भय का नाम ही तो संदेह है और ‘अभय का नाम आस्था है।’ इसलिये भय का आस्था से कोई संबंध नहीं होता। और जहाँ प्रेम होता है वहाँ से भय और संदेह पलायन कर जाता है। और जहाँ भय और संदेह होता है वहाँ से प्रेम पलायन कर जाता है। क्योंकि प्रेम और संदेह का कभी आपस में मिलन नहीं होता। जिस पर आप प्रेम करते हो, उस पर आप संदेह कर ही नहीं सकते। और जिस पर आप संदेह करते हो उस पर कभी प्रेम नहीं कर सकते। कारण दोनों बाते एकदम विपरीत हुआ करती है। संदेह की आग प्रेम को जला डालती है। भय का भूत प्रेम को तिरोहित कर देता है। संदेह की खटाई प्रेम के दूध को खराब कर देती है। संदेह करने वाला स्वयं दुःखी होता है और दूसरों को भी दुःखी करता है, इसलिये तो कहा जाता है कि संदेह आत्मघाती होता है।
एक छोटी सी कहानी से हम इस बात को और अच्छे से समझेंगे। नूरी एक प्रतिष्ठित, विचारवान व्यक्ति था। उसने अपने से बहुत छोटी उम्र की युवती से विवाह किया। एक संध्या नूरी समय से पहले घर लौटा तो उसके वफादार नौकर ने उससे कहा आपकी पत्नी मेरी मालकिन बहुत संदेहजनक ढंग से पेश आ रही है। उनके कमरे में एक बड़ा संदूक है, इतना बड़ा कि उसमें एक आदमी भी समा जाये। पहले वह आपकी दादी के पास था और उसमें थोड़े से जड़ी के समान थे, लेकिन अब उसके भीतर शायद बहुत कुछ है। मैं आपका सबसे पुराना नौकर हूँ, लेकिन मालकिन मुझे भी उस संदूक के भीतर नहीं झांकने देती।
स्मरण रखना, यदि आपका प्रेम सच्चा नहीं है, तो एक नौकर भी भयभीत कर सकता है। खतरे में डाल सकता है। और सौ में से निन्यानवें मौके पर ऐसा ही होता है कि नौकर भी मालिक बन जाता है। तो नौकर नूरी को डरा सका क्योंकि नौकर ने कहा कि सुनो मालिक, यह जो हो रहा है घर में- यह जो संदूक है वह इतनी बड़ी है कि वह आदमी को भी छिपा सकती है। और फिर आप जवान पत्नी को ले आये हो। आपकी उम्र ज्यादा है और पत्नी की उम्र आपसे बहुत कम है। इसलिये खतरा है। प्रतिष्ठा भी दाव पर लग सकती है। यदि लोगों को जरा भी खबर लग गई तो…।
तो इस प्रकार नौकर भी आपको डरा सकता है यदि आपकी प्रतिष्ठा बाहरी है तो और जिस व्यक्ति की बाहरी प्रतिष्ठा होती है वह कभी प्रेम नहीं कर सकता। क्योंकि प्रेम के लिये भीतरी आधार चाहिये। लेकिन नूरी का प्रेम शायद सही न होगा। इसीलिये नूरी अपनी पत्नी के कमरे में गया, तो देखता है कि पत्नी संदूक के पास उदास बैठी है।
अतः उसे स्थिति संदेह जनक लगी और नौकर वफादार। क्योंकि नौकर पुराना था, जाना परखा था, वर्षों से उसने जब भी जो भी कहा वह सत्य निकला। तो अब यह जब पुनः कहता कि स्थिति संदेह जनक है। और फिर पत्नी भी संदूक के पास बैठी है, संदूक में झाँकने ही नहीं देती, तो जरूर कुछ दाल में काला है और मुझे लगता है कि दाल ही काली है। इसलिये तो मुझे संदूक में झांकने नहीं देती। अरे, यदि संदूक में कुछ भी न होता तो वह संदूक में झाँकने से क्यों मना करती।
लेकिन मैं कहता हूँ कि इस प्रकार संदेह का नींबू अमृत रूपी दूध को फाड़ देता है। संदेह जीवन को नर्क बना देता है। प्रेम में, धर्म में, संदेह नहीं चलता, समर्पण चलता है। आस्था, विश्वास, भरोसा, ट्रस्ट फेथ में ही परमात्मा के पुष्प खिलते हैं और जो आस्था पर संदेह का महल बनाता वह रेत पर अपना भवन खड़ा करता है। जो कभी भी गिर सकता है।
तो संदेही नूरी ने अपनी पत्नी से पूछा क्या मैं संदूक को देख सकता हूं? पत्नी ने कहा क्या एक नौकर के संदेह के कारण पूछते हो? और यदि नौकर के कारण पूछते हो तो आपने अपनी मालकियत को खो दी। फिर आप मालिक नहीं नौकर बन बैठे और या इस कारण पूछते हो कि आपको ही मुझ पर भरोसा न रहा? जरा सोचकर बताओ कि यह संदेह आपके भीतर से आया है या आपके बाहर से?
यह प्रश्न जरा सोचने जैसा है कि संदेह भी उधार लिया जा सकता है। कितनी दरिद्रता है कि संदेह भी अपना नहीं है। आपको अपनी पत्नी पर कितनी आस्था कि संदेह भी दूसरा दे देता है। रास्ते पर आप जा रहे हो और यदि किसी ने कुछ कह दिया कि संदेह का जन्म हो गया। कोई किताब पढ़ ली कि संदेह पैदा हो गया। अनजान व्यक्तियों की बातचीत सुन ली कि संदेह पैदा हो गया। जरा आप सोचिये कि संदेह तक आपका नहीं है, वह भी प्रमाणिक नहीं है। और जिनका संदेह तक अपना न हो वह क्या किसी पर आस्था कर सकता है?
पत्नी ने कहा बताईये क्या नौकर के संदेह के कारण पूछते हो या मुझ पर विश्वास नहीं? यदि नौकर के संदेह के कारण पूछते हो तो आपका संदेह दो कौड़ी का, उसका कोई मूल्य नहीं। अथवा उसका उतना ही मूल्य है जितने एक नौकर का है। क्योंकि आज आप से किसी ने कह दिया तो संदेह पैदा हो गया। इसलिये यदि उधार का संदेह है तो व्यर्थ है, उसमें पड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। और यदि आपका अपना संदेह है तो उत्तर देने योग्य है।
नूरी विचारशील व्यक्ति था। अतः उसने कहा- इन बातों में गये बगैर क्या संदूक को खोलना मुमकिन नहीं होगा? यह बड़ी चालाकी का उत्तर है। वह उत्तर दिये बिना बच रहा है। जबकि बात सीधी पूछी गयी थी कि नौकर ने संदेह उठाया है या आपका अपना संदेह है। लेकिन नूरी ने वकीलों जैसा उत्तर दिया कि क्या इन बातों के बगैर संदूक को खोलना मुमकिन नहीं होगा। उसकी पत्नी ने कहा- नहीं। क्योंकि तथ्य से गुजरे बिना कोई सत्य तक नहीं पहुँचता। संदूक में झाँकोगे कैसे? संदूक तो जीवन ही है।
तो जैसे ही पत्नी ने कहा कि नहीं, संदूक को खोलना मुमकिन नहीं होगा, कि तत्क्षण उसने दूसरी बात पूछी क्या इसमें ताले लगे हैं? क्योंकि यदि ताले नहीं डाले तो वह पत्नी के बिना पूछे ही जबरदस्ती खोल लेगा। क्योंकि उसके पूछने में वास्तविकता नहीं है। लेकिन समझदार पत्नी ने कहा- हाँ, ताले डाले है। नूरी ने कहा तो फिर चाबी कहां है? पत्नी ने एक बहुत अनूठी बात चाबी दिखाते हुयी कही- यदि आप नौकर को बरखास्त कर दो तो मैं आपको यह चाबी दे दूंगी। अर्थात् संदेह को बरखास्त कर दो तो यह रही चाबी।
स्मरण रखना, चाबी छिपाई नहीं गयी है, मात्र संदेह के कारण दिखाई नहीं पड़ रही है। चाबी तो पूरे समय पत्नी के हाथ में है, सामने है। प्रकृति के दरवाजे बंद ही कहाँ है? लेकिन संदेह के कारण आपकी आँखे धुंधली हो गयी है, जिससे आप देख नहीं पा रहे हो। सारे धर्म यही कहते हैं कि नौकर को बरखास्त कर दो तो यह रही चाबी। यह चाबी ले लो और सब ताले खोल डालो। लेकिन संदेह के रहते आप भीतर प्रवेश न पा सकोगे। क्योंकि यह मंदिर संदेह के लिये नहीं है।
प्रेम का द्वार, आस्था का द्वार, संदेह के द्वारा नहीं खुल सकता। जहाँ भरोसा ना हो, वहाँ हृदय का द्वार खुलेगा ही कैसे? संदूक तो आप तोड़ लोगे, लेकिन हृदय को कैसे तोड़ोगे? और यदि हृदय को तोड़कर भी आप देखोगे, तो क्या पाओगे मात्र हड्डी मांस के। वहां और कुछ नहीं मिलेगा, जो होगा वह तोड़ने में ही जा चुका होगा।
कुछ चीजें है, जो तोड़ने में खो जाती है। और जो तोड़ने में खो जाती है उसे आप प्राप्त नहीं कर सकते। तो नूरी कि समझ में आ गया कि संदेह से द्वार न खुलेगा, चाबी न मिलेगी। अतः उसने नौकर को बरखास्त कर दिया। लेकिन पत्नी उदास होकर हट गयी वहाँ से। यह उदासी इसलिये है कि नौकर को आपने बरखास्त तो किया, मगर संदेह के बाद। यदि इस नौकर की बात मानी ना होती तो पत्नी प्रफुल्लित होती। लेकिन नूरी के मन में संदेह समा गया था। इसलिये पत्नी से चाबी मांगता रहा। परन्तु जैसे ही पत्नी ने चाबी दी और वह उदास होकर अलग हट गयी कि फिर नूरी भी संदूक नहीं खोल सका। और अंत में चार नौकरों को बुलवाकर बिना संदूक खोले उसे जमीन में गड़वा दिया और उसके बाद फिर कभी यह बात भी नहीं उठाई गयी।
नूरी ने सोचा यदि संदूक खोलता हूँ तो साफ जाहिर हो जायेगा कि प्रेम नहीं है। इसलिये उसने अपनी बुद्धि से काम लिया और संदेह होने के कारण संदूक को दूर जमीन में गड़वा दिया, सोचा यदि इसमें कोई आदमी होगा तो मर ही जायेगा। इसलिये उसने संदूक दूर गड़वा दिया कि फिर से पुनः प्रेम हो जायेगा। परन्तु संदेह की स्थिति में कभी सच्चा प्रेम नहीं उमड़ता। जब प्रेम में संदेह की दुर्गंध आने लगे तो वह प्रेम नहीं कर सकता, क्योंकि प्रेम असंदिग्ध होता है। प्रेम निर्दोष होता है। इसीलिये आप सभी अपने प्रेम के बीच में संदेह को मत आने दें, अन्यथा आपका सारा प्रेम नष्ट हो जायेगा। आपके जीवन में संदेह की खड़िया जहर बनकर सब कुछ नष्ट कर देगी।
सस्नेह आपकी माँ
शोभा श्रीमाली
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