आग्नीध्रनन्दन महाराज नाभि व उनकी पत्नी मरूदेवी भगवान विष्णु के परम भक्त थे। संतान प्राप्ति की आशा हेतु उन्होंने महान यज्ञ प्रारंभ किया, जिससे प्रसन्न होकर शंख, चक्र, गदा, पद्म धारी चतुर्भज श्री विष्णु प्रकट हुए। महाराज नाभि ने सादर दंडवत प्रणाम कर अपनी अभिलाषा व्यक्त करते हुये बताया कि आपके ही समान पुत्र चाहते हैं। भगवान विष्णु ने कहा ‘‘मैं स्वयं महाराज नाभि के यहां अवतरित होऊंगा, क्योंकि मेरे समान तो मैं ही हूं, अन्य कोई नहीं।’’ ऐसा कहकर वे अंतर्ध्यान हो गये। उचित समय पर महारानी मरूदेवी ने तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया, जिसके शरीर पर वज्र-अंकुश चिन्ह था। पुत्र के अत्यन्त सुन्दर गुणों को देखकर महाराज ने उसका नाम ऋषभ रखा। कुछ समय पश्चात् जब राजकुमार ऋषभ वयस्क हुये तो महाराज नाभि ने पाया कि सम्पूर्ण राष्ट्र की जनता, राजभवन के मंत्री आदि सभी ऋषभदेव को अति भाव, प्रीति व अपूर्व आदर की दृष्टि से देखते है, ऋषभदेव के जितना सम्मान और प्रेम तो पहले किसी को नहीं मिला, तब महाराज ने ऋषभदेव को राजपद सौंप दिया और स्वयं अपनी धर्मपत्नी मरूदेवी के साथ तपस्या करने वन में चले गये। वे उत्तर दिशा में हिमालय के अनेक शिखरों को पार करते हुए गन्धमादन पर्वत पर भगवान नर-नारायण के निवास स्थान बदरिकाश्रम में पहुँचे। वहाँ वे दोनों परम प्रभु के नर-नारायण रूप की उपासना एवं उनका चिन्तन करते हुए समयानुसार उन्हीं में विलीन हो गये। उधर शासन का दायित्व अपने कन्धे पर आ जाने के कारण ऋषभ देव ने मानवोचित्त कर्तव्य का पालन करना प्रारम्भ किया।
उन्होंने गुरूकुल में कुछ काल रहकर वेद-वेदान्तों का अध्ययन किया और फिर अन्तिम गुरू दक्षिणा देकर व्रतान्तस्नान किया। इसके बाद वे राज-कार्य देखने लगे। ऋषभ देव राज्य का सारा कार्य बड़ी ही सावधानी एवं तत्परतापूर्वक देखते थे। उनकी राज्य-व्यवस्था और शासन प्रणाली सर्वथा अनुकरणीय और अभिनन्दनीय थी, एक प्रकार से एकदम आदर्श थी।
ऋषभ देव जी के शासनकाल में देश का कोई भी पुरूष अपने लिये किसी से भी अपने प्रभु के प्रति दिन-दिन बढ़ने वाले अनुराग के सिवा और किसी वस्तु की कभी अभिलाषा नहीं करता था । यही नहीं, आकाश कुसुमादि अविद्यमान वस्तु की भाँति कोई किसी दूसरे की वस्तु की ओर दृष्टिपात भी नहीं करता था । सम्पूर्ण प्रजा ऋषभ देव को अत्यधिक प्यार करती एवं श्री भगवान् की तरह उनका आदर और सम्मान करती थी।
यह देखकर शचीपति (इन्द्र)-के मन में बड़ी ईर्ष्या हुई। उन्होंने सोचा “मैं त्रैलोक्यपति हूँ, वर्षा के द्वारा सबका भरण-पोषण करता और सबको जीवन-दान देता हूँ, फिर भी प्रजा मेरे प्रति इतनी श्रद्धा नहीं रखती। इसके विपरीत धरती का एक नरेश इतना लोकप्रिय क्यों है? उसे प्रजा परमेश्वर की भाँति क्यों पूजती हैं? मैं इस नरपति का प्रभाव देखता हूँ।”
तब देवराज इन्द्र ने ईर्ष्यावश एक वर्ष तक समूचे देश में वर्षा बन्द कर दी। भगवान् ऋषभ देव ने शची-पति की ईर्ष्या-द्वेष की वृत्ति और अहंकार को समझकर योगबल से सजल-घने बादलों की सृष्टि की। पूरा आकाश काले मेघों से आच्छादित हो गया और पृथ्वी पर जल-ही-जल हो गया। समस्त देश की भूमि शस्यश्यामला बन गयी। तब इन्द्रदेव का घमंड उतर गया।
उन्होंने भगवान् ऋषभ देव के प्रभाव को समझ लिया। फिर तो उन्होंने धरती पर आ कर ऋषभ देव की स्तुति की और अपनी पुत्री जयन्ती का विवाह उनके साथ कर दिया (उस समय तक देवताओं की संताने हुआ करती थी)। ऋषभ देव ने लोक-मर्यादा की रक्षा के लिये गृहस्थ आश्रम-धर्म का पालन किया।
ऋषभदेव को शासन काल में अयोध्या का विशाल साम्राज्य, भरपूर राजकोष, वफादार-गुणवान मंत्री, अत्यधिक प्रेम करने वाली प्रजा, वैभव-ऐश्वर्य सभी कुछ प्राप्त था। उनका भरा-पूरा परिवार था, जिनमें उनके सौ पुत्र व दो अतिप्रिय पुत्रियां थी- सुंदरी व ब्राह्मी। ऋषभदेव ने सुंदरी को अंक व गणित का ज्ञान दिया वहीं ब्राह्मी को भाषा, लिपि विद्या का ज्ञान दिया। ब्राह्मी लिपि का नाम उनकी पुत्री के नाम पर ही पड़ा था। पुत्र भी उनके सभी गुणी थे, उनमें सबसे बड़े, सर्वाधिक गुणवान एवं महायोगी भरतजी थे।
वे इतने प्रतापी नरेश हुए कि उन्हीं के नाम पर इस देश, जिसका नाम उस समय अजनाभ खण्ड था, का नाम ‘भारतवर्ष’ प्रख्यात हुआ। राजकुमार भरत से छोटे कुशावर्त, इलावर्त, ब्रह्मावर्त, मलय, केतु, भद्रसेन, इन्द्रस्पृक, विदर्भ और कीकट-ये नौ राजकुमार भारत वर्ष में ही पृथक-पृथक देशों के प्रजापालक नरेश हुए। ये सभी नरेश तपस्वी, धर्माचरण सम्पन्न एवं भगवद भक्त थे।
इनके देश इन्हीं राजाओं के नाम से विख्यात हुए। इन दस राजकुमारों से छोटे, जो अन्य ऋषभ देव जी के पुत्र थे उनमे कवि, हरि, अन्तरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, अविर्होत्र , दु्रमिल, चमस और करभाजन-ये नौ राजकुमार बाल ब्रह्मचारी, भागवत धर्म का प्रचार करने वाले एवं बड़े भक्तवद भक्त थे। ये योगी एवं सन्यासी हो गये।
इनसे छोटे महाराज ऋषभ देव के इक्यासी पुत्र वेदज्ञ, कर्मकाण्डी, सदाचारी, मातृ-पितृभक्त, विनीत, शान्त तथा महान थे। वे निरन्तर यज्ञ, देवार्चन एवं पुण्य कर्मों के करने से ब्राह्मण हो गये और उनसे ब्राह्मणों के वंश चले।
एक दिन की बात है। पूरा दरबार मंत्रमुग्ध सा नीलांजना नामक नृतकी का नृत्य देख रहा था। अचानक वह मूर्च्छित होकर जमीन पर गिर पड़ीं और अचेत हो गईं। हालांकि कुछ ही क्षणों में उसके अंदर चेतना लौट आई और वह फिर से नृत्य करने लगीं। नृत्य की समाप्ति पर वह फिर अचेत हुईं लेकिन इस बार चेतना वापस नहीं आई। मृत्यु के इस दृश्य का ऋषभदेव के मन पर गहरा असर हुआ। वह सोच में डूब गए, ‘मृत्यु कभी भी, किसी की भी हो सकती है। हम मूर्ख हैं जो जीवन में स्थायित्व देखते हैं। यदि जीवन का सच यही है तो इस सच को जानना होगा लेकिन इसके लिए पहले राजकीय दायित्व से मुक्ति पानी होगी।’
एक बार महाराज ऋषभ देव जी भ्रमण करते हुए गंगा-यमुना के बीच की पुण्यभूमि ब्रह्मावर्त में थे। वहाँ उन्होंने प्रख्यात महर्षियों के समुदाय के साथ अपने अत्यन्त विनयी एवं शीलवान पुत्रों को भी बैठे देखा।
उस सुअवसर से लाभ उठाकर भगवान् ऋषभ देव जी ने अपने पुत्रों को जगत के लिये अत्यन्त कल्याण कारी उपदेश दिया। ऋषभ देव जी ने कहा “पुत्रों ! इस मृत्युलोक में यह मनुष्य-शरीर दुःखमय विषय भोग प्राप्त करने के लिये ही नहीं है। ये भोग तो विष्ठा भोजी सूकर-कूकरादि को भी मिलते ही हैं। इस शरीर से दिव्य तप के कर्म करने चाहिये, जिससे अन्तःकरण शुद्ध हो, क्योंकि इसी से अनन्त ब्रह्मानन्द की प्राप्ति होती है।”
“मनुष्य अपने प्रमादवश कुकर्म में प्रवृत्त होता है। जब तक मनुष्य श्री हरि के चरणों का आश्रय नहीं लेता, उन्हीं का नहीं बन जाता, तब तक उसे जन्म-जरा-मरण से त्राण नहीं मिल पाता। अतः प्रत्येक माता-पिता एवं गुरू का परम पुनीत कर्तव्य है कि वह अपनी संतति एवं शिष्य को विषयासक्ति एवं काम्य कर्मा से सर्वथा पृथक रहने की ही सीख दे।”
फिर संसार की नश्वरता एवं भगवद भक्ति का माहात्म्य बताते हुए श्री ऋषभ देव जी ने कहा-“जो अपने प्रिय सम्बन्धी को भगवद भक्ति का उपदेश देकर मृत्यु की फाँसी से नहीं छुड़ाता, वह गुरू, गुरू नहीं है, स्वजन, स्वजन नहीं है, पिता पिता नहीं है, माता माता नहीं है, इष्टदेव इष्टदेव नहीं है और पति पति नहीं है।
पुत्रों! तुम सम्पूर्ण चराचर भूतों को श्री हरि का ही शरीर समझकर शुद्ध बुद्धि से पग-पग पर उनकी सेवा करो, यही उनकी सच्ची पूजा है।” अपने सुशिक्षित एवं भक्त पुत्रों के फिर से जगत के उपदेश देकर ऋषभ देव जी ने अपने बड़े पुत्र को समूचे देश के राज-पद पर अभिषिक्त कर दिया और स्वयं विरक्त-जीवन का आदर्श प्रस्तुत करने के लिये राजधानी से बाहर वन में चले गये। वहां लंबी तपस्या से ज्ञान प्राप्त किया और फिर लोगों को जीवन और मृत्यु का रहस्य समझाने में लग गए। आगे चलकर जीवन संबंधी उनके उपदेशों को आदि पुराण नामक ग्रंथ में संकलित किया गया जिसे आज भी जैन मुनियों द्वारा जैन समाज में पहुंचाया जाता है।
भगवान विष्णु ने यह अवतार रजोगुण से भरे हुए लोगों को मोक्ष मार्ग शिक्षा देने के लिये ही लिया था।
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