जिसके पास लक्ष्मी की कृपा है, सनर कुलीन है, समाज उसको समझदार समझता है, प्रतिष्ठित समझता है, ऊँचे खानदान का समझता है, सपंडित है उसको पंडित कहते है, विद्वान कहते है, सगुणज लोग उससे सलाह लेते है, उसके पास बैठते है, उससे मित्रता करने का प्रयत्न करते है। जिसके पास लक्ष्मी की कृपा होती है। वह अपने आप अच्छा वक्ता बन जाता है।
लोग उसका सम्मान करते है। समाज में पूजा करते है, उसके पास बैठने और उसकी मित्रता करने के लिये प्रयत्नशील होते है। कवि कह रहा है कि-
यह सब गुण मनुष्य के नहीं है, यह भगवती लक्ष्मी की कृपा के गुण है। जो उस मनुष्य को प्राप्त प्रश्न उठता है कि क्या प्रत्येक मनुष्य के लिये लक्ष्मी की साधना आवश्यक है? यदि हमारे जीवन में अन्न नितांत आवश्यक है, जल की जरूरत है, प्राण वायु लेने की नितांत अनिवार्यता है तो लक्ष्मी की साधना भी अत्यन्त आवश्यक है। जो इस सत्य को नहीं समझ सकते, वह जीवन में कुछ भी नहीं समझ सकते। जो व्यक्ति जितना जल्दी इस तथ्य को समझ लेता है, वह इस बात को समझ लेता है कि जीवन में पूर्णता के लिये लक्ष्मी की आराधना, लक्ष्मी का सहयोग आवश्यक है। वह जीवन में पूर्णता की ओर वेग के साथ अग्रसर हो सकता है। यह जरूरी नहीं कि कोई योगी, कोई सन्यासी या कोई साधु या साधक ही लक्ष्मी की साधना करें। लक्ष्मी की साधना तो कोई भी कर सकता है। चाहे पुरूष हो, चाहे स्त्री हो, चाहे बालक हो, चाहे वृद्ध हो, चाहे अमीर हो, चाहे गरीब हो। लक्ष्मी की साधना से ही जीवन में पूर्णता और अनुकूलता आ सकती है। जीवन सुखमय बन सकता है, जीवन में श्रेष्ठता, जीवन में पूर्णता, जीवन में सौभाग्य, जीवन में सुख और सम्पन्नता आ सकती है और किसी भी देवता की साधना से यह सम्भव नहीं है। चाहे हम रूद्र की साधना करे, चाहे ब्रह्मा की साधना करे, चाहे कुबेर की साधना करें, चाहे इन्द्र की साधना करें यह सब गौण है। वैभव और लक्ष्मी की अधिष्ठात्री देवी तो भगवती लक्ष्मी ही है और मात्र लक्ष्मी की साधना के माध्यम से व्यक्ति अपने अभावों को दूर कर सकता है। पूर्वजों की गरीबी और निर्धनता को हजारों मील दूर धकेल सकता है और रोग रहित होकर के जीवन को आनन्द दायक बना सकता है, सम्पन्नता और वैभव का प्रदर्शन कर सकता है ओर लक्ष्मी की कृपा होने पर मन्दिर बना सकता है, धर्मशालाएं बना सकता है, तालाबों का निर्माण करा सकता है और समाज सेवा के माध्यम से हजारो-हजारों लाखों लोगों का कल्याण कर सकता है। इस दृष्टि से तो भगवती लक्ष्मी की साधना से जहां व्यक्ति स्वयं अपने जीवन को श्रेष्ठ कर सकता है, पूर्णता प्रदान कर सकता है। वहीं समाज के बहुत बड़े वर्ग को भी सुख और सौभाग्य, आनन्द और मधुरता प्रदान कर सकता है। एक मात्र भगवती महालक्ष्मी की साधना ही जो अत्यन्त सरल है जिसमें मंत्रों का आड़म्बर नहीं है, जिसमें ज्यादा कर्म काण्ड नहीं है, क्रिया-कलाप नहीं है, जिसमें ज्यादा उपकरणों की आवश्यकता नहीं है। अत्यन्त सरल और सहज साधना है। कहीं भी बैठ कर इस प्रकार की साधना को सम्पन्न किया जा सकता है। आवश्यकता है इस साधना में प्रवृत होने की और आवश्यकता है दृढ़ता के साथ इस साधना को पूर्णता प्रदान करने की और यह कार्य गुरू ही कर सकते है। क्योंकि लक्ष्मी के तो हजारों रूप है, हजारों प्रकार की लक्ष्मी की साधना है। वैष्णव मत से अलग साधना है, रूद्र मत से अलग प्रकार है, दामनी पद्धति से लक्ष्मी की साधना अलग ढंग से बताई गई है, शाक्त सम्प्रदाय ने लक्ष्मी साधना का एक अलग ही रूप स्पष्ट किया है, फिर औघड़ सम्प्रदाय ने, नाथ सम्प्रदाय ने, श्मशान ने, प्रत्येक पंथ सम्प्रदाय ने लक्ष्मी के कई प्रकार, कई स्वरूप और लक्ष्मी से सम्बन्धित कई साधनाएं स्पष्ट की है। इसलिये यह समझ में नहीं आता कि किस प्रकार से साधना की जाएं, कौनसी साधना की जाएं? यदपि सभी साधनाएं भगवती लक्ष्मी से ही सम्बन्धित है, यह सभी साधनाएं लक्ष्मी प्रदान करने वाली साधनाएं है। इन सभी साधनाओं से लक्ष्मी का वरद् हस्त वरदान प्राप्त होता है और प्रत्येक व्यक्ति एक दूसरे से भिन्न है, उसकी प्रकृति, उसका आकार, उसका चिन्तन , उसकी विचार पद्धति, उसके जीवन निर्माण के तन्तु सब कुछ अलग-अलग है। अलग-अलग है तो फिर लक्ष्मी का स्वरूप भी अलग-अलग है। उस अमुख व्यक्ति के लिये किस प्रकार की साधना उपयुक्त है, कौनसी साधना उपयुक्त है, किस तरह से लक्ष्मी की साधना सम्पन्न की जाएं यह सब विचारणीय है और इसका ज्ञान केवल गुरू ही दे सकता है। जो इसका पथ प्रदर्शक है, जो उसको रास्ता बताने वाला, जो उसके जीवन का निर्माण करने वाला है, जो उसकी बाधाओं और परेशानियों के बीच स्तम्भ की तरह खड़ा है। क्योंकि गुरू को इन सारी पद्धतियों का ज्ञान होता है, यदि वह सही अर्थ में गुरू है। यदि पाखण्डी है, ढ़ोंगी है तो वह शिष्य को कोई ज्ञान नहीं दे सकता क्योंकि जब उसको स्वयं ही ज्ञान नहीं है तो वह शिष्य को क्या ज्ञान देगा। जो स्वयं निर्धन है वह शिष्य को क्या सम्पन्न कर सकता, जो स्वयं अज्ञानी है वह शिष्य को क्या ज्ञान कैसे दे सकता है? जिसने वैभव, सम्पदा का आस्वादन नहीं किया, वह शिष्य को इस रास्ते पर कैसे गतिशील कर सकता है?
इसके लिये जरूरत है जीवित, जाग्रत, चैतन्य गुरू की जीवित-जाग्रत गुरू की इसलिये कि इन सारे तथ्यों का, इन सारी पद्धतियों का ज्ञान होता है, उसे ज्ञान होता है कि कौनसी साधना की जाए, किस प्रकार की साधना इस विषय को दी जाए और दे ही नहीं रहा उसके साथ बैठता है, उसको समझाता है। उसकी कार्य पद्धति, मंत्र जप का प्रकार, उसके उपकरण, उससे सम्बन्धित यंत्र और अन्य जो भी आवश्यक उपकरण एवं सामग्री होती है, आवश्यक प्रकार होता है। उसका चिन्तन, मार्गदर्शन गुरू प्रदान करता है और उस रास्ते पर चल कर वह शिष्य भगवती महालक्ष्मी की कृपा प्राप्त कर लेता है, जीवन में सभी दृष्टियों से पूर्णता प्राप्त कर लेता है, जीवन के अभावों को दूर कर लेता है, समस्याओं को मिटा लेता है और वह सब कुछ प्राप्त कर लेता है जो जीवन में आवश्यक है, अनिर्वाय है, आनन्ददायक है, मधुर है, पूर्णताप्रदायक है।
इसलिये व्यक्ति लक्ष्मी से सम्बन्धित साधनाएं ढूढ़ने से पहले, लक्ष्मी की कृपा प्राप्त करने से पहले गुरू को ढूंढे। ऐसा गुरू जो स्वयं समर्थ हो, ऐसा गुरू जो स्वयं योग्य हो, जिसे ज्ञान हो, जिसमें चेतना हो, जो शिष्य का कल्याण करने में समर्थ हो, जो शिष्य को मार्गदर्शन दे सकें, जो शिष्य को रास्ता दिखा सकें, जो उसकी अंगुली पकड़ कर साधना का आनन्द और साधना का स्वाद प्रदान कर सकें और फिर समय मिलने पर गुरू से प्रश्न करें कि भगवती लक्ष्मी से सम्बन्धित कौनसी साधना प्राप्त की जाए, सम्पन्न की जाए, जिससे की जीवन की गरीबी, जीवन का अभाव, जीवन की निर्धनता दूर हो सके, जीवन में पूर्णता आ सके, जीवन में सम्पन्नता आ सके, ऐश्वर्य आ सके, श्री और सौभाग्य आ सके और गुरू उसे उस साधना पद्धति को प्रदान कर देता है जो उसके जीवन के लिये आवश्यक होती है। इस प्रकार की साधना योगी, गुरू, मार्गदर्शक, विद्वान, शास्त्र कोई भी प्रदान कर सकता है। मगर इस बात का ध्यान रहें कि हमारे मन में एक ललक हो, एक चेतना हो, एक विचार हो कि हमें इस साधना को सम्पन्न करना ही है। जब तक साधक में एक जोश, एक चेतना नहीं होती, एक ललक नहीं होती। तब तक साधक में यह आत्मविश्वास नहीं होता कि उसे यह साधना करनी ही है। तब तक साधना प्रारम्भ भी नहीं हो सकती, मंत्र पर, गुरू पर, साधना पर विश्वास होना चाहिये।
जैसी भावना होती है, जिसकी जैसी श्रद्धा होती है उसको उतनी ही फल प्राप्ति होती है। यदि हम भगवती महालक्ष्मी की साधना प्रारम्भ करें तो उसका आधार ही श्रद्धा होती है। श्रद्धाहीन मंत्र जप व्यर्थ है। श्रद्धाहीन दीपावली मनाना बेकार है। हजार-हजार घी के दीपक जला कर भी हम भगवती महालक्ष्मी को प्रसन्न नहीं कर सकते। उनके सामने भोग लगा कर, घंटे-घड़ियाल बजाकर देवी की अनुकूलता प्राप्त नहीं कर सकते। यह तो हम कई वर्षो से करते आ रहे है, कई वर्षो से दीपावली की रात्रि को दीपों की जगमगाहट करते आ रहे है, आतिशबाजी फोड़ते आ रहे है। भगवती महालक्ष्मी का चित्र घर में स्थापित करके और उसके सामने अगरबत्ती, धूप, दीप लगाते आ रहे है, भोग लगाते आ रहे है, घंटे-घड़ियाल बजाते आ रहे है। मगर हम वहीं के वहीं है जहां थे। क्या कारण है? इतना सब कुछ करने के बावजूद भी हमें फल क्यों नहीं मिल रहा। इसके मूल में अश्रद्धा है, औपचारिकता है, एक निर्वाह है कि हमें दीपावली मनानी है कि हमें लक्ष्मी का पूजन करना है और जो तुम्हारे पंड़ित आते है उनको भी लक्ष्मी की साधना और मंत्र का ज्ञान नहीं है। वह तो उसी ढर्रे के साथ मंत्र जप बोल लेते है जो उनके बाप-दादाओं ने उनको सिखाया हुआ होता है। उनको यह भी ज्ञान नहीं होता कि मंत्र जप सही है या नहीं। इसको करना चाहिये या नहीं, वह तो लकीर के फकीर होते है, वह स्वयं श्रद्धाहीन होते है। फलस्वरूप साधक भी श्रद्धाहीन रह जाता है। इसलिये भगवती महालक्ष्मी की साधना उनकी प्रसन्नता प्राप्ति उनसे वरदान प्राप्त करने के लिये यह नितांत आवश्यक है कि हमारे मन में श्रद्धा हो, संकल्प हो, गुरू हो जो तुम्हें ज्ञान दें सके, जो तुम्हें चेतना दे सकें। सम्पर्क करके, व्यक्तिगत रूप से मिलकर के उन मंत्रों को प्राप्त किया जाएं जो अपने आप में चैतन्य है और आधुनिक जीवन में पूर्णता प्रदान करने वाला है। और फिर गुरू के पास पहुँच करके लक्ष्मी दीक्षा प्राप्त करें और यह दीक्षा तो अनिवार्य है क्योंकि इस दीक्षा से, लक्ष्मी दीक्षा से शिष्य के पूरे शरीर में गुरू लक्ष्मी की स्थापना कर देता है। 108 लक्ष्मियों का आव्हान करता है। धन लक्ष्मी, धान्य लक्ष्मी, धरा लक्ष्मी, कीर्ति लक्ष्मी, आयु लक्ष्मी, वैभव लक्ष्मी, पुत्र-पौत्र लक्ष्मी, महालक्ष्मी, सम्पूर्णता लक्ष्मी…… सैकड़ो प्रकार के लक्ष्मी के स्वरूप है। इन सभी स्वरूपों को उसके शरीर में स्थापित करने से ही दीक्षा का क्रम पूरा होता है और तभी साधक लक्ष्मी की साधना करने पर पूर्णता और निश्चिंतता प्राप्त करता ही है, यह सत्य है।
इस प्रकार लक्ष्मी साधना के विभिन्न प्रकार के स्वरूप है। वेदोक्त काल से आज तक लक्ष्मी साधना के सम्बन्ध में निरन्तर अनुसंधान चल ही रहे है। कौन से मंत्र की कितनी उपयोगिता है, कौनसा मंत्र कितने समय तक प्रभावशाली रहता है? लक्ष्मी साधना का सात्विक और तामसिक मंत्र कौनसा है? क्या कमला रूप में साधना की जाए? श्री सुन्दरी रूप में साधना की जाये? क्या त्रिपुर सुन्दरी रूप में साधना की जाए? क्या कुबेर रूप में साधना की जाएं? क्या विश्वामित्र प्रणीत तंत्र रूप में साधना की जाएं? अथवा ऋषि विशिष्ठ प्रणीत साधना की जाएं या ऋषि पुलत्स्य प्रणीत साधना की जाएं या जगद्गुरू शंकराचार्य प्रणीत साधना की जाएं या योगी विवेकानन्द प्रणीत साधना की जाएं या स्वामी सच्चिदानन्द जी द्वारा प्रणीत साधना की जाये या तांत्रिक पगला बाबा द्वारा प्रणीत साधना की जाये या साबर तंत्र के मसीहा गुरू गोरखनाथ द्वारा प्रणीत साधना की जाये या साबर तंत्र गुरू मत्स्येन्द्रनाथ प्रणीत साधना की जाये या योगीराज त्रिजटा अगोरी प्रणीत साधना की जाये, जो क्रिया योग के महान योगी थे या स्वामी भैरवानन्द द्वारा प्रणीत साधना की जाये या अवधूत कीर्तियानन्द द्वारा प्रणीत साधना की जाये या तांत्रिक हलाहलनंद द्वारा प्रणीत साधना की जाये अथवा रावणकृत उड्डीश तंत्र से लक्ष्मी साधना की जाये या माहेश्वरी तंत्र द्वारा लक्ष्मी साधना की जाये। यह सारी साधनाएं अतिउत्तम है और मैं इन सब साधनाओं का नाम आज के प्रवचन में इसलिये ले रहा हूँ कि मैंने जो ज्ञान प्राप्त किया उसे कहीं छुपाया नहीं, पत्रिका के माध्यम से सब शिष्यों को यह साधनाएं प्रदान कर दी। जिसे जो साधना अपनी रूचि, प्रकृति अनुकूल लेंगे, वह लक्ष्मी साधना अवश्य सम्पन्न करें। शायद आप पत्रिका का मुख्य पृष्ठ देखते है और घर के कोई कोने में छुपा कर रख देते है अन्यथा इस प्रकार दयनीय अवस्था में हाथ फैला कर मेरे सामने खड़े नहीं होते। इसका सीधा तात्पर्य यह हुआ कि मैंने जो ज्ञान दिया उस ज्ञान का आपने प्रैक्टिकल उपयोग किया ही नहीं, आपने तो सोचा कि गुरूजी के पास जायेंगे और गुरूजी मंत्र बोल देंगे, हम कहीं और सोचते रहेंगे, साधना सिद्ध हो जायेगी, लक्ष्मी प्राप्ति हो जायेगी लेकिन ऐसा होता नहीं है। जब तक आप किसी साधना, देवता अथवा गुरू के साथ आत्मसात् नहीं हो जाते तब तक वह साधना तत्व, वह गुरू तत्व आपके रक्त-रक्त, कण-कण में फैल नहीं सकता और जब तक रक्त कण-कण में नहीं फैलता तब तक साधना में सिद्धि प्राप्त नहीं होती। मै साधना के माध्यम से आपको कोई गोली अथवा पीने की दवाई नहीं दे रहा हूँ, जिसका असर कुछ दिनों बाद दिखाई पड़े। गोली ली, दवाई ली, खान-पान का ध्यान रखा नहीं, मंत्र जप बराबर किया नहीं, साधना में एकाग्रता रखी नहीं तो लक्ष्मी साधना में सफलता कैसे मिलेगी, इसलिये अब मैं सीधा इंजेक्शन में विश्वास करता हूँ। सीधा नाड़ी में इंजेक्शन देता हूँ जिससे की रक्त के साथ-साथ वह साधना आपके पूरे शरीर में रोम-रोम में व्याप्त हो जाये। कुछ काल से दीक्षा पर भी मैं इसीलिये विशेष जोर देता हूँ, क्योंकि में अपने शिष्यों को, आपको अच्छी तरह से जानता हूँ। यदि कोई आलस्य सम्राट की पदवी होती तो तुम लोगों में से दो-चार, दस तो आलस्य सम्राट अवश्य बन गये होते।
लेकिन अब ऐसा चलेगा नहीं, बहुत जन्मों तक आलस्य कर लिया, बहुत जन्म तक निंद्रा कर ली, बहुत जन्मों तक पशु की भांति जीवन जी लिया। बहुत जन्मों तक लक्ष्मी के याचक बन कर, हाथ जोड़कर, हाथ फैल कर, भिखारी की तरह खड़े हो गये। अब यह नहीं चलेगा, यदि भिखारी ही बनना है तो कहीं ओर चले जाओं। यदि मैंने एक बार भी दीक्षा दी है, एक बार भी मंत्र दिया है तो वह चिंगारी तुम्हारे भीतर जल रहीं है। वह चिंगारी ज्वाला है। तुमने उस पर अपने आलस्य की राख डाल दी है। आज दिपावली का अवसर है और अब मैं आपके हृदय में स्वाभिमान की ज्वाला जला रहा हूँ। उस चिंगारी को अग्नि में प्रणीत कर रहा हूँ। उसके लिये जो दो-चार दस साधनाएं मुझे करानी है वह तो मैं कराऊँगा ही और मैं देखता हूँ कि आप में से कितने व्यक्ति इन साधनाओं को सम्पन्न नहीं कर रहे है। अब तक मैं आपकी सुनता आया लेकिन अब आपको मेरे मंत्र, चैतन्य होकर सुनने पड़ेगे और उन्हें आत्मसात् करना पड़ेगा।
कई दीपावली आई और चली गई, हर दीपावली को आपने खर्च से अपना दीवाला निकाल दिया, जबकि दीपावली पर्व इसलिये होता है कि आपके पास लक्ष्मी आये और आप लक्ष्मीपति, लक्ष्मीवान बनें। इसमें कोई चूक रहती है तो 99 परसैन्ट गलती मेरी है। आपकी तो केवल 1 परसैन्ट गलती है और आपने 1 परसैन्ट गलती यह कर दी कि आप मेरे शिष्य बन गये और शिष्य बन कर गुरू दीक्षा ले ली। अब जिम्मेदारी तो मेरे ऊपर ही आई। आप तो बस फ्री हो गये। लेकिन आज मैं आपको पूर्णता के साथ साधनाएं सम्पन्न कराऊंगा ही, यह दीपावली पर मेरा वचन है।
कभी मैंने बताया कि भगवती महालक्ष्मी की साधना करने से पूर्व यदि व्यक्ति अपने गुरू से या विद्वान से भगवती महालक्ष्मी की दीक्षा प्राप्त कर लेता है तो निश्चय ही उसके जीवन में साधना की सम्पूर्णता प्राप्त होती है। यह दीक्षा अपने आप में अद्वितीय और श्रेष्ठ मानी गई है और बहुत ही कम गुरूओं को जानकारों को दीक्षा का ज्ञान होता है जो 108 प्रकार की लक्ष्मी को शरीर में स्थापित करें। किस-किस अंग में कौन-कौन सी लक्ष्मी स्थापित होती है, किन मंत्रों से स्थापित होती है, किस प्रकार से स्थायित्व प्रदान करती है? यह एक पेचीदा कार्य है। जिसे गुरू भली प्रकार से सम्पन्न कर सकता है। दीक्षा प्राप्ति के बाद साधक समय-समय पर लक्ष्मी से सम्बन्धित साधनाएं सम्पन्न करें। जिससे उसके जीवन में जो अभाव है, जो निर्धनता है, जो कमी है वह दूर हो सकें। कुछ तथ्य लक्ष्मी से सम्बन्धित जान लेने चाहिये। महालक्ष्मी की साधना या मंत्र जप या अनुष्ठान किसी भी महीने के शुक्ल पक्ष से प्रारम्भ की जा सकती है। पंचमी, दशमी, पूर्णिमा या किसी भी शुक्रवार से यह साधना सम्पन्न करें, शुरू करें तो ज्यादा उचित रहता है। साधना प्रारम्भ करने से पूर्व यदि शत्अष्टोतर लक्ष्मी दीक्षा प्राप्त कर ले, तो सफलता निश्चित होती है। किसी भी प्रकार की भगवती महालक्ष्मी से सम्बन्धित साधना सम्पन्न करने के लिये सहस्त्र रूपेण महालक्ष्मी यंत्र को स्थापित करें और उसके सामने साधना या उपासना अथवा अनुष्ठान प्रारम्भ करें तो निश्चिय ही सफलता प्राप्त होती है। क्योंकि यह यंत्र अपने आप में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण, इसमें हजार लक्ष्मियों की स्थापना और उनका कीलन होता है। जिससे कि साधक के घर में स्थायित्व प्रदान करती हुई लक्ष्मी स्थापित हो। इसमें कमल पुष्प, गुलाब के पुष्प का प्रयोग पूजन के समय करें और कमलगट्टे की माला से मंत्र जप हो या स्फटिक माला से मंत्र जप हो, तो ज्यादा उचित माना गया है। इस प्रकार की साधना व्यक्ति अपने घर में अकेले या पत्नी के साथ सम्पन्न कर सकता है।
मैंने इस बार तीनों ही पद्धतियों से दीपावली पूजन कार्य सम्पन्न करवाया। मगर महालक्ष्मी पूजन का उत्तरार्द्ध भी उतना ही महत्त्वपूर्ण होता है, जितना महालक्ष्मी पूजन का पूर्वार्द्ध होता है। इसलिये इस गलतफहमी में नहीं रहना चाहिये कि महालक्ष्मी पूजन होने पर सब कुछ सम्पन्न हो गया है, पूरा हो गया है। ऐसी गलतफहमी में नहीं रहना चाहिये, किसी भी कार्य का पूर्वार्द्ध और उतरार्द्ध दोनों मिलकर ही पूर्णत्व को प्राप्त होता है। इसलिये आज का दिन भी और कल का दिन भी आपके लिये महत्त्वपूर्ण है। साधनाओं के लिये भी और विशेष रूप से कार्य के लिये भी। रात्रि को मैं कुछ विशेष प्रयोग भी सम्पन्न कराऊंगा।
आज तो राजस्थान में ऐसा नियम है कि दीपावली के दूसरे दिन लोग मिलने के लिये आते है। परिवार वाले और मित्र भी और दूसरे लोग भी और सामाजिक दृष्टि से यदि हम उन्हें रिस्पोंस (Response) नहीं दे, यदि खुद हम उनको मिलें नहीं तो वह बड़ा ही अपमान महसूस करते है। राजस्थान में तो बड़ा जल्दी गुस्सा आता है कि यह बहुत ही लाड़ साहब हो गये है। मिलते ही नहीं, ऐसी उनकी भावना बन जाती है। इसलिये आने में थोड़ा विलम्ब हो गया मुझे, लेकिन आपसे मैं कभी भी मिल सकता हूँ, आपसे मिलने के लिये औपचारिकताओं की जरूरत नहीं है। वहां औपचारिकताओं की जरूरत है। मुझे मालूम है कि 11 बज गये है। बड़ा ही फड़फड़ा रहा था, मगर फिर भी मुस्कुराता रहा कि आईये, आईये। यह सब सामाजिक मान्यता है, सामाजिक परम्पराएं है और उनको भी निभाना उतना ही महत्त्वपूर्ण है। इस लक्ष्मी पूजन प्रयोगों में आपके पास लक्ष्मी से सम्बन्धित कई साधनाओं के साथ लक्ष्मी के तीन बीज है। पूरे लक्ष्मी साधना को, पूरे लक्ष्मी से सम्बन्धित वाग्डमय जितना साहित्य है, जितनी साधना है चाहे वे साबर साधनाएं हो, चाहे तांत्रिक साधना हो, चाहे मांत्रिक साधना हो उन सभी में लक्ष्मी से सम्बन्धित तीन बीज ही समावेश है। बीज का मतलब है उस पूरे ढांचे का मूल आधार, पूरे पेड़ का अगर मूल आधार है तो उसका बीज है। उस बीज के माध्यम से ही पूरा वृक्ष बनता है और लक्ष्मी के तीन बीज है। पहला श्रीं, दूसरा ह्रिं या ह्रीं (Hrim या Hreem ) या तीसरा बीज क्लीं भी कहा जा जाता है। श्रीं, ह्रीं, क्लीं भी कहा जाता है। और तीनों की विशिष्ट साधनाएं, विशिष्ट पद्धतियां प्रचलित है। मैं उनमें से संक्षेप में अपने इस प्रवचन उन पद्धतियों का वर्णन आपके लिये कर रहा हूँ। जो प्रैक्टिकल रूप में आपके लिये ज्यादा उपयोगी होगी। फिर कुछ प्रयोग है, सबसे पहले तो आप जो यंत्र निर्माण कर रहे है, भोज पत्र पर, स्लेट पर कल आपने श्रीं पूजन किया। श्रीं चक्र पर आपने 36 बीज लिखे होंगे। फिर मैंने पूजन कराया, तो मैंने उसे धुलवा दिया था, साफ करवा दिया था और उस पर कुंकुंम लगवाया था, साफ करवा दिया था और उस पर कुंकुंम लगवाया था। तो मैं उस गलत फहमी को थोड़ा दूर कर दूं कि अनन्त काल तक आपका श्रीं लिखा हुआ रहेगा नहीं। आपका तो अंकन होना चाहिये, उसके बाद में आपके मानस में यह रहे कि कल तो आपने धुलवा दिया था तो फिर ‘श्रीं’ कहा रह गया, यह अर्थ नहीं है। आपके स्नान करने से जो ऑरिजनल्टी, जो गुण है, क्वालिटी है वो खत्म नहीं हो जायेगी। जब तक आपने स्नान नहीं किया, जब तक वह गुण है और जैसे ही आपने स्नान किया वे गुण खत्म हो जायेंगे। ये तो कोई अर्थ नहीं है।
तो आपके मन में यह आया हो कि कल तो गुरूजी ने क्रिया कराई, दो दिन की मेहनत खत्म कर दी। हमने तो बड़ी मुश्किल से श्रीं, श्रीं लिखा। तो आपका तो उसमें मंत्र जप है। यूं तो रोज ही उसे स्नान करना पड़ेगा। उससे कुछ अन्तर नहीं होगा और वह यंत्र तो मूल रूप से मैंने आपके लिये, उस गाईड लाईन’ के लिये दिया था इसलिये दिया था कि यदि भोज पत्र फट भी जाए तो आपको चिन्ता करने की जरूरत नहीं है कि ताम्र पत्र पर यंत्र अंकित है। मंत्र तो मैंने सिद्ध किया हुआ था ही।
यह तो कृष्ण की कही हुई बात, जब अर्जुन महाभारत युद्ध में खड़ा हुआ और उसने देखा एक तरफ कौरव सेना खड़ी है, एक तरफ पांडव सेना खड़ी है और उसने अपने चारों भाईयों को देखा। नकुल, सहदेव को देखा, भीम को देखा और युधिष्ठर को देखा और फिर सामने कौरवों को देखा तो बहुत घबराने लगा। उसने कहा कि सामने मेरे मामाजी खड़े है, सामने मेरे काकाजी खड़े है, सामने मेरे गुरू द्रोणाचार्य खड़े है, भीष्म पितामह खड़े है उनकी गोदी में खेला हूँ, उनके हाथों में बड़ा हुआ हूँ, उन्होंने मुझे सिखाया, पढ़ाया और अब तीर लेकर के मैं इनको खत्म कर दूं। ऐसा कैसे हो सकता है? उसने कृष्ण को कहा कि मुझे युद्ध करना ही नहीं, मुझे राज्य ही नहीं चाहिये, मैं लड़ना चाहता ही नहीं, किनसे लडूंगा मैं? ये मेरे शत्रु है ही नहीं। इन द्रोणाचार्य से मैंने सीखा है, विद्याएं सिखी है, ये तो मेरे गुरू है। ये भीष्म पितामह मेरे दादा है, उनकी गोदी में मैं खेला हूँ, बड़ा हुआ हूँ। तब कृष्ण ने कहा कि अर्जुन तू जिनको देख रहा है उनको तो मैं पहले ही मार चुका हूँ। ये तो मरे हुए है ही क्योंकि ये तो मरेंगे ही। तू तो केवल निमित्त मात्र के लिये खड़ा है। तू तो केवल यह सोच रहा है कि मुझे तीर चलाना है। तेरे तीर से ये भीष्म पितामह नहीं मर सकते, ये तो जिसके हाथों से मर सकते है उसके हाथों से ही मरेंगे। ये मारने वाला तो मैं हूँ! मैं मार चुका हूँ, तू केवल निमित्त हो जा।
मैं इस पूजा के लिये आपको कह रहा हूँ आप निमित्त हो जाईयें। बाकी तो सब कुछ मैं कर चुका हूँ। आप तो केवल निमित्त है, केवल अंकन करना है। इस बात की आपको अधिक चिंता करने की जरूरत नहीं है। जो भी प्रयोग करना है, मंत्र सिद्ध करना है, आप उसमें केवल भागीदार है। जो कुछ होना है वह हो रहा है, होगा ही। इसलिये उसके आगे ही आप ‘श्रीं’ अंकन करेंगे और यह ‘श्रीं’ बीजांकन है। अपने आप में महत्त्वपूर्ण प्रयोग है। इसके बाद आपकी कल जो मालाएं पूरी नहीं हुई है, उन्हें पूरा कीजिए क्योंकि यह श्रीं बीज प्रयोग जो है, अपने आप में विशिष्ट प्रयोग है। कल मैंने उस प्रयोग के माध्यम से, आपका सीधा उस यंत्र से भी सम्बन्ध स्थापित किया है कि उस पर तिलक करके अपने ललाट पर तिलक करने का मतलब है कि मेरी देह, मेरे प्राण, मेरी चैतन्यता इस यंत्र से सम्बन्धित बनें। इसलिये इस प्रकार से इस प्रयोग को मैंने सम्पन्न कराया। जीवन में श्रीं प्रयोग या श्रीं बीज प्रयोग अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है और उसके लिये सबसे श्रेष्ठतम् ग्रन्थ यदि है तो वह ‘श्रीं विद्या’अर्चन पद्धति है। हस्तलिखित ग्रन्थ है, प्रकाशित हुआ नहीं है। बहुत समय पहले वेंकटेश उपदेश मुम्बई में होती थी, उस वेंकटेश उपदेश के श्री कृष्ण दास मालिक थे। उन्होंने उस ग्रन्थ का प्रकाशन किया था लिथो पद्धति में, पहले इस प्रकार के छापे खाने नहीं थे और 1927 में उसका प्रकाशन किया था, एक हजार कॉपी छापी थी। फिर उसकी कॉपी आगरा में छपी थी। माइटहान कोई जगह है आगरा में माइटहान कोई मौहल्ला है, जगह है। उसका ऐडरस यही था, माइटहान आगरा। कोई सेठ थे उन्होंने वापिस उसको छपवाई थी। उसके बाद वह पुस्तक लुप्त है। मगर वह पुस्तक अपने आप में श्रीं बीज पर ही पूरी पुस्तक है और विशेष महत्त्वपूर्ण पुस्तक है और यदि आपको ऐसी पुस्तक कभी मिल जाएं तो वह एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है। इसमें एक प्रयोग विशिष्ट प्रयोग दिया है। उस प्रयोग को आपके सामने लिखवा दिया है। उस प्रयोग को आपके सामने लिखवा देता हूँ। उसमें कहा है तो उसको अनुभव करके मैं कह रहा हूँ। किसी पुस्तक में लिखा हुआ
जैसी पुस्तक में लिखी हुई है वैसी ही बात कह दूंगा तो मेरा गुरूत्व खत्म हो जायेगा। मेरे कहने का मतलब ही नहीं रहेगा, लिखा हुआ है। उसको मुझे अनुभव करना है। अनुभव करने के बाद में, कन्फर्म हो तो मुझे बताना चाहिये। ऐसा ही बताता हूँ। मैं तो केवल प्रमाण दे रहा हूं कि ऐसी पुस्तक है। उस पुस्तक में श्रीं बीज का एक प्रयोग दिया हुआ है और उन्होंने कहा कि संक्रान्ति या अमावस्या की रात्रि को लगभग 11 बजे से 1 बजे के बीच में श्रीगंध तैयार करें। श्रीगंध तैयार करते समय
मंत्र को बोलते रहे और श्रीगंध का निर्माण करते रहे। श्रीगंध में कुंकुंम, केसर, कपूर बराबर मात्रा में मिलाते है और उसमें जल मिला कर, स्याही की तरह तैयार करते है। फिर यह प्रयोग ही है, प्रयोग तो प्रयोग है। क्योंकि यह प्रयोग अपने आप में विशिष्ट तांत्रिक प्रयोग है और तंत्र के बारे में कन्फ्यूजन की जरूरत नहीं है। फिर रात्रि को, इस अर्द्ध रात्रि में। अर्द्धरात्रि कहलाती है 11 बजे से 1 बजे का जो टाईम होता है वह अर्द्धरात्रि कहलाती है, मध्य रात्रि कहलाती है। फिर स्नान करें 11 बजे से 1 बजे के बीच में। यदि इस प्रयोग को करना है तो। स्नान करने के बाद किसी वस्त्र को स्पर्श नहीं करे यानि बिना वस्त्रों के स्नान करें कहने का मतलब यह है और एकांत स्थान हो। कि आपको कोई नहीं और आप भी किसी को देखे नहीं। पत्नी को पीहर भेज दें, बच्चों को ननिहाल भेज दें। फिर साधना करें। स्नान करने के बाद आसन पर आकर बैठ जायें। शरीर पर किसी प्रकार का वस्त्र या धागा नहीं हो और दक्षिण दिशा की ओर मुँह कर बैठे और भोज पत्र पर चांदी का श्लाका से उस श्रीगंध से 1008 बार श्रीं लिखे। प्रत्येक श्रीं पर एक बार
मंत्र का जप करें। एक बार मंत्र बोलें और भोज पत्र पर श्रीं मंत्र लिख दे, कुल 1008 लिखें। मगर यह ध्यान रखना है कि 11 से 1 बजे के बीच में सब काम समाप्त होना है। इस स्नान करने से लेकर सब काम समाप्त होना है। इस स्नान करने से लेकर सब काम कम्पलिट होना है। यह और बता देता हूँ आपको उसके बाद में एक विशेष मंत्र है, उस मंत्र को आपको लिखवा देता हूँ। उस मंत्र का एक माला मंत्र जप हकीक माला से करें। हकीक माला ले लें हाथ में और फिर उस मंत्र को जपे। इसमें ऊँ नहीं है।
और इस मंत्र का 108 बार उच्चारण करना है, 1008 लिखने के बाद और उस श्रीगंध से तर्जनी अंगुली से उस श्रीं पर बिन्दीयां लगा देनी है। बिन्दीयां लगाते रहना है और मंत्र बोलते रहना है। उन 1008 पर जो भोज पत्र पर लिखे है। इसका मतलब है एक बार मंत्र बोलेंगे तो दस या बारह बिन्दीयां लगनी चाहिये। जब 108 बार बोलेंगे तो 1008 पर बिन्दीयां लग जायेगी और फिर उस भोज पत्र को मोड़ कर के, चांदी के ताबीज में ( पहले से ही बनवा कर तैयार रखें ) डाल करके, दाहिनी भुजा पर बांध लें और सो जाये वही पर और दूसरे दिन सबुह, दोपहर (दोपहर तक यानि करीब-करीब 12 बजे तक ) तक अनायास धन की प्राप्ति होगी ही। यह गारन्टी है और विशिष्ट धन प्राप्ति होगी। ऐसा भी होता है की सबुह सिरहाने ही पड़ा मिल जाये। मगर ऐसा नहीं भी हो क्योंकि आपकी एकाग्रता नहीं है। एकाग्रता हो आपकी तो सिरहाने धन मिलेगा ही। यह भी निश्चित है और नहीं मिले तो चिंता करने की जरूरत नहीं। दोपहर का मतलब है 12-1 बजे तक तो आपको अनायास धन की प्राप्ति होगी ही। मार्ग में पड़े हुए पैसे मिल जाएं, बटुआ मिल जाये। कोई आकर के दे दें। ऐसा कुछ भी हो जाये, जहां सौ रूपये की बिक्री होती है वहां दो हजार की हो जाये। मगर आप इस प्रयोग को आजमा लें और उसका ईफेक्ट पूरे एक महीने तक रहता है। मगर पहले दिन ईफेक्ट ज्यादा होगा, दूसरे दिन उससे कम होगा, तीसरे दिन उससे कम होगा, चौथे दिन उससे भी कम होगा, यह भी बता देता हूँ। मगर पहले दिन तो ईफेक्ट होता ही है। उस पुस्तक में ऐसा लिखा है कि आपकी एक महिने की आमदनी एक दिन में प्राप्त हो जाती है। यदि आप दो हजार रूपये महीना कमाते है। तो उस दिन आपको दो हजार रूपये अनायास प्राप्त हो जायेंगे और यहां पर एक व्यक्ति उपस्थित है जिनको मैंने यह प्रयोग समझाया था और उनको पांच-छः बार ऐसा हुआ है और मार्ग में उनको धन मिला है और रास्ते में चलते हुए, मिला और मेरे पास आये दूसरे दिन की गुरूजी, दोष लग गया की चोरी का तो यह पैसा है नहीं। मैंने तो कहा तुम्हें तो यह मिला है, किसी का पैसा होगा, बटुआ गिरा होगा, तुमने जेब तो काटी नहीं। तुम्हें मिला तुम उसका उपयोग करो। तो छः बार उसने प्रयोग किया, छः बार उसको सफलता मिली। यह तो महीने भर की कमाई एक दिन में मिल सकती है। इसमें और भी प्रयोग के बारे में दिया है। जो कि आपके लिये महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि इसमें कोई दोष नहीं है, कोई नुकसान नहीं है और इसमें कहीं किसी प्रकार की तकलीफ नहीं है।
यह प्रयोग मेरा आजमाया हुआ है और मेरा ही आजमाया हुआ नहीं, मेरे कई संन्यासी शिष्यों का भी आजमाया हुआ है। वह जंगल में करते है साधना और भिक्षा लेने जाते है और कोई व्यक्ति मिलता है महाराज दो हजार रूपये मिले, आप ही ले जाईये। महाराज धोती-पोधी फेंक देते है और मौज करते है। मैंने कहा सालों तुम भूखे मरोगे। कमाने की तुम्हारे पास कोई दूसरी तरकीब तो है नहीं। तुम पांच दिन की साधना तो कर नहीं सकते, भीख मांगोगे, भूखे मरोगे, मेरा नाम डूबाओंगे। इसलिये तुम कमाओं और खाओं । ऐसा इसलिये तुम यह प्रयोग कर लो, महीने भर की रोटी का तुम्हारा इंतजाम हो जायेगा। वह इसके अलावा कुछ करते ही नहीं। जंगल में उनको कोई देखता ही नहीं, अगर नंगे बैठे रहें। शरीर पर कोई धागा होता ही नहीं इसमें न यज्ञोपवित होता है, न कोई मोली होती है। यह दिगम्बरी साधना है, जैन साधना के निकट है और जैन साधना में तो लक्ष्मी से सम्बन्धित कई साधनाएं है। कलयुग में साबर साधनाएं और तांत्रिक साधनाएं ज्यादा ईफेक्टिव है।
भगवती महालक्ष्मी की साधना को जीवन की सर्वश्रेष्ठ साधना कहीं गई है। भगवती महालक्ष्मी सम्पूर्णता के साथ आप लोगों को, साधकों को, श्रोताओं को प्राप्त हो मैं ऐसा ही आशीर्वाद प्रदान कर रहा हूँ।
परम् पूज्य सद्गुरू
कैलाश श्रीमाली जी
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