इन्हीं तथ्यों में पितृ ऋण का मानव जीवन पर महत्वपूर्ण प्रभाव है, जिसके कारण सफलता, असफलता, संतान सुख, सुसंस्कार, वंश वृद्धि, गृहस्थ सुख मान-सम्मान, पद, प्रतिष्ठा आदि प्रभावित होता है। साथ ही जिन्होंने हमें जन्म दिया, हमारा पालन-पोषण किया, हमारी उन्नति के लिये प्रयत्नशील रहे और अपने रक्त को देकर हमें सक्षम और योग्य बनाया। उनके प्रति श्रद्धा, सम्मान व्यक्त करने से हमारे जीवन की सुस्थितियों में निश्चिन्त रूप से वृद्धि होती है।
हमारे पूर्वज जिनका देहान्त हो गया है, उनका श्राद्ध करना पुत्र का कर्तव्य है, आश्विन कृष्ण पक्ष अमावस्या को सभी पितरों का श्राद्ध पूजन किया जा सकता है, इस दिन श्राद्ध करना उपयुक्त माना गया है।
पितृ तर्पण क्यों किया जाता है, यह अब समझाने का विषय नहीं रहा। सामान्यतः सभी अब इस विषय से परिचित हैं लेकिन एक बात स्पष्ट रूप से बता दूं कि हमारे पितरों अर्थात् हमारे वे पूर्वज जो दिवंगत हो चुके है, उनके संस्कार अवगुणों का निश्चित प्रभाव हमारे जीवन में रहता है। यह कहना किसी भी रूप में अनुचित नहीं है कि सम्पूर्ण मानव जीवन पितरों के प्रभाव पर आधारित है, सभी अवस्था पितरों के कर्मो का फल होता है यानि हमारे जीवन के जो भी फल है, वे हमारे पितरों के कारण ही है। यदि पितर संतुष्ट है, तो अभिवृद्धि होती है, यदि असंतुष्ट हैं, तो जीवन में निरन्तर हृास होता रहता है।
श्राद्ध की 16 तिथियां होती हैं, पूर्णिमा, प्रतिपदा, द्वि तीया, तृतीया, चतुर्थी, पंचमी, षष्टी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी और अमावस्या। उक्त किसी भी एक तिथि में व्यक्ति की मृत्यु होती है चाहे वह कृष्ण पक्ष की तिथि हो या शुक्ल पक्ष की। श्राद्ध में जब यह तिथि आती है तो जिस तिथि में व्यक्ति की मृत्यु हुई है उस तिथि में उसका श्राद्ध करने का विधान है। श्राद्ध पक्ष में सनातन धर्म के लोग अपने पितरों को श्रद्धापूर्वक याद करते है और उनके लिये पिंडदान करते है। पितृपक्ष को लेकर यह भी मान्यता है कि अगर इस समय पितरों को प्रसन्न कर लिया जाये तो घर-परिवार पर उनकी कृपा बनी रहती है। इसके अलावा जातक और उसके परिवार पर कोई भी बुरा साया या फिर दुःख तकलीफ नहीं आती।
ऐसा क्यों होता है? यह प्रश्न स्वभावतः सभी मनुष्यों में उठता है, वस्तुतः पितरों के जो संस्कार होते है, वे संस्कार जीव के जन्म लेते ही उसमें समाहित हो जाते है, इसके साथ-साथ उनके दोष, कर्मफल का भी प्रभाव उस जीव में समाहित होता है जन्म लेते ही मनुष्य को बिना कुछ किये ही पूर्वजों के कर्मो का भार थमा दिया जाता है। यही सृष्टि का नियम है, हालांकि यह सरलता से पचा पाना मुमकिन नहीं, परन्तु सत्य तो सत्य ही रहेगा। यही कारण होता है, कि जो प्रज्ञावान व्यक्ति होते है, वे पितृ तर्पण का सुझाव देते रहते हैं। यही एक क्रिया है, जिससे पितृ दोष से मुक्त हुआ जा सकता है।
लौकिक जगत में जिस तरह वैमनस्यता का घोर संकट है, इसका मूल कारण पितृ देवों का असंतुष्ट होना है जिनकी क्षुधा के कारण व्यक्ति को अनेक कष्ट, पीड़ा सहन करनी पड़ रही है। इसका आभास कर ही हमारे ऋषियों ने श्राद्ध कल्प में पितर शांति का विधान बताया। जिससे व्यक्ति वर्ष में एक बार अपने निकटतम सम्बन्धियों के आत्मा की शांति हेतु साधनात्मक क्रिया, पूजन सम्पन्न कर सके।
आज का मनुष्य भले ही इसे स्वीकार ना करें, परन्तु यह सत्य है कि अतृप्त आत्माओं का अतृप्त होने का प्रभाव हमारे जीवन में पूर्ण रूप से बना होता है। कहा गया है कि-
।। अन्ते या विचारे सा गतिः।।
अन्त समय में जैसे विचार एवं चिन्तन होते है, उसी के अनुरूप व्यक्ति का पुनर्जन्म होता है। जब व्यक्ति विभिन्न इच्छाओं के साथ मरता है, तो कुछ देर तो उसे विश्वास ही नहीं होता, कि वह मर गया उसकी देह उसके समक्ष होती है और वह अचम्भित सा देखता रहता है, क्योंकि उसकी कई अपूर्ण इच्छायें होती हैं, जिनकी पूर्ति के लिये उसे भौतिक शरीर की आवश्यकता होती है, इसलिये वह अपनी देह के आसपास ही मंडराता रहता है और जब देह जला दी जाती है, तो हताश हो जाता है और इच्छाओं की पूर्ति हेतु भटकता रहता है।
आकस्मिक मृत्यु प्राप्त व्यक्ति की आत्माये अत्यधिक क्षुधा पूर्ण होती है, क्योंकि कालखण्ड की विवशता में उनकी आकस्मिक मृत्यु तो हो जाती है, परन्तु वो भटकती रहती है, काल बाध्यता के कारण उनका पुर्नजन्म नहीं हो पाता है, जिसके कारण उन्हें कई वर्षो तक प्रेत-योनि की पीड़ा सहनी पड़ती है। ऐसे में ये अतृप्त आत्मा मुक्ति हेतु अपने परिवार जनों की ओर आशातीत होती है, जिनकी पूर्ति ना होने पर उनके कोप का भी प्रभाव सहन करना पड़ता है। जिस प्रकार व्यक्ति को अपने भौतिक जीवन में परिवार के प्रति कर्तव्य वहन करना पड़ता है, उसी प्रकार यह भी है कि वह अपने पितरों के मुक्ति हेतु विशेष साधनायें सम्पन्न करें। जिससे उनके पितर अपने आगे के क्रमों में प्रवेश कर सके।
आप साधना द्वारा यदि उनके पुर्नजन्म में सहायक बनते हैं, तो अपनी इच्छायें पूरी करने के लिये उन्हें देह मिल जायेगी, जिससे वह नये संस्कारों के अनुसार जीवन जिने लगेंगे और आप भी पितृ ऋण से मुक्त हो जायेंगे। यह साधना जहां हाल ही में दिवंगत लोगों के लिये उपयोगी है, तो वहीं उन पूर्वजों के लिये उपयुक्त है, जो बहुत पहले मृत्यु को प्राप्त हुये है। सभी व्यक्तियों को पितृ तर्पण करना ही चाहिये। वो भी पूरी श्रद्धा के साथ।
साधना विधान
यह साधना 20 सितम्बर से 06 अक्टूबर के मध्य कभी भी सम्पन्न कर सकते है। पितृ मुक्ति यंत्र, पितृ शांति माला एवं पितृ तर्पण जीवट की आवश्यकता होती है। साधना प्रारम्भ करने से पहले पूर्ण पवित्र भाव से खीर बनाकर प्रसाद स्वरूप अर्पित करे। साधक सफेद धोती पहन कर पूजा स्थान में सफेद आसन पर बैठें।
किसी बाजोट पर सफेद वस्त्र बिछा कर ताम्रपात्र में यंत्र व जीवट स्थापित कर पंचोपचार पूजन सम्पन्न करे, कुंकुम से पितरों का नाम यंत्र पर लिखें। अगर साधना सभी पितरों के लिये कर रहे हो, तो सर्व पितृ लिखें।
पूर्ण शुद्ध भाव से संकल्प लेकर पितृ शांति माला से निम्न मंत्र की 5 माला जप नित्य 3 दिवस तक सम्पन्न करें-
मंत्र जप समाप्ति के बाद अपने पूर्वजों का स्मरण करते हुये 21 बार शुद्ध जल व कुश यंत्र पर अर्पित करे। उसके बाद विष्णु आरती सम्पन्न करें। साधना समाप्ति के बाद सभी सामग्री को पीले वस्त्र में बाँध कर किसी मन्दिर में अथवा पवित्र जल में विसर्जित करें।
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