दृष्टि दो प्रकार की होती हैं। एक गुणग्राही दृष्टि और दूसरी छिद्रान्वेषी दृष्टि। गुणग्राही व्यक्ति खूबियों को देखता है और छिद्रान्वेषी खामियों को देखता है। गुणग्राही व्यक्ति महत्व देता है व्यक्ति के सद्गुणों को, वहीं इसके विपरित छिद्रान्वेषी व्यक्ति सामने वाले के अवगुणों-कमियों को ध्यान देता है। गुणग्राही कोयल को देखता है तो कहता है कितना प्यारा बोलती है, और वहीं दूसरी ओर छिद्रान्वेषी व्यक्ति कोयल को देखकर कहता है कि कितनी बदसूरत दिखती है। गुणग्राही मोर को देखता है तो कहता है कितना सुन्दर है, उसके विपरित छिद्रान्वेषी देखता है तो कहता है कि कितनी भद्दी आवाज है कितने रूखे पैर हैं। गुणग्राही गुलाब के पौधे को देखकर कहता है कैसा अद्भुत सौन्दर्य है, कितने सुन्दर पुष्प खिले हैं और छिद्रान्वेषी व्यक्ति देखता है तो कहता है कि कितने तीखे कांटे हैं इस पौधे में। यह मात्र दृष्टि का फर्क है जो गुणों को देखता है, वह बुराइयों को नहीं देखता, और जो बुराइयों पर नजर रखता है उसे सद्गुण दिखाई नहीं पड़ते।
महाभारत के समय का प्रसंग है, एक बार द्रोणाचार्य ने अपने ज्येष्ठ शिष्य युधिष्ठिर से कहा पुत्र! एक काम करो नगर में जाओ और एक बुरे व्यक्ति को खोज कर ले आओ, ताकि उसे भी आपकी तरह अच्छा बनाया जा सके। गुरू की आज्ञा शिरोधार्य कर युधिष्ठिर गया नगर की ओर, लेकिन शाम को थका हुआ निराश अकेला लौट आया। गुरू से कहा गुरूदेव! क्षमा करें! मैं आपकी आज्ञा का पालन करने में असफल हुआ हूँ, क्योंकि मुझे सारा नगर छानने के बाद भी कोई बुरा व्यक्ति नहीं मिला। गुरू ने कहा कोई बात नहीं है, चिंता मत करो।
दूसरे दिन गुरू ने दुर्योधन से कहा बेटा नगर में जाओ और एक अच्छे व्यक्ति को खोज कर ले आओ, ताकि उसका सम्मान किया जा सके। शाम को दुर्योधन अकेला निराश लौट आया, कहा गुरूदेव क्षमा करो! मैं दिन भर नगर में घूमा लेकिन मुझे एक भी अच्छा व्यक्ति नहीं मिला। यह आदमी की दृष्टि का फर्क है, यदि युधिष्ठिर को उसी नगर में बुरा व्यक्ति नहीं मिलता है, तो दुर्योधन को अच्छा व्यक्ति नहीं मिलता है। व्यक्ति वे ही है दृष्टि की अपेक्षा से वह अच्छे-बुरे हैं। अच्छे व्यक्ति को हम देखते हैं तो खुद में अच्छा अनुभव करते हैं और अच्छे हो जाते हैं, इसके विपरित बुरे व्यक्ति को देखते हैं, तो बुरे हो जाते हैं। हम जैसे होंगे वैसा ही दूसरे में तलाश लेंगे, वैसा ही दूसरों को देंखेंगे।
कबीर ने बहुत कोशिश की बुरे व्यक्ति को खोजने की। गली-गली गाँव-गाँव खोजते रहे परन्तु उन्हें कोई बुरा व्यक्ति न मिला मालुम है क्यों? क्योंकि कबीर भले व्यक्ति थे। भले व्यक्ति को बुरा व्यक्ति कैसे मिल सकता है? मिल ही नहीं सकता है। ‘कबीर ने कहा बुरा जो खोजन में चला बुरा न मिलीया कोय। जो दिल खोजा अपना मुझसे बुरा न कोय।।’ कबीर अपने आपको बुरा कह रहे हैं, यह एक अच्छे व्यक्ति का परिचय है। क्योंकि अच्छे व्यक्ति स्वयं को बुरा और दूसरों को अच्छा कह सकता है। बुरे व्यक्ति में यह सामर्थ नहीं होता, वह तो आत्म प्रशंसक और पर निंदक होता है। वह कहता है ‘भला जो खोजन में चला भला न मिलया कोय। जो दिल खोजा अपना मुझसे भला न कोय।।’
ध्यान रखना जिसकी निंदा, आलोचना करने की आदत हो गई है, दोष ढूंढने की आदत पड़ गई है, वे हजार गुण होने पर भी दोष ढूंढ (निकाल) लेते हैं। और जिनकी गुण ग्रहण की प्रकृति है, वे हजार अवगुण होने पर भी गुण देख ही लेते हैं। क्योंकि सृष्टि में ऐसी कोई भी चीज नहीं जो पूरी तरह से गुण सम्पन्न हो, या पूरी तरह से गुण हीन हो। एक न एक गुण या अवगुण सभी में होते हैं मात्र ग्रहणता की बात है कि आप क्या ग्रहण करते हैं गुण या अवगुण।
इस प्रकार समझे, हमारे घरों में अनाज को साफ करने के लिये दो चीजे होती है। एक चलनी और दूसरी सूपड़ा। दोनों अनाज की सफाई करते हैं परन्तु दोनों के तरीकें बिल्कुल अलग-अलग होते हैं। चलनी सार-सार को अपने छिद्रों के नीचे गिरा देती है और निस्सार कचरे को अपने पास रख लेती है। जबकि सूपड़ा कचरे को उड़ा देता है और सार तत्वों को, अनाज को अपने पास रख लेता है। चलनी और सूपड़ा दोनों अच्छे उपदेशक है। सूपड़ा यदि गुण ग्रहण का संदेश देता है, तो चलनी कहती है छिद्रान्वेषी मत बनना अन्यथा मेरी तरह कचरे को ही इक्ट्ठा करते रह जाओगे और फिर मेरी तरह का ही आपका जीवन भी खाली का खाली रह जायेगा। अतः अपने जीवन को कचरे से नहीं गुणों के रत्नो से भरें, क्योंकि रत्न ही शोकेस में सजाये जाते हैं कंकर-पत्थर नहीं। खामियाँ देखने वाले कंकर, पत्थर के ढेर लगा लेते हैं तो खूबियाँ देखने वाले जीवन को गुणों से समृद्ध बना लेते हैं।
मूलतः यह प्रश्न सभी के चिन्तन में होता है कि कुछ लोग दूसरे की कमी क्यों देखते हैं? जिसका स्पष्ट सा उत्तर है कि व्यक्ति अपनी कमी को छिपाने के लिये दूसरों के अवगुणों, कमियों, को देखता है। जैसे लोमड़ी अंगूर तक नहीं पहुँच पाती है तो वह स्वयं को दोष देने की बजाय अंगूरों को दोष देने लगती है, कहती है कि अंगूर खट्टे हैं, अंगूर मैं क्यों खाऊ? खाने की वासना तो है लेकिन अपनी असमर्थता को छुपाने के लिये अंगूर को ही खट्टा बता दिया। ऐसे लोग भी अपनी कमी छुपाते-छुपाते दूसरों की कमी देखने के आदि हो जाते हैं। तुलसीदास जी ने कहा है ‘‘ जा की रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी’’ अर्थात जिसकी जैसी दृष्टि होती है उसे वैसी ही मूरत नजर आती है।
सस्नेह आपकी माँ
शोभा श्रीमाली
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,