इसी तथ्य को शास्त्रों और संतों द्वारा विविध रूपों से कहा गया है-
संत कबीर इस प्रकार कहते हैं-
शरीरमद्भागवत् के एकादश स्कंध में नौ योगेश्वर संवाद के अंतर्गत ‘तस्माद् गुरूं प्रपद्येत् जिज्ञासुः श्रेयमुत्तमम्।।’ कहकर उत्तम कल्याण (श्रेय) के जिज्ञासु के लिये ‘शब्दवाणी’ (शास्त्रज्ञानी), तत्वज्ञानी (ब्रह्मज्ञानी) और ब्रह्मनिष्ठ (परमशांत) श्री गुरू की शरण में जाने को कहा गया है। वहीं श्रीकृष्ण ने उद्धव जी से ‘आचार्य’ (गुरू) मुझे ही समझो – ‘आचार्य मां विजायीनात्’ तथा ‘‘श्री गुरू महाराज का सामान्य पुरुष मानकर कभी अपमान न करो।’’ समझाते हुए ‘गुरू’ को अपना ही रूप बताया है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने तो ‘राम-चरितमानस’ में प्रारंभ से ही ‘गुरू’ की वंदना करते हुए यत्र-तत्र ‘गुरू महिमा’ का ही उन्मेश किया है। मंगलाचरण प्रकरण में जहाँ शुभ गुणों से युक्त श्री गणेश जी की वंदना की है, वहीं ‘वंदे बोधमयं नित्यं गुरूम्’ कह कर श्री गुरू महाराज को ‘कृपासिंधु पर रूप हरी’ कहा है। श्री गुरूदेव का उपदेश महामोह रूपी अंधकार को नष्ट करने वाला है। श्री गुरू-चरण कमल की रज भी वंदनीय है, ‘वह सुरुचि सुबास सरल’ के साथ ही समस्त सांसारिक दुःखों की विनाशक भी है। गुरूदेव का ध्यान अज्ञान रूपी अंधकार को विनष्ट करते हुए हृदय को ‘दिव्य दृष्टि’ से पूरित कर देता है और यह सबकुछ ‘सुमिरत’ स्मरण करने मात्र से ही प्राप्त करने में समर्थ कर देता है। गोस्वामी तुलसीदास ने तो यहाँ तक विश्वासपूर्वक कहा है कि ‘सेवक सदन स्वामि आगमन्। मंगल अमंगल दमन्।।’ ‘गुरू-कृपा’ ही वह ‘पारसमणि’ है जिसके स्पर्श मात्र से ही मूल्यहीन वस्तु मूल्यवान हो जाती है और महत्त्वहीन व्यक्ति भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
गुरू शब्द का उच्चारण करते ही प्राचीन काल के कुछ महानुभावों की स्मृति ताजा हो जाती है। उनके कर्तव्यों, महानता एवं सामर्थ्य के आगे मन नतमस्तक हो जाता है। इसके अलावा हमें उन गुरू-शिष्यों के बीच एक विलक्षण तथा भावात्मक संबंधों का भी बोध होता है।
कुंवारी कुंतीमाता एवं सूर्यदेव द्वारा उत्पन्न और अधीरथ मल्लाह तथा उसकी पत्नी राधा द्वारा पालित-पोषित कर्ण ने परशुराम जी से धनुर्विद्या सीखने के क्रम में स्वयं को ब्राह्मण-पुत्र बताया था। एक बार परशुराम जी कर्ण की जंघाओं पर सिर रखकर सो रहे थे कि तभी एक बिच्छू ने कर्ण को काट-काट कर लहूलुहान कर दिया। किंतु कर्ण बिलकुल नहीं हिला-डुला। वह यथावत रहा। कारण-गुरू जी की निद्रा में व्यवधान पड़ जाता।
जब परशुराम जी की तंद्रा टूटी और कर्ण को लहूलुहान अवस्था में पाया तो सहसा वे विश्वास नहीं कर पाए। इतने जीवट का व्यक्तित्व तो कोई क्षत्रिय ही हो सकता था, ब्राह्मण-पुत्र नहीं। तब तक कर्ण धनुर्विद्या सीख चुका था। कर्ण के पश्चाताप तथा अपराध बोध स्वरूप परशुराम जी ने कर्ण को शाप दे दिया कि अवसर आने पर वह इस विद्या का प्रयोग भूल जाएगा।
यहां प्रश्न क्रिया-प्रतिक्रिया का नहीं, गुरू की पराकाष्ठा तथा शिष्य की निष्ठा का है। द्रोणाचार्य राजा द्रुपद (अपने बचपन के मित्र) द्वारा उपेक्षित होने पर गुरू दक्षिणा में उनका सिर चाहे थे। इस कार्य के लिए उन्होंने अर्जुन को नियुक्त किया, जब दुर्योधन द्रुपद से हारकर वापस लौट आया था।
भीम-पुत्र घटोत्कच का मेधावी-समर्थ युवा पुत्र बर्बरीक अर्थात श्याम (राजस्थान के खाटू स्थान में देदीप्यमान) ने श्रीकृष्ण के एक ही बार कहने पर गुरू दक्षिणा के रूप में अपना सिर कटार से काटकर उनको दान कर दिया था। क्योंकि वह समाप्त होने जा रहे महाभारत युद्ध के लिए खतरा था। अपनी माँ अहिलवति को दिये गए वचन के अनुसार उसे महाभारत युद्ध में हारती हुई सेना की ओर से सम्मिलित होना था।
बर्बरीक जिधर चला जाता, जीत उधर की होती। यदि कौरव विजयी होते तो अधर्म की जीत होती। उस समय बर्बरीक को धर्म-अधर्म से क्या मतलब था? वह एक शूरवीर था और शूरवीरों को केवल लड़ने से मतलब होता है। परिणाम चाहे जिसके पक्ष में हो। उसे यह ज्ञात था कि उसके पिता घटोत्कच पांडवों की ओर से युद्ध करते हुए कर्ण के ब्रह्मास्त्र से मरे थे।
देवताओं के गुरू बृहस्पति के सहोदर भाई संवर्त द्वारा मंत्र-बल से राजा मरुत का यज्ञ संपन्न कराया जाना सभी को ज्ञात है। महर्षि गौतम के शिष्य उत्तंक द्वारा राक्षसों की रानी से गुरू माता कुंडल प्राप्त करने के उपरांत उन्हें भेंट में देना भी सभी को ज्ञात है। इसी प्रकार दैत्यों के गुरू शुक्राचार्य द्वारा बृहस्पति-पुत्र कच को मृतसंजीवनी की शिक्षा देना सभी को ज्ञात है।
उपरोक्त दृष्टांतों का तात्पर्य यह है कि गुरू क्या नहीं कर सकते? गुरू समर्थ होता है। वह ईश्वर का पार्षद होते है। गुरू द्वारा प्रदत्त मंत्र की शक्ति अमोघ होती है। अज्ञान के अंधकार और वासना के मैल को गुरू का कृपा रूपी दीप तथा करुणा रूपी साबुन ही दूर करके प्रकाशमय धवलता प्रदान कर सकता है। गुरू अपने शिष्य में शब्द की बाती को उसके अंतस के दीप में रखकर भक्ति के तरल तत्व से भरकर अपनी कृपा की अग्नि से प्रज्वलित कर देता है तो दैहिक, दैविक और भौतिक अमावस उसके जीवन से सदा के लिए तिरोहित हो जाती है। मन में उज्ज्वल प्रकाश फैल जाता है, शिष्य शब्द के भवसागर में डूबकर उसकी गहराई का साक्षी हो जाता है।
‘गुरू-कृपा’ ही वह ‘पारसमणि’ है जिसके स्पर्श मात्र से ही मूल्यहीन वस्तु मूल्यवान हो जाती है और महत्त्वहीन व्यक्ति भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है।’
सस्नेह आपकी माँ
शोभा श्रीमाली
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