शिष्य जब भी गुरू के निकट जाये, तो हर क्षण सतर्क रहे, सजन रहे, क्योंकि गुरू के देह से निःसृत होने वाली रश्मियां भी शिष्य के ताप-त्रय का हरण करने में पूर्ण सक्षम होती है। उनके दर्शन करते समय जितना ही शिष्य प्रबुद्ध और सजग रहेगा, उतना ही कृतार्थ होता चला जायेगा।
गुरू मंत्र और गुरू साधना का अनुष्ठान करने से हृदय शनैः शनैः पावन हो जाता है, मृत्यु भय एवं अन्य सांसारिक भय समाप्त हो जाते हैं। प्रत्येक शिष्य को गुरू मंत्र का अनुष्ठान एवं गुरू साधना अपने जीवन में करनी ही चाहिये।
यह शरीर मल-मूत्र, दुर्गन्ध, लार, थूक, मांस-मज्जा, हड्डी के अलावा कुछ नहीं है, इसीलिये इस शरीर पर गर्व न करते हुये या शरीर से उपार्जित यश, ख्याति पर गर्व न करते हुये श्री गुरू चरणों में उपस्थित होना ही शिष्य की सार्थकता है। तभी वह गुरूत्व के रहस्य से परिचित हो सकता है।
सद्गुरू का विग्रह शिव के विग्रह के समान है, गुरू का चिन्तन शिव चिन्तन है, गुरू आरती जगदीश्वर की आरती है, गुरू पूजन ही इष्ट पूजन है और गुरू में ही सभी देवी-देवताओं का वास है, ऐसा उच्च चिन्तन धारण करने में शिष्य का कल्याण है।
सद्गुरू के चरण कमल का एक रज-कण भी संसार सागर से पार उतार सकने में पूर्ण सक्षम है, गुरू चरणों की धूल ही सर्वस्व प्रदान करने में समर्थ है, शिष्य को मन में इसी प्रकार का भाव रखना चाहिये।
ब्रह्मरंध्र अर्थात सहस्त्रार के मध्य में स्थित चन्द्र मण्डल में श्वेत कमल पर विराजमान सद्गुरूदेव के दोनों चरण कमलों का शिष्य को ध्यान करना चाहिये। इससे उसके पाप-संताप समाप्त होते है तथा कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होती है।
यदि शिष्य के मन में यह अहंकारी भाव है कि मैं एक श्रेष्ठ जाति में उत्पन्न हुआ हूँ, मै बहुत धनाढय हूँ, मैं बहुत ऐश्वर्यवान हूँ, मेरा परिवार बहुत सुप्रतिष्ठित है, मेरा यश बहुत फैला हुआ है, या मैं बहुत विद्वान हूँ आदि तो उसे गुरू के सम्मुख उपस्थित नहीं होना चाहिये। इन भावों को तिरोहित कर ही गुरू कृपा प्राप्त की जा सकती है।
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