है। अध्यात्म एक ही सत्य की विविध ऐतिहासिक निष्ठाओं का साक्षात्कार कराता है और सभी मानव को प्रलोभनों से मुक्त करके बल प्रदान करता है। अध्यात्म के आधार का संबंध व्यक्ति के सारभूत मूल्यों, गौरव के उद्घाटन तथा वास्तविकता के उच्चतर संसार से है। मानव अपने मन की पाशविक प्रवृत्ति से ऊपर उठकर उच्चतर भाव में तभी प्रवेश कर पाता है जब वह नैतिक बल, संयम, साहस और आत्मनिष्ठा से ओत-प्रोत होता है। अध्यात्म में एक अनुशासन है जो व्यक्ति की अंतरात्मा को स्पर्श करता है और उसे समस्त दुर्भावनाओं से संघर्ष करने में सहायता देता है। मानव सदैव श्रेष्ठ जीवन जीना चाहता है। वह जीवन की अनुकूलताओं का इच्छुक होता है। अध्यात्म में जीवन की हर सुंदर व्यवस्था सन्निहित है जिसके द्वारा मानव को संपूर्ण बनाया जा सकता है। अध्यात्म-पथ पर चलने वाले पथिक आनंदकारी विस्मय की अनुभूति करते हैं।
अध्यात्म के द्वारा हम सहानुभूति, क्षमा और शांति की भावना जाग्रत करते हैं। जब हमारा दृष्टिकोण आध्यात्मिक बन जाता है, तब हम किसी को भी पक्षपात या भेदभाव की नजर से नहीं देखते। हम उन दीवारों को हटाने लग जाते हैं जो एक इंसान को दूसरे से अलग करती है। हम यह अनुभव पाने लगते हैं कि आत्मा के स्तर पर हम सभी जुड़े हुए हैं। जब हम अपनी एकता और अपने आपसी संबंध को पहचान लेते हैं, तो फिर हम एक-दूसरे की मदद भी करने लगते हैं। तब हम एक-दूसरे की सेवा करना चाहते हैं। पड़ोस में भूख से रोते बच्चे की आवाज से हमें उतनी ही तकलीफ होती है, जितनी कि अपने बच्चों के रोने से। हम सड़क पर बेसहारा घूमते बूढ़े इंसान में अपने बेसहारा दादा को देखते हैं और उसकी मदद को प्रेरित होते हैं। हमारा दृष्टिकोण विशाल हो जाता है।
हम सभी अपना आध्यात्मिक पक्ष विकसित कर सकते हैं। सदियों से इसके लिए एक समाधान उपलब्ध है। ध्यान-साधना की विधि सीखकर, हम प्रतिदिन कुछ समय अपने अंतर में प्रभु के साथ गुजार सकते हैं। जैसे-जैसे प्रभु अपने प्रेम और आनंद से हमें सराबोर करेगा, वैसे-वैसे हमारी वे पुरानी आदतें धुलती जाएंगी जिनकी वजह से हम नफरत और पक्षपात से भरे हुए रहते हैं। प्रभु हममें प्रेम, क्षमा और दया के गुण भर देता है।
ऐसा उच्च दृष्टिकोण हम कैसे पैदा कर सकते हैं? आध्यात्मिक बनने के लिए हमें क्या करना होगा? हमारा आरंभिक कदम क्या होगा?
हमारा आरंभिक कदम होता है ‘मेडिटेशन’ अथवा ध्यान साधना। अध्यात्म की राह पर चलने की शुरुआत सामान्य जन इसी तरह से करते हैं। ध्यान की मुद्रा में कुछ देर शांत होकर बैठने से, हम अपनी आत्मा के संपर्क में आ सकते हैं। हम पाएंगे कि हम इस बाहरी शरीर और मन के अलावा भी कुछ और हैं। हम अपने आध्यात्मिक सारतत्व को खोज लेंगे जो कि प्रेम, शांति और आनंद से भरा है। जब हम अपनी आत्मा को पहचान लेंगे तो हम प्रभु के साथ अपनी एकता का अनुभव करेंगे।
लेकिन इसे हम अपनी जिंदगी में कैसे ढाल सकते हैं? हम कैसे स्वयं को क्रोध और नफरत से मुक्त करके उसकी जगह प्रेम और क्षमा भाव पैदा कर सकते हैं?
आध्यात्मिक जागृति के द्वारा हम ऐसा कर सकते हैं। यह तरीका ही ऐसा है जो हमारी चेतना के द्वार खोल देता है। हम नफरत के हर अंश को धो डालें और उसे प्रेम एवं शांति से प्रतिस्थापित कर दें। अध्यात्म मार्ग पर चलने वाले अक्सर ईश्वर या परमात्मा या भक्ति की बातें करते हैं। इसका ईश्वर से क्या संबंध है?
हममें से बहुत सारे लोग प्रभु को पाने या देखने की तीव्र अभिलाषा रखते हैं। कइयों के लिए, प्रभु को पाना ही एकमात्र सपना होता है। लेकिन ये लोग भी उसी एक तकनीक का इस्तेमाल करते हैं जिसे हम अंतर्मुख होना, एकाग्र होना, ध्यान टिकाना कहते हैं। जब वे शांत स्थिर होकर बैठते हैं और अपने ध्यान को अंतर में टिकाते हैं, तो उन्हें आत्मा का साक्षात्कार होता है, जो वास्तव में परमात्मा का ही अंश है। जब हम ऐसा करते हैं तो हम भी वही अवस्था पाते हैं, जो हमारे महान संत-महात्माओं ने पाई थी। इसी दिव्य अनुभूति को लोग प्रभुदर्शन मानते हैं। सदियों से प्रभु मिलन की जो बातें सुनने को मिलती हैं, वह इसी अवस्था में अभेद हो जाने की स्थिति है। अध्यात्म की शुरुआत सत्य की खोज से होती है। इसमें संसार की किसी विषय वस्तु की प्राप्ति की कोई कामना नहीं होती। इसकी उत्पत्ति स्वयं को, जगत को, ईश्वर को और इनके परस्पर संबंधों को जानने से होती है।
परमात्मा की शक्ति सर्वत्र विद्यमान है। वही अंदर है और वही बाहर भी है। वही कण-कण में उपस्थित है। साधक को बारंबार अपने भीतर देखने पर बल दिया जाता है। इसका कारण स्पष्ट है। बाहर नाम-रूप का साम्राज्य है। इनमें से रूप का इतना जबरदस्त आकर्षण है कि उसका भेदन कर पाना एक साधारण साधक के लिए असंभव हो जाता है। ‘अहं ब्रह्मास्मि’ की अनुभूति के साथ ही ‘सर्व खल्विदं ब्रह्म’ का ज्ञान होता है। ‘मैं ब्रह्म हूँ’ के अनुभव के बिना ‘यह समस्त सृष्टि ब्रह्म रूप है’ कहते समय अनिश्चय की स्थिति बनी रहती है। आत्मा की अनुभूति के बाद बाहर-भीतर में कोई अंतर नहीं पड़ता।
सस्नेह आपकी माँ
शोभा श्रीमाली
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