आदि ग्रंथ वेदों की रचना का उद्देश्य मनुष्य को परमात्मा परम ब्रह्म तत्व से साक्षात्कार कराना और मनुष्य के जीवन में हर समय सात्विक तत्व जाग्रत करना था जिसमें ऋषियों, मुनियों ने अपना ज्ञान, अपना अनुभव भी सम्मिलित किया है। ये ऋषि मुनि आदर के योग्य है, जो वास्तविक रूप में जीवन में उस स्थिति को प्राप्त कर चुके थे, जिसमें सांसारिक तत्वों से लगाव समाप्त हो जाता है। लेकिन वास्तव में जीवन तो बहुत ही ऊबड़-खाबड़ एवं कष्टप्रद मार्ग की भांति है, उसे तो भली भांति पार करना ही है, अन्यथा जीवन की क्या सार्थकता है? इसी कारण तंत्र विधान की रचना हुई क्योंकि तंत्र में जीवन की समस्याओं, बाधाओं से मुक्ति पाने का विधान था, मूल ग्रंथों में जिस रूप में प्रयोग दिये गये हैं, उसी रूप में सम्पन्न करने से ही अनुकूलता प्राप्त होती है। मूल ग्रंथ आज बहुत कम साधुओं के पास है और उनमें से अधिकतर तंत्र विद्या के दुष्प्रयोग के डर से इन ग्रंथों को समाज के सामने प्रस्तुत नहीं कर रहे हैं।
बंगाल के महान तांत्रिक के पास 600 से 700 वर्ष पुराना ग्रंथ जिसमें तंत्र की सभी प्रकार की प्रयोग-साधना है, जिसमें भूत-प्रेत सिद्धि, आकर्षण, रसायन विद्या, बुद्धि-वृद्धि, आयु-वृद्धि, निधि-दर्शन, संतान उत्पत्ति, यक्षिणी साधना, बाधा हरण प्रयोग, कामना पूर्ति प्रयोग, स्तम्भन मोहन, वशीकरण, विष बाधा निवारण, गर्भ स्तम्भन, मारण प्रयोग के अतिरिक्त रति क्रियाओं से सम्बन्धित प्रयोग भी सम्मिलित है, वास्तव में यह तंत्र का सम्पूर्ण ग्रंथ कहा जा सकता है।
इन सभी साधनाओं में विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का, वनस्पतियों का, यंत्रों का प्रयोग किया गया है, साथ ही मंत्र सिद्धि पर भी विशेष जोर दिया गया है। अतः साधक को पूर्ण विधि से ही साधना करनी चाहिये, कुछ साधनाओं में विशेष सावधानी रखनी आवश्यक है, जैसे मारण प्रयोग व्यक्ति को तभी सम्पन्न करना चाहिये जब उसके स्वयं के प्राणों का संकट आ जाये, साथ ही वशीकरण प्रयोग भी अपने श्रेष्ठ कार्य की सिद्धि हेतु करना चाहिये, तथा उच्चाटन प्रयोग, उस पर करना चाहिये जिस शत्रु ने पुत्र हानि, धन-हानि, पहुँचाई हो अथवा गृह और भूमि छीन ली हो, यक्षिणी साधना में लिखा है कि इस साधना से प्राप्त धन को श्रेष्ठ कार्यों में ही लगाना चाहिये, बुरे कार्यों में साधना एवं सिद्धि से प्राप्त धन का दुरूपयोग करने से सिद्धि और बुद्धि दोनो नष्ट हो जाती है।
तंत्र साधना के सम्बन्ध में अपने प्रयोगों और साधना की जानकारी किसी को भी नहीं देनी चाहिये, कब साधना कर रहे है, क्या साधना कर रहे हैं, तथा क्यों कर रहे हैं, इसकी जानकारी अपने निकटस्थ से निकटस्थ को भी नहीं देनी चाहिये। अर्थात् साधना को पूर्ण गुप्त ही रखना चाहिये और भक्तिहीन, आस्थाहीन व्यक्ति को इस विद्या का ज्ञान दान नहीं करना चाहिये।
दत्तात्रेय तंत्र साधना मूल रूप से शिव साधना है और साधक कितना ही प्रयोग करे, जब तक शिव कृपा नहीं होगी तब तक उसे प्रयोगों में सफलता नहीं मिल सकती। अतः दत्तात्रेय तंत्र साधक को सर्वप्रथम शशि शेखर शिव पूजा सम्पन्न करनी आवश्यक है, सभी प्रयोगों में मंत्र सिद्ध प्राण प्रतिष्ठा युक्त शिव सिद्धि माला व शिव सिद्धि दत्तात्रेय महायंत्र स्थापित करना आवश्यक है। यह यंत्र तांत्रोक्त विधि से अभिमंत्रित तथा उत्कीलित किया हुआ होता है, इस कारण साधक को अपने प्रयोगों में न्यास तथा उत्कीलन प्रयोग नहीं सम्पन्न करना पड़ता।
सबसे पहले शुद्ध वस्त्र धारण कर पूजा स्थान में शिव चित्र और गुरू चित्र स्थापित करें। तत्पश्चात् अपने सामने एक पात्र में इस शिव सिद्धि दत्तात्रेय महायंत्र को स्थापित कर दें। इस महायंत्र को जल स्नान, दुग्ध स्नान तथा पंचामृत स्नान सम्पन्न कराकर साफ कपड़े से पौंछ कर दूसरे पात्र में स्थापित कर इस पर चन्दन, केसर, बिल्व पत्र, भांग, धतूरा इत्यादि अर्पित करें, फिर अपने हाथ में जल ले कर निम्न संकल्प पढ़ें-
ऊँ अस्य श्री दत्तात्रेय तंत्र मंत्रस्य मम् (अपना नाम, गोत्र) अभीष्ट कार्य सिद्धयर्थे शशिशेखर देवः अनुष्टृप् छन्दः ह्रीं बीज स्वाहा शक्ति प्राप्ति मंत्र सिद्धि अहं करिष्ये।
शिव मंत्र ‘ह्रीं ऊँ नमः शिवाय ह्रीं’ का जप कर मूल साधना प्रारम्भ करें।
दत्तात्रेय तंत्र विधान के अन्तर्गत साधक को अलग-अलग कार्यों हेतु अलग-अलग त्रिलोह पवित्री धारण करना आवश्यक है, त्रिलोह पवित्री का निर्माण एक विशेष प्रक्रिया द्वारा विशेष मुहूर्त में ही किया जाता है, यह अष्टधातु का बना एक छल्ला होता है, जिसमें प्रत्येक धातु का अंश निश्चित रूप से होना आवश्यक है। इसका निर्माण केवल शुक्ल पक्ष में पड़ने वाले रविवार युक्त पुष्य नक्षत्र अथवा गुरूवार युक्त पुष्य नक्षत्र को ही किया जाता है और उस विशेष मुहुर्त में इसको दत्तात्रेय मंत्रों से अभिमंत्रित किया जाता है, दत्तात्रेय तंत्र में लिखा है-
धारायित्वा पवित्रीं तू त्रिलोहे च विशेषतः।
सर्वकर्माणि सिद्धियंति महासिद्धिं लभेत् नरः।
महाबलो महातेजो जायते सः न संशय।।
अर्थात् जो साधक दत्तात्रेय तंत्र सिद्ध त्रिलोह पवित्री अपने हाथ में धारण कर लेता है, वह सब प्रकार के कार्यों में सिद्धि प्राप्त कर महाबल तथा महातेज प्राप्त करने में समर्थ रहता है।
त्रिलोह पवित्री का निर्माण और उसे अभिमंत्रित करना एक जटिल प्रक्रिया है। सर्वप्रथम इसे रूद्र तंत्र प्रयोग से, फिर मंगलवार को दत्तात्रेय तंत्र कल्प मंत्रों से, बुधवार को राधा तंत्र प्रयोग से, शुक्रवार को सुर-सुन्दरी तंत्र से तथा शनिवार को काली चण्डीश्वरी तंत्र प्रयोग से सिद्ध किया जाता है। प्रत्येक कार्य पूर्ण विधि-विधान सहित होना आवश्यक है तभी यह त्रिलोह पवित्री पूर्ण फलदायक रहती है।
पूज्य सद्गुरूदेव जी के निर्देशन में उच्चकोटि के तंत्र विशेषज्ञों द्वारा कुछ विशेष त्रिलोह पवित्री मुद्रिकायें तैयार की गयी है, इसमें प्रत्येक प्रयोग अर्थात् आकर्षण, उच्चाटन, वशीकरण, स्तम्भन, मोहन, निधि-दर्शन, विवाद विजय, भूतादि बाधा निवारण हेतु अलग-अलग त्रिलोह पवित्री है। एक कार्य के लिये प्रयुक्त त्रिलोह पवित्री का प्रयोग दूसरे कार्य हेतु नहीं करना चाहिये।
पूजा विधान के अन्तर्गत जो पूजा लिखी है, वह पूजन पूर्ण कर साधक अपने हाथ में विशेष त्रिलोह पवित्री धारण कर मंत्र जप कार्य सम्पन्न करें, प्रत्येक कार्य के लिये अलग-अलग मंत्र, मंत्र संख्या निश्चित है।
यह साधना किसी भी सोमवार के दिन सम्पन्न कर सकते हैं। इसमें आकर्षण त्रिलोह पवित्री का उपयोग करना है। अब निम्न मंत्र का सात माला मंत्र जप करें-
यह साधना किसी भी शुक्रवार को सम्पन्न कर सकते हैं। इस साधना में मोहिनी त्रिलोह पवित्री उपयोग करें और निम्न मंत्र की 11 माला मंत्र जप सम्पन्न करें-
साधक इस साधना को रविवार के दिन सम्पन्न करें। इस साधना में ग्रह पीड़ानाश त्रिलोह पवित्री का उपयोग करना है। इस साधना हेतु एक माला मंत्र जप करें-
किसी भी मंगलवार को यह साधना सम्पन्न कर सकते हैं। इसके लिये उच्चाटन त्रिलोह पवित्री का उपयोग करें। इस साधना हेतु निम्न मंत्र की एक माला मंत्र जप करें-
यह साधना आप किसी भी शनिवार को कर सकते हैं। इस हेतु आप जया त्रिलोह पवित्री को उपयोग करें। निम्न मंत्र की एक माला मंत्र जप सम्पन्न करें-
ऊपर लिखी सभी साधनाओं के अतिरिक्त भी अन्य साधना सम्पन्न की जा सकती है, प्रत्येक प्रयोग के लिये मंत्र तथा जप संख्या अलग-अलग है और अलग-अलग दत्तात्रेय त्रिलोह पवित्री धारण करनी आवश्यक है।
दत्तात्रेय तंत्र तो एक प्रकार से सभी तंत्रों का सार स्वरूप ही है, इस प्रत्यक्ष अनुभव को साधक इन तंत्र साधनाओं को सम्पन्न कर स्वयं अनुभव कर सकते हैं।
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