साधनाओं के मूल रूप से तीन स्वरूप है, वीर भाव साधना, भक्ति भाव साधना व प्रेम भाव साधना। देवताओं के पूजन में सामान्य तौर पर साधक भक्ति भाव का प्रयोग करता है। वीर भाव साधना में साधक अपने अधिकारों की पूर्ति हेतु आह्वान करता है, वहीं प्रेम भाव में अपने आपको उस देवी शक्ति से जोड़ देता है, अपने सम भाव पर स्थापित कर लेता है। यह साधना सरल और सुन्दरतम स्वरूप वाली साधना है।
आदिशक्ति देवी से शिव का प्रादुर्भाव हुआ और शिव तथा शक्ति के संयोग से कुछ विशेष शक्तियाँ उत्पन्न हुई, जिनमें शिव भाव भी था, शक्ति-भाव भी था और इन शक्तियों की रचना महान मिलन के कारण हुई थी, जिसका आधार आनन्द तथा दिव्य भाव था। इसीलिये इन विशिष्ट शक्तियों में रूप और सौन्दर्य के तीव्रतम स्वरूप प्रगट हुए, और इनके गुणों में, इनके प्रभाव में जहाँ शिव भाव जाग्रत रहा, वहीं शक्ति भाव तो साक्षात रूप से था ही।
‘आनन्द भैरवी’ का स्वरूप अल्हड़ नदी की भांति है, क्योंकि इसमें शिवत्व है, निश्चिन्तता है, प्रसन्नता का मीठा जल तत्व है, दूसरी ओर इसमें देवी के सौन्दर्य का प्रत्येक अंश पूर्ण रूप से विद्यमान है, शारीरिक दृष्टि से यह सर्वांग-सम्पूर्ण है। ‘रूद्रयामल तंत्र’ में लिखा है, कि कलियुग में साधक तो अपने स्वार्थ स्वरूप, अपनी सांसारिक कामनाओं की पूर्ति हेतु साधना करता है, उसे शिव तक आने की क्या आवश्यकता है, आनन्द भैरवी शिव का अर्द्धनारीश्वर स्वरूप है, अतः जो साधक इसे सिद्ध कर लेता है, उसके साथ आनन्द भैरवी पूर्ण रूप से जुड़ जाती है। उसे तो मेरे स्वरूप ‘आनन्द भैरवी’ में ही वे सभी सांसारिक सुख प्राप्त हो जाते हैं।
आदिशक्ति देवी की साधना करते समय साधक एक भक्ति भाव, समर्पण भाव, निवेदन भाव, दिव्य भाव रखता है। वहीं आनन्द भैरवी की साधना प्रेम भाव साधना है, जिसमें उसे अपनी प्रिया, अपने मित्र रूप में सिद्ध किया जा सकता है। जब प्रिया रूप से कोई किसी को अपनाता है, तो वह उससे भेद नहीं रखती, साधक की सारी न्यूनताओं को समाप्त कर देती है और इच्छाओं के द्वार खोल देती है। साथ ही आनन्द भैरवी सहयोगी बनती है, हर क्षण उन सभी क्रियाओं को पूर्ण रूप से सम्पन्न कराने में, क्योंकि इसमें सिद्धि प्राप्त साधक प्रियतम बन जाता है और प्रिया का तो कर्त्तव्य है कि उसका प्रियतम हर दृष्टि से पूर्ण हो, उसके जीवन में आनन्द ही आनन्द हो, वह श्रेष्ठतम बन सके।
खुले लहराते लम्बे केश, स्वर्ण के रंग समान दीप्ति देता हुआ चेहरा, जिसमें अलसाये से आनन्द तृप्ति भाव लिये बड़े नेत्र, दृष्टि में कामन भाव, थोड़े मोटे अधखुले होंठ, शरीर में बल, ठोस संरचना, केवल एक अधोवस्त्र धारण किये हुये। आनन्द भैरवी का स्वरूप कैलाश कन्या का स्वरूप है, जिसमें शुद्धता, निश्छलता और प्रेम रस से सराबोर व्यक्तित्व है।
जब साधक शक्ति को प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है, तभी तो उसके जीवन में आनन्द का सागर लहरा सकता है और आनन्द भैरवी की साधना शक्ति और आनन्द दोनों का संयुक्त स्वरूप है। पीड़ा चाहे मन की हो अथवा तन की, पीड़ा का प्रभाव पूरे व्यक्तित्व पर, उन्नति पर, कार्यों पर पड़ता है। आनन्द भैरवी साधना जिसे प्रिया रूप में सिद्ध हो जाती है, उस साधक के मन तथा तन दोनों की पीड़ाओं का पूर्ण रूप से नाश हो जाता है और उसके जीवन में आर्थिक दृष्टि से विशेष स्थिति प्राप्त होती है, जिससे वह जीवन के हर रूप का आनन्द ले सके। आनन्द भैरवी तो सरल, निश्छल, समर्पित, व्यग्र, इच्छावान साधक को ही स्वीकार करती है।
आनन्द भैरवी साधना पूर्ण रूप से सिद्ध हो जाने के पश्चात्, किसी भी संकट के समय, किसी भी कार्य के समय साधक ध्यान करता है, तो तत्काल उपस्थित होती है और साधक को उस समस्या का समाधान प्रदान करती है।
आनन्द भैरवी साधना से तीन शक्तियाँ- कर्म शक्ति, इच्छा शक्ति और ज्ञान शक्ति पूर्ण रूप से जाग्रत हो जाती है, जिससे साधक अपने जीवन में, प्रत्येक कार्य सरलता से सम्पन्न कर सकता है।
आनन्द भैरवी साधक के जीवन से भय शब्द ही हटा देती है, जिससे साधक को राजकीय बाधा-भय, शत्रु भय, विश्वासघात भय की चिन्ता ही नहीं रहती। शत्रु तो सहयोगी अथवा दास बन जाते हैं।
सांसारिक व्यक्ति का लक्ष्य जीवन के प्रत्येक सुख की प्राप्ति है। आज प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन को पूर्णता से भोगना चाहता है, सुख ग्रहण करना चाहता है, उसके लिये आनन्द भैरवी साधना सर्वोत्तम साधना है।
भैरवी साधना में साधक को दृढ़ संकल्पवान बनना पड़ता है कि मैं हर हालत में, हर स्थिति में आनन्द भैरवी सिद्धि प्राप्त कर के ही रहूंगा, इस साधना में दीन-हीन भाव, याचना उचित नहीं है। भैरवी साधना की सिद्धि ‘शिव और शक्ति’ दोनों की ही सिद्धि है।
भैरवी साधना शांत मन से, हृदय में सुन्दर भावों को स्थिर कर, प्रसन्न मन से, एकान्त स्थान में सम्पन्न करनी चाहिये, जहाँ साधना के समय किसी प्रकार का विघ्न न हो, साधक का मन बार-बार भटके नहीं।
भैरवी साधना में मूल रूप से चार पात्र विशेष रूप से आवश्यक है। साधक चार कटोरी लें, प्रत्येक पात्र की अलग-अलग पूजा है। इसके अतिरिक्त आनन्द भैरवी यंत्र, शिव-दुर्गा लॉकेट, शिव-लक्ष्मी श्री कवच, पूर्णमति मुद्रिका, चार भैरव बीज और हकीक माला आवश्यक है।
यह साधना मूल रूप से चार शुक्रवार को अथवा चार अष्टमी को सम्पन्न की जाती है।
साधना दिवस के दिन साधक लाल वस्त्र धारण करें, साथ ही लाल आसन का प्रयोग करें। यह साधना रात्रि का प्रथम प्रहर बीत जाने के पश्चात् अर्थात् 10 बजे के बाद प्रारम्भ करें। इन चार पात्रों के अलावा एक जल से भरा पात्र, चावल, घिसा हुआ चन्दन तथा चौथे पात्र में तुलसी पत्र मिश्रित जल रखें, चारों पात्रों को क्रमशः अलग-अलग चावल की ढेरी बनाकर उस पर स्थापित करें। सर्वप्रथम संकल्प करें। ‘ ऊँ गुरूभ्यो नमः’ से गुरू का ध्यान तथा ‘ऊँ गं गणपतयै नमः’ से गणेश का ध्यान कर इष्ट देवता को प्रणाम करें, साधना प्रारम्भ करने की आज्ञा प्राप्त करें। ताम्र पंचपात्र में रखे जल से सब पात्रों की शुद्धि करें और इन पात्रों में आवश्यक द्रव्य भरें।
प्रथम पात्र में शहद, दूसरे पात्र में दूध का मिष्ठान, तीसरे पात्र में मीठा शर्बत, चौथे पात्र में ऋतु फल का रस थोड़ी-थोड़ी मात्रा में डालें। पूजन क्रम प्रारम्भ करने के साथ ही आनन्द भैरवी का ध्यान करें-
ये चार पात्र आनन्द, रूप, रस और काम के स्वरूप है। सर्वप्रथम, प्रथम पात्र का पूजन कर चन्दन अर्पित करे और ‘आनन्द भैरवी यंत्र’ डाल दें, अब पुष्प चढ़ायें तथा धूप और दीप दिखायें तथा अपने पास रखे हुये चार भैरव बीजों को हाथ में लेकर दो माला निम्न मंत्र का जप करते हुये एक-एक बीज अलग-अलग पात्र के सामने अर्पित करें।
अब दूसरे पात्र जिसमें दूध का मिष्ठान रखा हुआ है, उसमें ‘शिव-लक्ष्मी श्री कवच’ डालें फिर उसका पूजन कर दो माला निम्न मंत्र जप करें और थोड़े चावल अर्पित करें।
अब साधना का तीसरा क्रम रसपात्र साधना है, इसमें भी ऊपर लिखे विधानों की तरह ही तीसरे पात्र में शिव-दुर्गा लॉकेट डालें फिर सुपारी को पात्र के सामने दो माला निम्न मंत्र जप करते हुये अर्पित करें।
अब काम पात्र का पूजन कर उसमें ‘पूर्णमति मुद्रिका’ डाल दें फिर अपने भावों को अर्पित करते हुये निम्न मंत्र की दो माला जप करें-
जब यह क्रम पूरा हो जाये तो आनन्द भैरवी का ध्यान करते हुये, अपनी इच्छाओं को स्पष्ट रूप से प्रकट करते हुये क्रमबद्ध रूप से पात्र में रखा हुआ द्रव्य स्वयं चरणामृत स्वरूप में थोड़ा ग्रहण कर लें। बाकी द्रव्य गुरू का तथा गणपति का ध्यान करते हुये तुलसी या पीपल पेड़ में अर्पित कर दें।
जब साधक उसी स्थान पर नेत्र बन्द कर निश्छल हो कर आनन्द भाव से थोड़ी देर बैठा रहे, इस समय कुछ विशेष अस्पष्ट दृश्य दिखाई देते हैं, एक मार्ग दिखाई पड़ने लगता है, किसी साधक को वन-उपवन दिखाई देता है, किसी को कोई सौन्दर्य स्वरूप दिखाई देता है, इससे यह निश्चित होता है, कि साधना सही दिशा की ओर अग्रसर है।
साधना का यह क्रम चार शुक्रवार तक करें, प्रत्येक शुक्रवार को सामग्री वही रखनी है, पात्र वही रखने है, सभी सामग्री को पुनः धोकर प्रयोग में लायें। तीसरे शुक्रवार तक स्थिति ऐसी बनने लगती है, कि साधक यह अनुभव करता है, कि वह साधना में अकेला नहीं बैठा है, कोई उसके पीछे खड़ी है, कुछ ध्वनियां सुनाई देने लगती है, एक सुगन्धित, आनन्दमय वातावरण होने लगता है। चौथे शुक्रवार को साधना पूर्ण होते-होते साक्षात् आनन्द भैरवी अपने समस्त सौन्दर्य भाव के साथ प्रकट होती है। उस समय साधक अपने प्रिया रूप में बनाने हेतु वचन बोले, भैरवी साधक का प्रस्ताव स्वीकर करती है और उसे इच्छित वर देती है।
इसके बाद जब भी साधक अपने किसी कार्य से, अपनी इच्छा हेतु आनन्द भैरवी का ध्यान करता है तो भैरवी तत्काल उपस्थित होती है। यह साधना वास्तव में तंत्र साधना की ऐसी विशिष्ट साधना है, जिसे हर साधक अपने जीवन को पूर्ण रूप से सुखी, भावमय बनाने के लिये सम्पन्न कर सफलता प्राप्त कर सकता है।
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,