किंतु क्या उनके प्रत्येक आगमन में कोई मूक संदेश भी नहीं निहित होता? इसी की समुचित विवेचना कर रहा है यह लेख इस नृसिंह जयन्ती के अवसर पर………
पौराणिक गाथाओं के अनुसार भगवान ब्रह्मा के दो द्वारपालों ने एक बार भगवान ब्रह्मा की आज्ञा के पालन के क्रम में भगवान ब्रह्मा के चार प्रथम मानस पुत्रों में से एक को भीतर प्रवेश करने से वर्जित कर दिया, जिससे उन्होंने क्रोधयुक्त हो उन दोनों को राक्षस योनि में चले जाने का श्राप दे दिया। बाद में क्रोध शांत होने व वास्तविकता का ज्ञान होने पर उन्होंने द्वारपालों की प्रार्थना पर उन्हें यह वरदान दिया, कि यद्यपि उनका वचन मिथ्या नहीं हो सकता, अतः ये राक्षस योनि में तो जायेंगे ही, किंतु उनका वध स्वयं भगवान विष्णु के हाथों से होने के कारण वे मुक्त होकर परमपद की प्राप्ति कर सकेंगे।
कालांतर में ये दोनों द्वारपाल ही क्रमश: हिरण्याक्ष एवं हिरण्यकश्यप के रूप में आये, जिनके अत्याचारो से सारी धरा ही नहीं देवलोक आदि तक त्राहि-त्राहि कर पड़े, जिन्हें समाप्त करने के लिये भगवान विष्णु ने दो बार अवतार लिये। हिरण्याक्ष को समाप्त करने के लिये शूकर अवतार तथा हिरण्यकश्यप को समाप्त करने के लिये नृसिंह अवतार इसी कारणवश संभव हुये।
पौराणिक गाथाओं की कथात्मक शैली में क्या तथ्य छुपे होते है अथवा क्या वे केवल विशिष्ट घटनाओं का कथात्मक विस्तार भर होती है, यह तो पृथक विवेचना और चिंतन की बात है, किंतु जैसा कि प्रारम्भ में कहा, कि प्रत्येक अवतरण स्वयं में एक संदेश भी निहित रखता है, उसी क्रम में चिंतन करने पर स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है, कि भगवान श्री विष्णु के इस विशिष्ट अवतरण (नृसिंह अवतरण) का भी एक गूढ़ संदेश है और संदेश है, ‘नृ’ अर्थात् मनुष्य को ‘सिंह’ अर्थात् पराक्रमी बनने का संदेश।
यह जीवन का एक सुस्वीकृत तथ्य है, कि केवल इस युग में ही नहीं वरन् प्रत्येक युग में वही व्यक्ति जीवित रह सका है, जिसने जीवन में संघर्ष किया है। जीवन संघर्षो का एक अविराम क्रम होता है तथा इसमें जो क्षण भर चूका, जीवन उसकी प्राण शक्ति का हनन कर देता है और फिर ऐसा व्यक्ति जिसके प्राणों का ही हनन किया जा चुका हो, कोई आवश्यक नहीं, कि जीवित रहते हुये भी वह जीवित व्यक्तियों की श्रेणी में आता हो, क्योंकि केवल श्वास-प्रश्वास के चलते रहने को ही तो जीवन नहीं कहा जा सकता।
वास्तव में जीवन तो उसका कहा जा सकता है, जो अपने जीवन के लक्ष्यों को सिंह की भांति झपट कर प्राप्त करने की क्षमता से युक्त हो। वन्य प्राणियों में सर्वाधिक ओजस्वी पशु सिंह को ही माना गया है, जो अनायास कभी किसी पर हमला करता ही नहीं, किंतु आवश्यकता पड़ने पर अथवा क्रुध हो जाने पर जब वह हुंकार भर कर खड़ा हो जाता है, तो अन्य छोटें-छोटे जानवरों की कौन कहे, मस्त गजराज भी कतरा कर निकल जाने में ही अपनी भलाई समझते है। ऋषियों ने भी पुरूष की इसी ‘सिंहवत्’ रूप में कल्पना की थी। ‘सिंहवत्’ बनना केवल शौर्य प्रदर्शन ही एक घटना नहीं होती वरन् सिंहवत बनना इस कारण से भी आवश्यक है, कि केवल इसी प्रकार का स्वरूप ग्रहण करके ही जीवन की गति को सुनिर्धारित किया जा सकता है, अन्यथा एक-एक आवश्यकता के लिये वर्षो वर्ष घिसट कर उसे प्राप्त करने में जीवन का सारा सौन्दर्य, सारा रस समाप्त हो जाता है।
भगवान विष्णु ने तो एक ही हिरण्यकश्यप को समाप्त करने के लिये नृसिंह स्वरूप में, पौराणिक गाथाओं के अनुसार अवतरण लिया था, किंतु मनुष्य के जीवन में तो प्रतिदिन नूतन राक्षस आते रहते है, जो हिरण्यकश्यप की ही भांति अस्पष्ट होते है, यह अस्पष्ट ही होता कि उनका समापन कैसे संभव हो, उनसे मुक्ति पाने का क्या उपाय हो सकता है। और यह भी सत्य है, कि यदि जीवन में अभाव, तनाव, पीड़ा (शारीरिक, मानसिक, अथवा दोनों), दारिद्रय जैसे राक्षसों से एक-एक करके निपटने का चिंतन किया जाये, तो मनुष्य की आधी से अधिक क्षमता तो इसी विचार-विमर्श में निकल जाती है, शेष जो आधी बचती है, वह किसी भी प्रयास को सफल नहीं होने देती। साथ ही जीवन के ऐसे राक्षसों से तो केवल सामान्य प्रयास से ही नहीं वरन् ऐसे क्षमता युक्त प्रयास से जूझना आवश्यक होता है, जो साक्षात नर केसरी की ही क्षमता हो। तभी जीवन में कुछ ऐसा घटित हो सकता है, जिस पर गर्वित हुआ जा सकता है।
सामान्यतः साधना का क्षेत्र अत्यन्त दुष्कर प्रतीत होता है, क्योंकि साधना जीव को वास्तविकताओं का यथावत प्रस्तुतिकरण व विवेचन कर देती है। उसमें भक्ति जगत की भांति दिवास्वप्नों की मधुर लहर नहीं होती है, किंतु अन्ततोगत्वा व्यक्ति का हित, साधना से ही साधित होता है, क्योंकि साधना जीवन की कटु वास्तविकताओं का यथावत वर्णन करने के साथ-साथ उससे मुक्त होने का उपाय भी वर्णित करती चलती है। वस्तु स्थितियों का विवेचन इस कारणवश आवश्यक होता है, जिससे साधक के मन में एक सुस्पष्ट धारणा बन सके, कि अन्ततोगत्वा उसकी समस्या क्या है, किस प्रकार से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है? यहां नृसिंहावतार की संक्षिप्त व्याख्या से भी यही तात्पर्य था और साधको की सुविधार्थ उस साधना विधि का प्रस्तुतिकरण भी किया जा रहा है, जो इस व्याख्या को पूर्णता देने की क्रिया है अर्थात् केवल वर्णन-विवेचन नहीं, वह उपाय भी प्रस्तुत करने का प्रयास है, जिसके माध्यम से कोई भी साधक अपने जीवन को संवारता हुआ, अपनी रग-रग में सिंह की ही लपक और शौर्य को भरता हुआ जीवन की उन समस्याओं पर झपट्टा मार सकता है, जो नित नये स्वरूप में आती रहती है तथा यह भी जीवन का एक कटु सत्य है, कि जब तक जीवन रहेगा तब तक समस्याएं भी आयेगी ही, लेकिन जो साधक दृढ़ निश्चयी होते है, जिनके मन में सर्वोच्च बनने का भाव हिलोरे ले रहा होता है, वे अवश्यमेव ऐसी साधना सम्पन्न कर अपने जीवन को एक नया ओज व क्षमता देते है, जैसा कि नीचे की पंक्तियों में प्रस्तुत साधना विधि की भावना है।
नृसिंह साधना को मूलरूप में सम्पन्न करने के इच्छुक साधक के पास ताम्रपत्र पर अंकित नृसिंह यंत्र व नृसिंह माला आवश्यक उपकरण के रूप में होनी चाहिये। यह साधना नृसिंह जयन्ती 11 मई अथवा किसी भी रविवार की रात्रि में सम्पन्न की जा सकती है। साधक इसमें वस्त्र आदि का रंग काला रखें तथा दिशा दक्षिण की ओर मुख करके हो। यंत्र व माला का सामान्य पूजन कुंकुंम, अक्षत, पुष्प की पंखुड़ियों से कर तेल का एक बड़ा दीपक लगा दे व निम्न मंत्र की इक्यावन (51) मालायें ‘नृसिंह माला’ से दत्तचित भाव से करें-
साधक यह मंत्र जप दो बार में भी सम्पन्न कर सकते है, अर्थात् एक बार में इक्कीस (21) माला मंत्र जप कर पुनः विश्राम कर इकतीस (31) माला मंत्र जप सम्पन्न करके कर सकते है, किन्तु सम्पूर्ण मंत्र जप एक ही दिन में सम्पन्न हो जाना आवश्यक होता हैं।
मंत्र जप के अगले दिन सभी सामग्रियों को दक्षिण दिशा में जाकर कहीं सुनसान में गड्ढ़ा खोदकर दबा दें तथा घर आकर स्नान कर लें। संभव है मंत्र जप के पश्चात् साधक को आगामी दस-पन्द्रह दिनों तक शरीर में विचित्र से खिंचाव आदि होते महसूस हो, किंतु ये सभी साधना में सफलता के विशेष लक्षण होते है।
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