सूर्य ग्रहण काल प्रारम्भ: 02 अक्टूबर, 09:13 PM से 03 अक्टूबर प्रातः 03:17 AM तक
सूर्य ग्रहण पर्व को यदि प्राणश्चेतना के पर्व की संज्ञा दी जाए, तो सर्वाधिक उचित होगा और यह भी सत्य है, कि जब तक जीवन में प्राणश्चेतना का प्रवाह नहीं होता, तब तक न तो व्यक्ति स्वस्थ हो सकता है, न सुखी और न ही आध्यात्मिक। इन अर्थो में सूर्य ग्रहण की साधना चतुर्विध प्रभाव प्रदान करने में समर्थ है।
साधना पद्धतियां तो अनेक देशों में नाना प्रकार की है किन्तु इन सभी साधना-उपासना की पद्धतियों में भारत की साधना पद्धति का सदैव से एक विशिष्ट और पृथक स्थान रहा है जिसका कारण अन्य बातों के साथ-साथ मुख्य रूप से यह है कि, भारतीय साधना पद्धति में केवल विश्व से अपितु समस्त ब्रह्माण्ड से तादात्म्य स्थापित करने की क्रिया की जाती है। उपरोक्त शांति पाठ की पंक्तियां इसी बात की साक्षी है, जहां न केवल पृथ्वी, अंतरिक्ष अपितु वनस्पति और औषधियों तक की उल्लेखना की गई है।
बाह्य दृष्टि से यह उस उन्नत मनश्चेतना की परिचालक है, जो मनश्चेतना समस्त ब्रह्माण्ड से तादात्म्य के, प्रयासों में उद्भूत होती है। चेतन मन-मस्तिष्क किसी एक प्रतीक में अपने को जीवन पर्यन्त आबद्ध कर देने के स्थान पर, नेत्र बंद कर, चर्म चक्षुओं के स्थान पर आत्मचक्षु उन्मीलित कर, समस्त ब्रह्माण्ड का अवलोकन कर, अपनी चेतना को इस धरा पर्यन्त ही सीमित रखने से निषेधित कर देता है और जब उसके लिये समस्त ब्रह्माण्ड अनेकार्थ रूप में व्याख्यित हो जाता है। इसका सुख तो वही समझ सकते है जिन्होंने कभी इस चेष्टा में संलग्न होने की युक्ति की हो।
समस्त ब्रह्माण्ड से अपनी चेतना का तादात्म्य करने को आतुर ऋषियों के लिये फिर यह प्रायः असम्भव ही था, कि वे इस ब्रह्माण्ड में सर्वाधिक तेजस्वी प्रतीत होते ग्रह-सूर्य ग्रह की उपेक्षा कर दें। ब्रह्माण्ड में केवल एक ही नहीं वरन कई सूर्य है किन्तु जो इस धरा पर नित्य नवजीवन का संचार करता है वह सूर्य ग्रह अपने स्वरूप में अप्रतिम ही है, और इस सूर्य की अभ्यर्थना वास्तव में तेज की ही अभ्यर्थना है। सूर्य को इसी कारणवश भारतीय चिंतन में एक पिंड न मानकर साक्षात प्राण ही माना गया है। जिस प्रकार प्राण अन्तःस्थिति विषय वस्तु है ठीक उसी प्रकार बाह्य सूर्य की धारणा भी इसी देह की आंतरिक संरचना में की गई। यही ‘यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे’ का अर्थ है। किसी बाह्य साधन की अपेक्षा इस देह को ही एक साधन बनाना अधिक उपयुक्त है, यही ऋषियों का विचार था और यह विचार सर्वथा तर्क संगत भी था, क्योंकि इस प्रकार संभावित होने पर ही व्यक्ति को पराश्रित होने की बाध्यता नहीं रह जाती। इसका प्रतिपक्ष यद्यपि यह भी है और जिसके कारण भारतीय ज्ञान की उपेक्षा की जाती है, कि इस प्रकार से वे उपाय संभव नहीं हो सके, जो विज्ञान ने संभव कर दिखाये है। आज आकाशगमन, जलगमन जैसी विद्याओं को कपोल कल्पित मान कर उसका उपहास बनाया जाता है जिसमें अज्ञानियों की कपोल कथाओं का भी बहुत बड़ा हाथ है, किन्तु कदाचित जिस युग में इन विद्याओं ( जो अष्टावश सिद्धियों के नाम से विख्यात हैं) का अस्तित्व रहा, उस युग में ऋषियों ने यह कल्पना भी नहीं की होगी, कि उनकी संताने आगे चल कर ऐसे आवरण को धारण कर लेंगी जिससे इन विधाओं का प्रायः लोप सा हो जायेगा।
विज्ञान प्रकृति से तादात्म्य की क्रिया से अनभिज्ञ है अथवा उसकी दृष्टि में ऐसा चिन्तन उपेक्षणीय है। भारतीय विज्ञान ब्रह्माण्ड से तादात्म्य कर अन्तः क्रियाओं को समझ तदनुरूप गतिशील होता है, इसी कारण वश उसकी चुनौती में भी हेडी और दम्भ नहीं है। प्रकृति से जहां कहीं विरोध है भी, वहां भी प्रकृति के ही उपादनों को एक उपकरण बना कर प्रयोग करने की भावना है। स्पष्ट है कि ऐसे प्रयासों में बाह्य प्रदर्शन संभव नहीं हो सकता, क्योंकि यह तो अन्तश्चेतना के प्रवाह से संभव होता है। अन्तश्चेतना प्रकट होते ही स्वतः निष्क्रिय हो जाती है और यही योगियों के मौन अथवा चमत्कार के प्रति अरूचि का कारण भी होता है। वस्तुतः योगी प्रकृति में हस्तक्षेप करता ही तब है जब अत्यंत आवश्यक हो जाता है। अन्यथा उसे प्रकृति के व्यापार के प्रति एक साक्षीभाव रखने में ही तृप्ति का अनुभव होता है।
प्रकृति को ही अपना एक उपकरण बनाने की प्रक्रिया में ऐसे विज्ञानों की पद्धतियों का सृजन सम्भव हुआ जो प्रकृति के उपादानों की रश्मियों पर आधारित है तथा इन्हीं विज्ञानों में से सर्वश्रेष्ठ विज्ञान ‘सूर्य विज्ञान’ माना गया है। विज्ञान तो कई है, केवल सूर्य विज्ञान ही नहीं अपितु चंद्र विज्ञान, नक्षत्र विज्ञान आदि इत्यादि विज्ञान है किन्तु जहां तीव्रता एवं सार्थकता से कुछ घटित करना होता है वहां सूर्य विज्ञान का स्थान सर्वोच्च हो जाता है। प्रत्येक विज्ञान वस्तुतः रश्मि विज्ञान ही है और ग्रहों की प्रकृति के अनुरूप ही सृजन अथवा विघटन की क्रियाए संभव हो जाती है। यहां इस बात का स्मरण रखना आवश्यक है, कि ऐसे विज्ञान, खगोल की श्रेणी में नहीं आते है। इन विज्ञानों की क्रिया पद्धति जितनी अधिक बाह्य है उसकी कई गुना आंतरिक है। योगी एक प्रकार से अपनी ही देह में स्थित सूर्य का तादात्म्य बाह्य रूप से दृष्टिगोचर होते सूर्य से कर, उन क्रियाओं को सम्पन्न करने में सक्षम हो पाता है, जिनके प्रति विज्ञान भी मूक और स्तम्भित हो जाता है।
न केवल सूर्य विज्ञान वरन अध्यात्म की प्रत्येक चर्चा (अथवा घटना) एक गांभीर्य की अपेक्षा साधक से रखती है। किन्तु जैसा कि पहले कहा, गुरू अन्ततोगत्वा गुरू ही होते है, और इसी क्रम में पूज्यपाद गुरूदेव ने इस वर्ष की सूर्यग्रहण पर्व पर अपने शिष्यों को सूर्य विज्ञान पर आधारित जिस तीव्रतम तंत्र साधना को देने का निश्चय किया है वह मूलतः सूर्य विज्ञान पर ही आधारित है।
इसके पीछे उनका मंतव्य यही है कि इस साधना पद्धति के माध्यम से साधक जहां एक ओर अपने दुर्भाग्य का नाश करने में समर्थ हो, वहीं सूर्य साधना की गरिमा को भी आत्मसात् कर सके और कदाचित ऐसे ही गंभीर साधकों में से एक या दो साधक आगे बढ़ कर गुरू चरणों में अपने जीवन को निवेदित कर इस साधना को संजो लेने का प्रयास करें।
मूलतः यह दुर्भाग्य नाशक प्रयोग है। दुर्भाग्य का नाश सूर्य के अतिरिक्त किसी अन्य देवी-देवता के वश की बात ही नहीं है। यह तो नववर्ष पर पूज्यपाद गुरूदेव द्वारा अपने शिष्यों को दी गई एक दुर्लभ भेंट है क्योंकि इस प्रखर तंत्र साधना का मंत्र सृजित करने में स्वयं पूज्यपाद गुरूदेव को अपने प्राणों का किस प्रकार मंथन करना पड़ा होगा, इसका तो हम केवल एक स्थूल अनुमान ही लगा सकते है। गुरू के प्राणों से मंथित होकर ही मंत्र संजीव होते हैं।
साधक का जीवन विभिन्न प्रकार के कर्म पाशों से आबद्ध होता है और इसी के फलस्वरूप रोग, शोक, दारिद्रय, अभाव, तनाव, पीड़ा, पारिवारिक वैमनस्य जैसी कई विषमताएं उसके मन पर इस प्रकार पर्दा बन कर पड़ जाती है, कि उसके जीवन में न तो आनंद व तृप्ति का और न ही आध्यात्मिक चेतना की रश्मियों का प्रवेश संभव हो पाता है। इसी कारणवश श्रेष्ठ साधक तो वही हो सकता है जो अन्य सभी साधनाएं छोड़ कर जीवन में सर्वप्रथम दुर्भाग्य नाश की साधना को सम्पन्न कर लेता है।
इस साधना को सम्पन्न करने के इच्छुक साधक के लिये आवश्यक है कि वह दिनांक 02 अक्टूबर सूर्यग्रहण पर्व की रात्रि को स्नानादि 09:13 PM तक सम्पूर्ण कर लें और फिर लाल वस्त्र पहन, ऊनी आसन पर पूर्वाभिमुख होकर बैठे तथा अपने समक्ष लकड़ी के बाजोट पर लाल वस्त्र बिछा कर तांबे के पात्र में सूर्य यंत्र स्थापित करें।
इस साधना हेतु जिस सूर्य यंत्र का प्रयोग हो वह दुर्भाग्यनाशक मंत्रो से चैतन्य हो तथा उसका अन्त सम्बन्ध, इस साधना में साधक द्वारा जपे जाने वाले मंत्र से ‘चैतन्यीकरण क्रिया’ द्वारा सम्पन्न कर दिया गया हो। जिसे साधक अपने विवेकानुसार प्राप्त कर सकते है। यंत्र को स्थापित करने के उपरांत साधक इस यंत्र को स्नान करा कर, उसे स्वच्छ वस्त्र से पोंछ, कुंकुम, अक्षत, पुष्प, धूप व दीप समर्पित करें तथा मन ही मन भगवान सूर्य से प्रार्थना करें, कि वे इस दिवस विशेष पर जब सूर्य भगवान साधक के मन व शरीर में, साधना के माध्यम से उतर जाने को तत्पर रहते है। उसे अपने वरदायक प्रभाव से सिक्त कर, अपनी ऊर्जा से पाप-ताप-संताप से मुक्त करने की कृपा करें। इसके पश्चात् दुर्भाग्य नाशक माला से साधक निम्न मंत्र की 11 माला मंत्र जप सम्पन्न करें।
मंत्र जप के उपरांत अपने स्थान पर बैठे-बैठे ही किसी एक पात्र में जल, अक्षत, कुंकुम व पुष्प की पंखुडियों को लेकर यंत्र के ऊपर इस प्रकार प्रवाहित करें मानों भगवान सूर्य को अर्घ्य दे रहें हो। प्रातः काल यंत्र व माला को किसी पवित्र स्थान पर विसर्जित कर दें।
जिस प्रकार सूर्य की रश्मियों को लेंस के माध्यम से एकत्र करने पर अग्नि उत्पन्न हो जाती है, ठीक उसी प्रकार उपरोक्त मंत्र के संगुफन से जो अग्नि उत्पन्न होती है वह साधक के जीवन की विषमताओं को भस्म कर उसे, दुर्भाग्य मुक्त करने में सहायक सिद्ध होती है।
यह दुर्भाग्य नाशक साधना, यंत्र का यह तीव्रतम प्रयोग ही वस्तुतः जीवन में सौभाग्य के निर्माण का प्रथम चरण है।
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