यहाँ यह ध्यान रखें, कि श्रीमद्भागवत-कथा महाभारत-कथा नहीं है। महाभारत संसार का सबसे बड़ा पद्यकाव्य है। कहा जाता है कि जब वेद व्यास ने महाभारत की कथा लिखी और उन्होंने तो यह सब कथानक जीवन्त देखा था, इस पूरे इतिहास को लिपिबद्ध कर वे अत्यन्त व्यथित हो उठे और उनका शरीर ताप से जलने लगा और उन्होंने अपने जीवन का अंत करने का निर्णय ले लिया।
इस अवसर पर एक बार नारद ऋषि आये और उन्होंने श्री वेदव्यास से उनके दुःख का कारण पूछा, तब वेदव्यास जी ने उन्हें महाभारत कथा का वृत्तान्त बताया और कहा, कि यह पूरी कथा ही अपने आप में घृणा, व्याभिचार, द्रोह, द्वेष, शत्रुता, ईर्ष्या इत्यादि सारे दुर्गुणों से भरी हुयी है। तब नारद ने एक ही प्रश्न किया कि इस पूरे घटनाक्रम में कोई तो ऐसा व्यक्तित्व होगा, जो इन दोषों से रहित होगा। तब वेदव्यास ने कहा कि पूरे महाभारत में मुझे श्रीकृष्ण चरित् ही ऐसा दृश्यमान होता है जो मानो अंधकार में प्रकाश का ज्योति स्तम्भ है, घृणा के महासागर में कमल का पुष्प है, अज्ञान के बीच ज्ञान का पुंज है।
तब नारद ऋषि ने सलाह दी कि आप अपने जीवन के इस दुःख, ताप को दूर करने के लिये श्रीकृष्ण-चरित पर श्रीमद्भागवत की रचना करो, जिससे आपके जीवन के दोष भी दूर हो जायेंगे और इस वृद्धावस्था में आपको मानसिक शांति प्राप्त होगी और आप भगवान श्रीकृष्ण को प्राप्त कर सकेंगे। तब नारद की सलाह मानकर वेदव्यास जी ने श्रीमद्भागवत की रचना की और नारद की सलाह से देव अग्रणी श्री गणपति को लिपि बद्ध करने के लिये आग्रह किया। इस प्रकार श्रीमद्भागवत की रचना हुई, इसी में गीता भी है और यही हिन्दुओं का श्रेष्ठतम धर्मग्रंथ है।
कुरूक्षेत्र- युद्ध के मैदान में जो ज्ञान कृष्ण ने अर्जुन को प्रदान किया, वह अत्यन्त ही विशिष्ट तथा समाज की कुरीतियों पर कड़ा प्रहार करने वाला है। उन्होंने अर्जुन का मोह भंग करते हुये कहा-
‘हे अर्जुन! तू कभी न शोक करने वाले व्यक्तियों के लिये शोक करता है, और अपने आपको विद्वान भी कहता है। परन्तु जो विद्वान होते हैं, वे तो जो जीवित हैं, उनके लिये, और जो जीवित नहीं है, उनके लिये भी शोक नहीं करते।’ इस प्रकार जो ज्ञान कृष्ण ने अर्जुन को दिया, वह अपने आप में प्रहारात्मक है और अधर्म का नाश करने वाला है।
कृष्ण ने अपने जीवनकाल में शुद्धता, पवित्रता एवं सत्यता पर ही अधिक बल दिया। अधर्म, व्यभिचार, असत्य के मार्ग पर चलने वाले प्रत्येक जीव को उन्होंने वध करने योग्य ठहराया, फिर वह चाहे परिवार का सदस्य ही क्यों न हो, और सम्पूर्ण महाभारत एक प्रकार से पारिवारिक युद्ध ही तो था।
कृष्ण ने स्वयं अपने मामा कंस का वध कर, अपने नाना को कारागार से मुक्त करवा कर उन्हें पुनः मथुरा का राज्य प्रदान किया, और निर्लिप्त भाव से रहते हुये कृष्ण ने धर्म की स्थापना कर सदैव सुकर्म को ही बढ़ावा दिया।
कृष्ण का यह स्वरूप समाज सहज स्वीकार नहीं कर पाया, क्योंकि इससे उनके बनाये हुये तथाकथित धर्म-आचरण, जो कि स्वार्थ को बढ़ावा देने वाले थे, उन पर सीधा आघात था। समाज की झूठी मर्यादाओं को खंडित करने का साहस कृष्ण के बाद कोई दूसरा पुरूष नहीं कर पाया, क्योंकि जिस मार्ग पर कृष्ण ने चलना सिखाया, वह अत्यन्त कंटकाकीर्ण तथा पथरीला मार्ग है, और उस पर चलने का साहस वर्तमान तक भी कोई नहीं कर पाया। इन्होंने अपने जीवन में सभी क्षेत्रों को स्पर्श करते हुये वीरता को, कर्मठता को, सत्यता को विशिष्ट स्थान प्रदान किया।
कृष्ण ज्ञानार्जन हेतु सांदीपन ऋषि के आश्रम में पहुँचे, तब उन्होंने अपना सर्वस्व समर्पण कर ज्ञानार्जित किया, गुरू-सेवा की, साधनायें की, और साधना की बारीकियों व अध्यात्म के नये आयाम को जन-सामान्य के समक्ष प्रस्तुत किया। यह तो समय की विडम्बना और समाज की अपनी ही एक विचारशैली है, जो कृष्ण की उपस्थिति का सही मूल्यांकन न कर पाया।
श्रीमद्भगवत् गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जिस प्रकार योग विद्या का उपदेश दिया और उसकी एक-एक शंकाओं का समाधान करते हुये, उसमें कर्त्तव्ययुक्त कर्म की भावना से जाग्रत किया, कृष्ण द्वारा दी गई योग विद्या जिसमें कर्मयोग, ज्ञानयोग, क्रियायोग के साथ-साथ सतोगुण, तमोगुण, रजोगुण का जो ज्ञान दिया, उसी के कारण आज गीता भारतीय जनजीवन का आधारभूत ग्रंथ बन गई है, इसीलिये तो भगवान श्रीकृष्ण को ‘योगीराज’ कहा जाता है।
भगवान श्रीकृष्ण को षोडशकला पूर्ण व्यक्तित्व माना जाता है, और जो व्यक्तित्व सोलह कला पूर्ण हो, वह केवल एक व्यक्ति ही नहीं, एक समाज ही नहीं, अपितु युग को परिवर्तित करने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है, और ऐसे व्यक्तित्व के चिंतन, विचार और धारणा से पूरा जन समुदाय अपने आप में प्रभावित होने लगता है।
सबसे बड़ा योगी तो गृहस्थ होता है, जो अतने बन्धनों को संभालते हुये भी जीवन यात्रा करता है और फिर भी साधना, प्रभु का ध्यान रखता है। जिसने अपने जीवन में कृष्ण को समझ लिया, गीता का ज्ञान अपने जीवन में उतार लिया, तो समझ लीजिये कि वह योगी बन गया, गीता में कृष्ण कहते हैं-
तात्पर्य यह है कि जहाँ कर्म स्वरूप अर्जुन है, वहीं योगी स्वरूप कृष्ण है, वहीं विजय, श्रेष्ठता, श्री एवं नीति है।
श्रीकृष्ण केवल भक्ति स्वरूप ही नहीं, उनके तो जीवन, कर्म, उपदेश, जो गीता में समाहित है, के साथ-साथ नीति-अनीति, आशा-आकांक्षा, मर्यादा-आचरण प्रत्येक पक्ष को पूर्ण रूप से समझ कर अपने भीतर उतारने का साधन है। कृष्ण की नीति, आदर्श एवं मर्यादा का चरम रूप न होकर व्यावहारिकता से परिपूर्ण होकर ही दुष्टों के साथ दुष्टता का व्यवहार तथा सज्जनों के साथ श्रेष्ठता का व्यवहार, मित्र और शत्रु की पहचान किस नीति से किस प्रकार किया जाये, यह सब आज भी व्यावहारिक रूप में है, जिसका ज्ञान हमें श्रीमद्भगवत गीता से प्राप्त होता है।
ऐसे जगद्गुरू महापुरूष की साधना करने से साधक अपने जीवन में गीता के गुण-ज्ञान को अपने भीतर आत्मसात कर अनुकूलता प्राप्त कर सकता है। उसके जीवन में भोग के साथ ही साथ योग का मार्ग भी प्रशस्त होता है। जिसकी पूर्णता के लिये बड़े से बड़ा साधक, योगी, संन्यासी भी प्रयत्न करते है, क्योंकि बिना भोग-योग के मेल से इच्छायें अतृप्त रह जाती है, और यदि एक भी इच्छा रह गयी तो पुनः जन्म-मरण की क्रियाओं से गुजरना ही पड़ेगा।
गीता जयंती के विशेष पर्व पर जीवन की जो भी कुस्थितियाँ, अपूर्णता हैं, उसके निवारण के लिये यह श्रेष्ठतम दिवस है। इसीलिये इस दिवस को साधनात्मक दृष्टि से अत्यन्त श्रेष्ठ माना गया है। क्योंकि सामाजिक जीवन जीने के लिये जिन शक्तियों, गुणों की आवश्यकता है, उसका रहस्य श्रीमद्भगवत गीता में ही है। इस चैतन्य दिवस पर साधना सम्पन्न कर साधक अपनी मनोकामनायें सरलता से पूर्ण करने में समर्थ होते हैं। साथ ही इस दिवस पर जीवन की कालिमा को समाप्त कर प्रकाश से ओत-प्रोत हुआ जा सकता है, अर्थात् ज्ञान में अग्रणी बना जा सकता है।
गीता जयंती 11 दिसम्बर 2024, को या किसी भी शुक्रवार को ये साधना सम्पन्न की जा सकती है।
सबसे पहले अपने दाहिने हाथ में जल लेकर कृष्ण पूजन में दिया संकल्प करें, गुरू-पूजन, गणपति पूजन करें और उसके पश्चात् न्यास सम्पन्न करें।
ऊँ विष्णु र्विष्णु र्विष्णुः श्रीमद्भगवतो विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अस्य ब्रह्मणो द्वितीय परार्द्वे श्वेत वाराह कल्पे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तै देशान्तगते पुष्य क्षेत्रे कलियुगे, कलि प्रथम चरणे अमुक गोत्रोत्पन्नोऽहं (अपना गोत्र बोलें) अमुक शर्माऽहं (अपना नाम बोलें) सकल दुःख दारिद्रय निवृत्तिमम मनोकामना पूर्ति निमित्तं कृष्ण सिद्धि प्राप्ति निमित्तं च पूजनं करिष्ये।।
शिरसि ब्रह्मणे ऋषये नमः। मुखे गायत्रीछन्दसे नमः। हृदि श्रीकृष्णाय देवतायै नमः।।
गुह्यै क्लीं बीजाय नमः। पादयोः स्वाहा शक्तये नमः।
ह्रीं श्रीं क्लीं अंगुष्ठाभ्यां नमः। कृष्णाय तर्जनीभ्यां स्वाहा। गोविन्दाय मध्यमाभ्यां वषट्।
गोपी-जन अनामिकाभ्यां हुं। वल्लभाय कनिष्ठाभ्यां वौषट्। स्वाहा करतल कर पृष्ठाभ्यां फट्।।
अस्य मंत्रस्य नारद ऋषिः, गायत्री दन्दः, श्रीकृष्णो देवता, क्लीं बीजम्, स्वाहा शक्तिः,
चतुर्विध पुरूषार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगः।
स्मरेद् वृक्ष वने रम्ये मोहयंतमनारतम्।
गोविन्द पुण्डरीकाक्षं गोपकन्याः सहस्त्रशः।।
आत्मनो वदनां भोज प्रेणिताक्षिमधुव्रताः।
पीड़िता कामबाणेना विरामा श्लेषणोत्सुकाः।
अपने सामने किसी बाजोट पर श्रीकृष्ण यंत्र, योग-भोग प्रदायक जीवट व सर्व कला शक्ति माला स्थापित कर, पंचोपचार पूजन करें। फिर योग-भोग प्रदायक मंत्र का 11 माला जप करें।
मंत्र जप के पश्चात् यंत्र को होलीका पर्व तक स्थापित रहने दें, और अन्य सभी सामग्री को जल में विसर्जित कर दें।
होलीका पर्व तक नित्य यंत्र के सम्मुख 5 मिनट तक त्राटक करें। होलीका पर यंत्र को भी जल में प्रवाहित कर दें।
यह साधना सांसारिक मानव जीवन के लिये रामबाण है, जिसके माध्यम से जीवन की अधिकांश इच्छाओं को पूर्ण किया जा सकता है और योगमय जीवन की प्राप्ति करता है।
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