आपके जीवन को परिपूर्णता देने के लिये और सिद्धाश्रम का रास्ता सुगम बनाने के लिये यह प्रयोग अनिवार्य है। और वहां जोश है, मस्ती है, उमंग है, तरंग है, और शायद आप अनुभव करें तो एहसास कर पायेंगे कि वह जीवन तो देवताओं को भी दुर्लभ है। ब्रह्म वर्चस्व का तात्पर्य है कि हम अपने आप में सम्पूर्ण ब्रह्ममय बन सकें, हमारे जीवन में हास्य भी होना चाहिये, साधना भी होनी चाहिये और जीवन में एक चिंगारी भी होनी चाहिये, एक तेजस्विता भी होनी चाहिये। जीवन के इतने लम्बे इतिहास में हर जगह रूढ़ियों से और परम्पराओं से संघर्ष किया है, उन्हें तोड़ा है, जहां कहीं जो कुछ भी गलत था। शुरू से ही यही कार्य किया और इसलिये किया क्योंकि विद्रोह जीवन की उन्नति का अपने आप में श्रेष्ठतम उपाय है। जो विद्रोह नहीं कर सकता, वह उन्नति नहीं कर सकता। बंध कर के जीवन नहीं चल सकता, शायद आप विश्वास नहीं कर सकेंगे कि संन्यास जीवन कई प्रकार के बंधनों से बंधा हुआ होता है, इतना आसान नहीं होता।
मैं सन्यास में भी था तो वहां पर भजन कर लेता था, गजल गा लेता था, अनेक साधु संत आकर कहते थे कि यह आप क्या कर रहे हैं? मैं कहता था कि गजल सुन रहा हूं।
– ‘तो आप संन्यासी हैं?’, वे पूछते।
मैं कहता- ‘हंड्रेड परसेंट, एक सौ दो परसेंट।’
– ‘तो ऐसे कैसे गजल सुन लेते हैं?’
मैंने कहा- ‘आप भी बैठिये, आप भी सुन लीजिये, मैं प्रेम करता हूं इसलिये गाता हूं। तुम रूखे-सूखे ठूंठ हो, तुम कुछ कर ही नहीं सकते, न सुन सकते हो। मैं ठूंठ बन नहीं सकता!’
और वे भनभनाते हुए चले जाते, कुछ करते नहीं थे। सिद्धाश्रम में गया तो बिल्कुल पहली बार देखा तो कहा कि कहां फंस गया मैं, लोग तो सिद्धाश्रम का इतना नाम लेते हैं, पर यहां तो लम्बी-लम्बी दाढ़ियां बढ़ी हुई हैं, गाल पिचके हुये हैं और बैठे हुए हैं आंखे बन्द किये हुये। ये तीन साल से बैठे हैं आंख बन्द किये, वो पांच साल से बैठे हैं ध्यान में।
मैंने सोचा कि मुझे ऐसे एक जगह नहीं बैठना है। या तो यहां परिवर्तन करेंगे या फिर वापस अपनी जगह चले जायेंगे। उनको हिला हिलाकर जगाया कि आंखें बन्द करने से क्या होगा, बगुले बहुत आंखें बन्द करते हैं।
परन्तु आज वे अपने आप में अद्वितीय हैं। एक समय था कि वहां पर नृत्य नहीं हो सकता था, गायन नहीं हो सकता था, वहां केवल आंखें बन्द कर ध्यान और धारणा और समाधि भर ही थी। मैंने कहा कि यह सब सही है लेकिन जीवन में जोश और उमंग भी एक चीज है। हमारी आंख साफ हो और रास्ता साफ हो और जीवन के ये दोनों ही पहलू इस ब्रह्म वर्चस्व साधना के द्वारा प्राप्त हो सकते हैं। उसी रास्ते को सरल बना रहा हूं, जहां आप पूर्णता और सफलता प्राप्त कर सकें।
और जो ब्रह्ममय होने की क्रिया है, उसका प्रारम्भ हमारे निरन्तर युद्ध करने की क्रिया से होता है।…हमारे हाथ में पांच उंगलियां हैं और पांचों उंगलियों को समेट करके जब मुट्ठी बना ली जाती है, तब उसे अपने आप में समशिष्ट ब्रह्म कहा जाता है।
इनको ब्रह्म इसलिये कहा गया है, कि इन पांचों प्रवृत्तियों पर पूरी तरह से नियंत्रण किया जाय, और इन पांचों प्रवृत्तियों से युद्ध करता हुआ व्यक्ति जब समष्टिगत स्वरूप आगे बढ़ता है, तब वह पूर्ण रूप से ब्रह्म प्राप्ति का अधिकारी बनता है, तब हम उसको ब्रह्म कहते हैं, तब हम उसको ब्रह्मर्षि कहते हैं।
तब ऐसा ब्रह्मर्षि जीवन में साधना करता हुआ उस रास्ते पर आगे बढ़ता है, जहां सब कुछ प्राप्त हो सकता है। एक संन्यासी, जिसके पास कुछ नहीं है, मगर साधना का बल है, तो एक करोड़पति भी उसके चरणों में झुक जाता है। करोड़ों का मालिक होते हुये भी उसके चरणों में झुक जाता है, चरणों में लिपट जाता है। वह समझता है कि मैं इन चरणों की धूल के बराबर हूं। वह झुकता उन चरणों में नहीं है, ब्रह्मत्व उसे झुका देता है। उस ब्रह्मत्व का जीवन में स्पर्श हो सके, स्थापन हो यही मनुष्य जीवन की गति होती है।
ब्रह्मत्व प्रयोग- यह तो एक अत्यंत उच्चकोटि की साधना होती है, व जिसका विचार ही लाखों-लाखों मनुष्यों के बीच किसी इक्के-दुक्के को आ पाता है। आध्यात्म ही जिनके जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य होता है, ऐसे कुछ साधक ही गुरू आशीर्वाद से इस साधना को सम्पन्न कर जीवन में उस स्तर को शनैः शनैः प्राप्त कर पाते हैं।
यह ब्रह्म वर्चस्व प्रयोग तो क्रिया पक्ष है, मात्र इसी क्रिया को सतत करना ही अपने आप को पूर्ण ब्रह्माण्ड में विस्तार देना है। इसके बाद किस प्रकार से वायु गमन प्रक्रिया होती है या अणिमादि सिद्धियां होती हैं, उसकी यह प्रथम सीढ़ी हैं, सिद्धाश्रम प्राप्ति का यह प्रथम चरण है। क्योंकि इसके माध्यम से आपके शरीर में किसी प्रकार का दोष या विकार, किसी प्रकार की न्यूनता नहीं आ सकती। इसी दृष्टि से यह अपने आप में सर्वोत्कृष्ट साधना विधि है।
साधना विधि
इस साधना को बुद्ध पूर्णिमा 12 मई अथवा किसी भी पूर्णिमा के दिन से प्रारंभ कर सकते हैं। इसके लिये ब्रह्म वर्चस्व माला, ब्रह्म वर्चस्व मुद्रिका एवं सिद्धाश्रम गुटिका होनी आवश्यक है। गुरू पूजन एवं गणपति पूजन कर लें।
माला को जल से स्नान कराकर उसके सुमेरू का निम्न श्लोक बोलते हुये कुंकुंम, अक्षत से पूजन करें-
ऊँ माले माले महामाले सर्व शक्ति स्वरूपिणी। चतुवर्ग स्त्वयि न्यस्तस्मान्मे सिद्धि दाभवः
फिर अपने दोनों हथेलियों में माला को लेकर उसे अपने ललाट से स्पर्श करायें। इसके बाद माला को सामने लपेट कर रख दें। इस माला का आसन देकर उस पर मुद्रिका एवं गुटिका से स्थापित कर दें। इस साधना हेतु गुरू मंत्र का विशेष रूप से महत्व है, साधना का कोई मंत्र अलग से नहीं है, केवल गुरू मंत्र ही अपने आप में सम्पूर्ण मंत्र है। साधना में प्रयुक्त सामग्री को गुरू मंत्र से विशेष रूप से सम्बद्ध कर प्राण प्रतिष्ठित किया गया है, साधना सामग्री की विशेष भूमिका है। जिस माला से गुरू मंत्र जप करते हैं, उसी माला से केवल एक माला नित्य जप करें, वह ही अपने आप में पर्याप्त है-
माला को नदी में प्रवाहित नहीं करना है। सदा पूजा स्थान में ही रखें। इस सामग्री के पूजा स्थान में रहने से और इसके समक्ष नियमित जप से स्वतः ही मन एवं आत्मा में निर्मलता आती जायेगी। इस साधना की कोई निश्चित समयावधि नहीं है। इस साधना का एक और पक्ष यह है, कि प्रातः काल साढ़े पांच बजे इस गुटिका और माला के सामने जो भी बोलेंगे वह आवाज पूरे ब्रह्माण्ड में गुंजरित होती ही है, फिर चाहे वे देवता हों या गुरू हों उसे सुनते ही हैं। साधना में परिपक्वता आने पर साधक इस तथ्य को स्वयं अनुभव करने लगेंगे।
वैशाख पूर्णिमा के दिन ही भगवान गौतम बुद्ध का महापरिनिर्वाण समारोह मनाया जाता है। भगवान बुद्ध का जन्म, ज्ञान प्राप्ति और महापरिनिर्वाण ये तीनों एक ही दिन अर्थात वैशाख पूर्णिमा के दिन ही हुए थे। ऐसा किसी अन्य महापुरुष के साथ आज तक नहीं हुआ है।
वैशाख पूर्णिमा को ही भगवान बुद्ध को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी। हिन्दू धर्मावलंबियों के लिए बुद्ध विष्णु के नौवें अवतार हैं। अतः हिन्दुओं के लिए भी यह दिन पवित्र माना जाता है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार वैशाख महीने की पूर्णिमा पर भगवान विष्णु की पूजा विशेष फलदायी होती है। ब्रह्मा जी ने वैशाख को सभी महीनों में सबसे खास कहा है। स्कन्द पुराण के अनुसार वैशाख पूर्णिमा का महत्त्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि वैशाख मास को ब्रह्मा जी ने सब मासों में उत्तम सिद्ध किया है। अतः यह मास भगवान विष्णु को अति प्रिय है। वैशाख के शुक्ल पक्ष त्रयोदशी से लेकर पूर्णिमा तक की तिथियां ‘पुष्करणी ’ कही गयी हैं।
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