सन्यासी के कंधे पर जो झोली टंगी होती है, उसका नाम है कन्था। ऋषि कहते है वस्तुतः सन्यासी की जो गुदड़ी है, झोली है, वह तो धैर्य है और धैर्य की इस गुदड़ी में बड़े हीरे आ जाते है लेकिन धैर्य तो हमारे भीतर जरा भी नहीं होता और छोटे-मोटे के लिए तो हम प्रतीक्षा भी कर लें, विराट के लिये हम जरा भी प्रतीक्षा नहीं करना चाहते। एक व्यक्ति साधारण सी शिक्षा पाने विश्वविद्यालय की यात्र पर निकलता है, तो कोई सोलह सत्रह वर्ष स्नातक होने के लिए व्यय करता है। पाता कुछ भी नहीं, कचरा लेकर घर लौट आता है। लेकिन अगर कोई व्यक्ति साधना की यात्र पर निकलता है, तो वह पहले दिन ही आकर मुझे कहता है कि एक दिन बीत गया, अभी तो कुछ नहीं हुआ। छोटी-छोटी चीजों के लिये हम कितनी प्रतीक्षा करने को तैयार है, विराट के लिये कोई प्रतीक्षा नहीं!
एक आदमी थोड़े से रूपये कमाने के लिये पूरी जिंदगी दांव पर लगा सकता है और प्रतीक्षा करता रहता है कि आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों। चाह गहरी है धन को पाने की, इसलिये प्रतीक्षा कर लेता है। परमात्मा के लिये वह सोचता है कि एकाध बैठक में ही उपलब्ध हो जाये और वह बैठक में भी तब निकालता है जब उसके पास अतिरिक्त समय हो, जो धन की खोज से बच जाता हो। छुट्टी का दिन हो, अवकाश का समय हो और फिर वह चाहता है, बस जल्दी निपट जाये। वह जल्दी निपट जाने की बात ही यह बताती है कि ऐसी कोई चाह नहीं है कि हम पूरा जीवन दांव पर लगा दें और ध्यान रहे, विराट तब तक उपलब्ध नहीं होता, जब तक कोई अपना सब कुछ समर्पित करने को तैयार नहीं होता। सब कुछ समर्पित करना भी कोई बारगेन नहीं है, कोई सौदा नहीं है। नहीं तो कोई कहे कि मैंने सब कुछ समर्पित कर दिया, अभी नहीं मिला। अगर इतना भी सौदा मन में है कि मैंने सब समर्पित कर दिया तो मुझे प्रभु मिलना चाहिये, तो भी नहीं मिल सकेगा। क्योंकि हमारे पास है क्या जिससे हम प्रभु को खरीद सकें? क्या दोंगे आप? छोड़ने को है क्या आपके पास आपका कुछ है ही नहीं।
जीवन में किस तरह से सुस्थितियों का निर्माण हो? किस विधि से जीवन को उर्ध्वगति प्रदान किया जा सकता है। शिष्य अपने जीवन में किन उपायों को अपना कर साधना और भौतिक जीवन में सफलता प्राप्त कर सकता है? सांसारिक मनुष्य यही विचार करता है कि इस देह में रह कर इस जीवन में रहकर किस तरह से ब्रह्म तत्व के परम तत्व की प्राप्ति की जा सके, परम तत्व का तात्पर्य कोई पदार्थ या वस्तु नहीं। इस जीवन में रहकर हम किस तरह परमात्मा को, श्रेष्ठता को, पूर्णता को प्राप्त कर सके। किस तरह की हम क्रियायें करें, जिससे कि उस ब्रह्म शक्ति को अहं ब्रह्मास्मि स्वरूप को हम धारण कर सकें। जो कुछ भी इस संसार मे है, वह हर स्वरूप में मुझे प्राप्त हो सके, उस शक्ति से युक्त बन सकूं और वह शक्ति मुझे निरंतर-निरंतर श्रेष्ठता की ओर, उच्चता की ओर गतिशील कर सके। वह ब्रह्म शक्ति , वह परम शक्ति वह परम तत्व की स्थिति प्राप्त करने का भाव ही पूर्णता का भाव है, पर अधिकांश मनुष्य केवल और केवल यह विचार करते हैं कि यह देह, यह शरीर केवल और केवल भोग के लिये बना है और जैसे हमें अपने माता-पिता ने उत्पन्न किया है वैसे ही हम क्रियायें करके आगे भी उस प्रभाव को बनाये रखें केवल और केवल करोड़ों-करोड़ों मनुष्यों का भाव चिंतन यही रहता है और यह सांसारिक देह हमारी स्वयं की है और ईश्वर नहीं कहते है कि अपने इस जीवन में कंकड़-पत्थर बीने या भीतर में अनेक-अनेक सम-विषम स्थितियों का संग्रह करे। मैंने अपने जीवन को किस तरह से निर्मित किया, उसके बारे में कभी भी ईश्वर नहीं कहते है कि तुमने अपने जीवन को अधोगति की ओर अग्रसर किया है यह तुम्हारा स्वयं का चिंतन होगा और अधिकांश मनुष्य का यह भाव होता कि केवल और केवल परम तत्व की प्राप्ति, ईश्वर की प्राप्ति, पूर्णता की प्राप्ति मृत्यु से ही संभव है। यह जीवन तो जब तक सांस चल रही है, केवल और केवल सांसारिक पदार्थो का भोग करने के लिये है और यदि मृत्यु ही परम तत्व को प्राप्त करने का साधन है, तो मृत्यु का तात्पर्य है कि देह की भीतर में जो भी गति का भाव होता है, चाहे वह सांस लेना हो, चलना-फिरना हो, सोचना-समझना हो सब कुछ इस जीवन्त जागृत देह के भीतर ही संभव हो पाता है और मृत्यु का तात्पर्य है कि सुनने की क्षमता खत्म हो जाये, देखने की क्षमता खत्म हो जाये, शरीर में कोई स्पंदन नहीं रहे, शरीर में कोई गति का भाव नहीं रहे, कोई गतिशीलता नहीं रहे, कोई क्रियाशीलता नहीं रहे, उस का तात्पर्य मृत्यु है अर्थात् वह मिट्टी के समान देह है, जिसमें कोई भी गतिशीलता नहीं, जिसमें कोई भी भाव नहीं, कोई भी सोच नहीं, कोई विचार नहीं।
जब मृत्यु से यह सब स्थितियां प्राप्त होती है, तो किसी तरह से हम मृत्यु के माध्यम से परम तत्व को ब्रह्म तत्व को पूर्णता तत्व को प्राप्त कर सकते है? जब मृत्यु निकट आती है तो परिवार के लोग चारों तरफ इकठ्ठा हो जाते हैं, रामायण पाठ करते है, भगवत् पाठ करते है, गायत्री मंत्र करते हैं और कोई गुरू मंत्र करते हैं कि शायद वह जो कुछ देर में समाप्त हो जायेगा, तो वह कुछ श्रवण कर सके, सुन सके, उसे गंगा जल पिलाते हैं, पवित्र जल युक्त तुलसी पत्र पिलाते हैं कि जिससे उसे परम तत्व की, मोक्ष की प्राप्ति हो सके। जब वह व्यक्ति मृत्यु शैय्या पर बैठा है, उसकी इन्द्रियां काम नही कर रहीं हैं। शरीर के अन्दर कोई गतिशीलता नहीं है, धीरे-धीरे उसकी हृदय की धड़कन कम होती जा रही है, सुनने, सोचने समझने की शक्ति नहीं है, दिखाई दें नहीं रहा है और हम उस समय भी रामायण का पाठ करके सुनाते हैं, गीता का पाठ करते हैं, गरूड़-पुराण पढ़ते है।
यह क्रियाये बाद में हम करते हैं, जब जीवित था, उस समय तो कोई गीता का पाठ किया नहीं हमने, हमने कोई गायत्री मंत्र नहीं किया, राम-राम बोलो, गायत्री मंत्र बोलो पंडित जी को बुलाओ, जैसा भी हमारा विधि-विधान होता है, हम पाठ करते हैं, इसी स्थिति के विपरीत यदि जाग्रत अवस्था में ही, वह गीता के पाठ को, रामायण के पाठ को जीवन में उतार लेते, तो ऐसी मृत्यु की प्राप्ति ही नहीं होती और जब शरीर में उसके जल उतरता ही नहीं है, पानी उतरता ही नहीं है, दवाई उतरता नहीं है, डॉक्टर भी मना कर देता है कि इसका शरीर बेजान होने वाला है, सामाप्त होने वाला है अब तो कोई भी दवा इंजेक्शन, कुछ भी इसके लिये उपयोगी नहीं है। अब घर ले जाओ और जितनी सेवा हो सके करो चार-छः घण्टे, दस घण्टे, एक-दो दिन वह जितना समय निकाल सके, उतना ध्यान रखना और हम देखते हैं, कि धड़कन उसकी धीरे-धीरे कम होती रहती है, शरीर एक-दम, एक तरफ लुढ़क जाता है और हम समझ जाते हैं कि वह मृत्यु को प्राप्त हो गया।
रामायण का पाठ करना, गीता का पाठ करना या भजन करना, हरि का कीर्तन करना या अन्य जो भी क्रिया करने के पीछे भी एक भाव-चिंतन है, उसके पीछे भी हमारा स्वयं का स्वार्थ है कि जब हम मृत्यु को प्राप्त होंगे तो हमारी संतान भी हमारे लिये ऐसी क्रियायें करें, ऐसी परंपरा चलती आ रही है। मैं पिताजी के लिये कर रहा हूँ और जब मैं मृत्यु को प्राप्त होऊंगा तो हमारी संतान भी हमारे लिये ऐसी क्रियायें करें, ये परंपरा चलती आ रही है। मैं पिताजी के लिये कर रहा हूँ और जब मैं मृत्यु को प्राप्त होऊंगा तो मेरी संतान मेरे लिये इस तरह की क्रिया करेगी। मैं जब मृत्यु शैय्या पर, जमीन पर लेटा होऊंगा या खाट पर पडा होऊंगा तो मुझे भी गीता का पाठ सुना देगा, रामायण का पाठ सुना देगा और मैं परम तत्व को प्राप्त कर लूंगा।
यह विचार नहीं करते कि यदि हम जाग्रत अवस्था में ही प्रभु का नाम ले लेते, गुरू का नाम ले लेते, भगवान कृष्ण का नाम लेते, रामायण का पाठ कर लेते, गीता का पाठ कर लेते, ईश्वर का नाम ले लेते, तो ऐसी स्थितियां प्राप्त ही नहीं होती। हमने तो क्या समझ लिया कि जीवन है तो केवल और केवल भोग करने के लिये, आनन्द लेने के लिये, प्रसन्नता लेने के लिये, जितना हम जीवन में उकड़-बकड़ खा सके, उतना हमें ग्रहण कर लेना है और मृत्यु के बाद हम परम तत्व को प्राप्त हो जायेंगे, मृत्यु के बाद में क्या है? मृत्यु के बाद चार लोग उठा के ले जायेंगे और जला के आ जायेंगे, वापस वह मिट्टी के राख को पवित्र नदियों में डाल देंगे और बस हमने अपनी क्रिया खत्म कर ली।
श्राद्ध पक्ष में आप अपने पिता का, दादा का या मां का जो भी इस संसार में नहीं है। उनका आप श्राद्ध करते हैं, यह विचार कीजिये कि आप पन्द्रह साल से, बीस साल से, अपने पिता का या दादा का श्राद्ध कर रहें हैं, यही बीस साल पहले आप यदि बीस वर्ष तक जो अपने पचास-पचास लोगों को, बीस-बीस लोगों को अपने परिवार के लोगो को बुला के श्राद्ध का कार्य करते हैं। हलवा बनाते हैं, खीर बनाते हैं या जो भी पूरी सब्जी बनाते हैं। वे ही अगर यह अपने पिता को ही खिला देते तो ऐसी मृत्यु की स्थिति प्राप्त ही नहीं होती। किस लिये श्राद्ध क्रिया कर रहे हैं, खिला रहे हैं, खाना खुद को है। पिता के लिये खीर बना रहें है, पिता के लिये हलवा बना रहें हैं। यह पिता का श्राद्ध है, दादा का श्राद्ध हैं, मां का श्राद्ध है, मां के लिये कर रहा हूँ, जीवित जाग्रत मां थी तब तो मां को कुछ नहीं देते, जीवित जाग्रत पिता जी थे, तब तो उनको गालियां दे रहे थे, अब तो मरने के बाद वे केवल और केवल दिखावा करने के लिये ऐसी क्रिया करते हैं। परिवार वाले क्या कहेंगे, समाज वाले क्या कहेंगे, पड़ोसी क्या कहेंगे, समाज क्या कहेंगे, पिता का श्राद्ध नहीं किया, रिश्तेदार क्या कहेंगे। लो इसने तो अपने पिता का श्राद्ध ही नहीं किया मां का श्राद्ध ही नहीं किया? खाना हमें स्वयं को ही है पिता जी तो कोई खायेंगे नहीं, जब पिता जी थे, तो प्रेम से बोल लेते, प्यार से हम बोल देते, प्यार के साथ अच्छें वचनों से हम बातचीत कर लेते तो उनके साथ अकाल मृत्यु होती ही नहीं इतनी जल्दी हमारे पिता या मां इस संसार से इतनी जल्दी जाते ही नहीं।
उस समय तो हम केवल और केवल अहंकार में होते हैं, क्रोध में होते हैं, जो कुछ भी है मै हूँ बस यह अहं का भाव चिंतन होता है। जबकि भीतर होना चाहिये ब्रह्म तत्व का भाव, ईश्वर का भाव, गुरू तत्व का भाव। वह तो हमारे भीतर होता ही नहीं। हमारे भीतर क्या होता है, संग्रह क्या करते रहते है ईर्ष्या, द्वेश, शत्रुता अनेक-अनेक जो विषम भाव हम संग्रह करते रहते है। ये दुःख और सुख कोई भगवान उत्पन्न नहीं करते, ये हमारे महादेव उत्पन्न नहीं करते हैं। भगवान का भी ध्यान करते हैं हर हर महादेव करते रहते हैं, परन्तु भीतर में वह महादेव की शक्ति उत्पन्न ही नहीं करते हैं गुरू मंत्र का जाप करते रहते हैं, पर भीतर में गुरू की शक्ति, नारायण की शक्ति उत्पन्न ही नहीं करते। मैंने तो 11 दिनों में सवा लाख मंत्र जप कर दिया, मैने तो संकल्प लेकर 9 दिनों में इतना मंत्र जप कर लिया, हवन कर लिया, निखिल स्तवन का पाठ कर लिया, गुरू गीता का पाठ कर लिया। परन्तु उसे जीवन में उतारने की क्रिया नहीं कि यो प्रार्थना तो रोज करते हैं। जग में रहूं तो ऐसे रहूं जो जल में कमल का फूल रहे परन्तु अब जगत में हूं, जप में ही बैठे हैं, परन्तु भीतर कमल का भाव-चिंतन क्या है? भीतर में तो कीचड़ का, गंदगी का भाव चिंतन है तो कमल का फूल जीवन में कहां से खिलेगा, कहां से जीवन में कमलमय स्थितियां बनेगी? कैसे केवल मुख से उच्चारण करने से कोई जीवन में कमल का फूल नहीं उगता।
संसार में दल-दल है, जहां दल-दल है, दल-दल का मतलब जो भी संसार में गंदगी है, जो भी संसार में न्यूनता है, अशांति है, जो क्रोध है, ईर्ष्या है द्वेष है, ये सब कीचड़पूर्ण स्थितियां है। उसके अंदर मुझे किस तरह से उठ के रहना है वह भाव चिंतन उत्पन्न होना चाहिये वह तो होता नहीं है। कोई एक गाली देता है, आप तो चार गाली देने को तैयार रहते हैं, आप एक वचन कहते हैं, अब तो चार वचन निकलते ही नहीं आप से क्यों नहीं निकलता कि भीतर में वैसे ही विषम स्थितियां, वैसे ही ईर्ष्या का भाव को हम ज्यादा संग्रह किया। ये तो विचार करो कि यह आपकी देह है, आपकी देह ने आपका बचपन देखा, आपको मालूम है आपका बचपन कैसे बीता, आप को ज्ञान है, परन्तु आप का बचपन तो समाप्त हो गया, आप के देह ने जवानी देखी है कि मेरी जवानी, मेरा यौवन की अवस्था कैसी थी आपको सब मालूम है, जवानी व्यतीत हो गयी आप के जीवन में वृद्धावस्था आ गयी, अब ये जो मन है, आत्मा है, इसको ज्ञान है कि मेरा जीवन, मेरा पिछला समय कैसा बीता ये सब आपको ज्ञात है। सभी तो व्यतीत हो गया। किस तरह से मैंने पढ़ाई की, किस तरह से मैंने जवानी में व्यापार किये, किस तरह से अच्छे कार्य किये, बुरे कार्य किये ये सब आपको ज्ञान है मन को, आत्म को ज्ञान है। देह परिवर्तन हो गयी, देह साठ साल की हो गयी, पचास साल की हो गयी, देह परिवर्तन हो गयी।
परन्तु हम अधिकांश क्या करते हैं मन की बात नहीं सुनते, आत्मा की बात नहीं सुनते, हम सुनते हैं दिमाग की बात बुद्धि की बात सुनते हैं, बुद्धि हमेशा कांटे का काम करती है, मन है, आत्मा है वह जोड़ने का कार्य करती है और हम अधिकांश मन की बात नहीं सुनते हैं, बुद्धि की बात सुनते है और बुद्धि भी किसकी आस-पास के लोगों की, हमारे मित्रें की, खुद की बुद्धि उपयोग नहीं लेते हैं, खुद का विवेक, विवेक का मतलब आत्मा का भाव, मन का भाव उसका उपयोग हम नहीं लेते खुद की बुद्धि का उपयोग कोई लेते ही नहीं है। भगवान ने हमें बुद्धि दी है, परन्तु हम उसको उपयोग नहीं करते। दूसरों ने क्या सलाह दी उस सलाह के अनुसार चलते हैं, जब हम दूसरों के सलाह से चलेंगे तो तब हम अधोगती की ओर अग्रसर होते हैं। खुद की बुद्धि से, खुद के विवेक से, खुद के मन के भाव चिंतन से हम क्रियाशील होते ही नहीं और न हीं जीवन में श्रेष्ठता और उन्नति की ओर अग्रसर होते हैं और गुरू की क्रिया यही रहती है कि आप अपने स्वयं की बुद्धि से क्रियाशील रहें, स्वयं के आत्मविवेक से क्रियाशील रहें परन्तु आप दूसरों की बुद्धि से ज्यादा क्रियाशील होते हैं। इसलिये जीवन में आप विचार तो करें कि दूसरों की सलाह से मुझे कितना जीवन में नुकसान उठाना पड़ा। उसके बाद में भी विचार करने के बाद एहसास होता है कि मुझे मेरे पड़ोसी ने ऐसा गाइड किया था, मेरे मित्र ने मुझे ऐसा ज्ञान दिया था। यह सारा नुकसान हो गया तो भी वापस उस मित्र को छोड़, दूसरे मित्र को पकड़ लेंगे। उस भाई को छोड़ के दूसरे भाई को पकड लेंगे।
क्योंकि खुद की बुद्धि का उपयोग नहीं लेते हैं, पत्नी की बुद्धि काम में नहीं लेंगे, पति की बुद्धि काम नहीं लेंगे, बच्चे की बुद्धि का काम में नहीं लेंगे, माता-पिता को तो आप बेकार समझते हैं मतलब तो जानती नहीं है, उनको तो कुछ ज्ञान नहीं है तुम तो मेरे सामने बच्चा है, तो उसको सब मिथ्या समझते हैं, दूसरा कोई फालतू का सलाह देता है, तो वो उतार लेते हैं क्योंकि आपको जो विषपूर्ण रस होता है ना उसमें आपको आनन्द ज्यादा आता है। आपको क्या एक कोई किसी की ईर्ष्या करता है, किसी को आलोचना करता है। कोई गाली-गलौच करता है, उसमें आपको आनन्द ज्यादा आता है, उसमें एक रस ज्यादा आता है, भगवान की बात बता रहा हूं, ईश्वर की बात बता रहा हूं, आपको इसमें आनन्द नहीं आयेगा, बस आप तो यह विचार करेंगे, आपके चिंतन में यह नहीं रहेगा कि मेरे जीवन में मलिनता कैसे समाप्त हो? गुरू ये ज्ञान-चिंतन दे रहे है, ज्ञान-चिंतन से मेरा भला हो रहा है या गुरू का भला हो रहा है, मेरे जीवन में उन्नति हो रही है, परिवार में उन्नति हो रही है, वह चिंतन भाव हम नहीं करते हैं।
जैसे-जैसे भीतर में रस उत्पन्न होते हैं, उससे मालूम पड़ जाता है कि मेरे जीवन में स्थितियां क्या है, निरंतर-निरंतर मेरे भीतर ईर्ष्या का भाव आ रहा है, क्रोध का भाव आ रहा है, द्वेष का भाव आ रहा है तो निश्चित रूप से मेरा मानस-चिंतन ऐसा ही है और उसके विपरीत यदि निंरतर-निरंतर मेरे भीतर में प्रेम का भाव आ रहा है, आनन्द का भाव आ रहा है, प्रसन्नता का भाव आ रहा है, कर्म करने का भाव चिंतन आ रहा है तो निश्चित रूप से मैं श्रेष्ठता की ओर अग्रसर हो रहा हूँ या खुद ही निर्णय कर लीजिये कि मेरे अपने जीवन में यदि दुःख, संताप या रोग या कष्ट या पीडायें या जो भी शत्रु बाधायें हैं। स्वयं मैने ही निर्मित किये हैं, मेरे जीवन में यदि सुख है, आनन्द है, परिवार में अच्छाई, सामंजस्य-प्रेम है तो निश्चित रूप से उसकी पूरी-पूरी जिम्मेदारी मेरी स्वयं की है, यह स्वयं निर्णय करना है आपको, कोई भगवान ने आपके जीवन में दुःख नहीं डाला है, भगवान ने आपके जीवन में सुख भी नहीं डाला है, भगवान ने आपको इतनी तो समझ दी है, अगर उसका उपयोग हम अधोगति की ओर अग्रसर करते हैं या उन्नति की ओर अग्रसर करते हैं, यह हमारा चिंतन है, जीवन में हमें जैसे कंकड-पत्थर चुन लें, चाहें तो हम मानसरोवर से हंस के मोती चुन लें या कंटीले पत्थर, जीवन में शुचिता, श्रेष्ठता, उन्नति का भाव, प्रगति का भाव किस तरह से कर्मशील रहते हुये, क्रियाशील रहते हुये, किस तरह से मैं श्रेष्ठता की ओर अग्रसर हो सकूं, ये जीवन में अधोगतिमय स्थितियां कैसे आयी, इसमें इतनी निरंतरता का भाव कैसे रहा।
रोग एक दिन में नहीं आया आपके भीतर में, मेरे को शुगर की समस्या है, एक दिन में रोग नहीं आया आप में, उसमें हमने निरंतरता बनाकर रखी है, खान-पान की शुद्धता नहीं रखी, आचार विचार की शुद्धता नहीं रखी तो धीरे धीरे रोग हमारे भीतर में, देह में संग्रहित होते रहें जीवन में अकारण ही। जो कुछ भी क्रिया होनी है, वह स्वयं के बुद्धि के फलस्वरूप होती है कुबुद्धि के फलस्वरूप होती है और गुरू की क्रिया उसे कुबुद्धि से, कुस्थितियों से, विषमताओं से, निजात दिलाना है, किस तरह से अधोगति से सद्गति की ओर अग्रसर होना, यह भाव चिंतन देता है। इसलिये गुरू बार-बार कहता है कि तुम निरन्तर ईश्वर का, इष्ट का नाम उच्चारण करने से, उनका स्मरण करने से उनकी शक्तियों को स्वयं में आप्लावित कर सकें, यह बताता है।
जो भी हम शक्ति का भाव चिंतन करते हैं दुर्गा का, शिव का, गणपति का या गुरू का, उसी भाव चिंतन से हम उस शक्ति से युक्त बन सकते हैं। जीवन तो शवमय है अर्थात् मृत्युमय स्थिति की ओर हम अग्रसर हो रहे है कुछ भी प्रयास करो मृत्यु तो आनी ही आनी है। ऐसा नहीं है कि अब मैंने तो अपने जीवन में बीस लोगों को शमशान भेज दिया, मैं तो मृत्यु को प्राप्त नहीं होऊंगा, निश्चित रूप से मृत्यु तो प्राप्त होनी ही होनी है, भ्रम यही रहता है, मैं तो बस पिता जी को शमशान छोड़ के आ गया, मां को छोड़ के आ गया, दादा को छोड़ के आ गया, मुझे तो मृत्यु नहीं आनी है। आनी ही आनी है और मृत्यु आती है न तब एकदम से नहीं आती। धीरे-धीरे वैसी स्थितियां जीवन मे निर्मित होनी शुरू हो जाती है।
इसीलिये हमारे जीवन में ऐसी विषम स्थितियां आती है, इसीलिये हमारे जीवन में दुःख, संताप, रोग, कष्ट, बाधायें अड़चने आयेंगी। व्यक्ति मन्दिर में वही कामना करता है, भगवान के सामने, गुरू के सामने जो उसके पास नहीं होता, मेरे पास सुख नहीं है तो मैं सुख की कामना करता हूँ। मुझे आरोग्यता की प्राप्ति हो, लक्ष्मी की प्राप्ति हो, संतान सुख की प्राप्ति हो, व्यापार की अच्छी वृद्धि हो इसीलिये गुरू की क्रिया यही रहती है कि इन विषम स्थितियों से सम स्थितियों की ओर किस तरह से अग्रसर हुआ जाये, उस में श्रेष्ठता की ओर अग्रसर हों।
वह भाव चिंतन दीक्षा के माध्यम से, पूजा अर्चना के माध्यम से, वह उस साधक में, उस शिष्य में अर्पित करता है, निर्मित करता है। एक बीज अंकुरण उत्पन्न करता है, जिस तरह से आप जमीन के अन्दर बीज बोते हैं न तो वह क्या बीज के अंदर कोई स्पन्दन नहीं, बीज में वह शक्ति है कि वह जमीन को फाड़ देता है। इतना सा बीज होता है, वह मामूली सा एक बाजरे के दाने, गेहूं के दाने वह जमीन को फाड़ के उसमें से अंकुरण फूट जाता है। हम तो इतने शक्ति से युक्त हैं तो क्या हम अपने जीवन में जो भी इस तरह की कठोर रूपी जो स्थितियां है उनको हम समाप्त कर नहीं सकते? निश्चित रूप से कर सकते हैं। भीतर में वह एक उष्मा का भाव होना चाहिये, एक अग्नि तत्व का भाव होना चाहिये, एक ऊर्जा तत्व का भाव होना चाहिये वह गुरू दीक्षा के रूप में प्रदान करता है, चेतना का भाव होना चाहिये, क्या एक बीज के अंदर इतनी शक्ति होती है कि वह कठोर जमीन को भी देखो आप कैसे पहाडों के ऊपर भी पत्थरों को बड़े-बड़े पत्थरों को फाड़ के पौधा उग जाता है, कैसे उग जाता है? उसमें चट्टान को भी कैसे तोड़ने कि शक्ति होती है, तो हम तो एक छोटी-छोटी समस्याओं को, क्या हम जीवन में समाप्त नहीं कर सकते है? निश्चित रूप से कर सकते हैं, परन्तु भीतर में वह जीवट शक्ति का भाव होना चाहिये एक निरंतरता का भाव होना चाहिये।
बीज को देखों कि आज बीज डाल दिया, कल वापस खोद के देखो, ओ हो क्या अंकुरण तो फूटा ही नहीं, कल, परसों और फिर खोद के देखें तो बीज तो कट जायेगा। आपकी क्रियायें ऐसी ही है, यह नित्य-नित्य ओ हो आज तो मैंने गुरू का स्मरण कर दिया मुझे क्या लाभ मिला, आज तो मैंने प्रदोष काल में महादेव के दर्शन कर लिये, अब मुझे जीवन में गौरी की स्थितियां प्राप्त हो जाये, शिव की स्थितियां, गणपति की स्थितियां, कार्तिकेय की स्थितियां, शुभ-लाभ की स्थितियां प्राप्त हो जाये, एक दिन में प्राप्त नहीं होता निरंतरता का भाव रखना पड़ता है।
कोई निश्चित समय बता सकते हैं कि मेरे बच्चे का जन्म कब होगा, मेरे पौत्र का जन्म कब होगा या पौत्री का जन्म कब होगा कोई बता सकते है? जब जन्म के समय का हमें ज्ञान नहीं है, मृत्यु के समय का हमे ज्ञान नहीं है और फिर हम इस देह के बारे में इतना अधिक गुरूर, घमंड और अपने आप में इतना ईर्ष्या का भाव, द्वेष का भाव वैमनस्यता का भाव कि बस जो कुछ भी भीतर में, ये क्या सब स्थितियां उत्पन्न करते हैं, असुर वृत्ति की स्थितियां उत्पन्न करते हैं तो जीवन में भी असुरमय स्थितियां बनती हैं जिसमें कोई भी सुर नहीं हो कोई भी आनन्द का भाव नहीं हों। राक्षस तत्वों को हम संग्रहित करते रहते हैं। इसीलिये रावण के क्यों दस सिर बतायें, क्यों इन पंद्रह दिन बाद में दशहरा आयेगा अर्थात् दशा को हरने वाला, जो भी जीवन में दुःख, संताप, रोग, बाधा अड़चने, शत्रु, धन हीनता, संतान हीनता, गृहस्थ सुख की अभिवृद्धि में जो भी बाधायें हैं, वे दस रूपों में उनको हर सके। वह विजय का भाव चिंतन है। ऐसा नहीं कि रावण की मृत्यु हो गयी, रावण की मृत्यु तो हजारों साल से हम करते आ रहे हैं पुतला बना देंगे, जला देंगे आप भी करते हैं आपके पूर्वज भी करते आ रहे थे, वह दशानन का मतलब है कि इन दस तरह की जो जीवन में समस्यायें बाधायें हैं उन्हें किस तरह समाप्त किया जाये, उन्हें किस तरह से हराया जाये, वह चिंतन, भाव ही दशानन है। यह जो सब कुछ स्थितियां आयेंगी, विषम स्थितियां, दुःख कष्ट बाधायें, अपने दशों स्वरूपों में मेरे सामने ही है, पीछे नहीं है कुछ भी मेरे जीवन के पीछे नहीं है, सब मेरे सामने ही सामने है, घर में कलह है, घर में तनाव है, घर में संतान हीनता है, घर में धन का अभाव है यह सभी बाधाओं को नष्ट करने का भाव साधना, दीक्षा है।
उपासना, पूजा, साधना इस संसार में नित्य करोड़ो लोग सम्पन्न करते हैं, हजारों-हजारों मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर, चर्च में ईश्वर की आराधना प्रतिदिन होती है, मंदिर का पुजारी भगवान को भोग लगाता है, बड़े-बड़े लाउड स्पीकर, ध्वनि यंत्र लगाकर भोर काल से ही अर्चना की अनेक क्रिया की जाती है, अनेक लोग अपने घरों में भी अनेक-अनेक माध्यम से ईश्वर की स्तुति करते हैं। इन सब के बावजूद ईश्वर सुन रहा है, ऐसा मालूम नहंी पड़ता, सैकड़ो समस्यायें, संकट, आपदा-विपदा के बीच मन घिरा हुआ, स्वयं को असुरक्षित महसूस करता है और सुरक्षा की भावना से, मंगल की मांग के साथ ईश्वर से प्रार्थना करता है, उसे ईश्वर से प्रेम है की नहीं, ये तो वही जाने, लेकिन वह सुरक्षा की मांग के साथ मंगल की मांग के साथ ईश्वर की आराधना अवश्य करता है।
क्या कारण है, ईश्वर सुनता क्यों नहीं, जरा इस पर मंथन करो, ये विचार करने का विषय है, सोचने का, समझने का विषय है। पूरे विश्व में परमात्मा की पूजा भिन्न-भिन्न रूप में सम्पन्न होती है और भारतवर्ष में सर्वाधिक पूजा, उपासना होती है, यह भी मानने योग्य है कि यह धरा धार्मिक लोगो की तपस्या और कर्म शक्ति के कारण ही सुरक्षित है, परन्तु विषय यह है कि इतनी सारी क्रियाओं के बाद भी हमारे जीवन की आपदायें कम नहीं होती, प्रकृति का प्रकोप भी समय-समय पर अपना विकराल रूप जगत को दिखा चुका है। जब प्रकृति अपना विकराल रूप दिखाती है, तो किसी की नहीं चलती है, सब कुछ धराशायी हो जाता है, हमने आज अपने सामने प्रकृति के विकराल स्वरूप को देखा है, जाना है। प्रकृति के रौद्र रूप में कहीं ना कहीं नाराजगी, रूष्टता निश्चित झलकती है, बात केवल अनुभव करने की और समझने की है, वह प्रकृति जो सम्पूर्ण जगत का पालन-पोषण करती है, जो वात्सल्यमय है, जो करूणा रूप है, वह आखिर क्यों रौद्री बन गयी, विध्वंसक हो गयी, निश्चय ही कहीं पर मानव से चूक हुयी हैं, कोई भूल हुयी है और भूल भी बड़ी हुयी है। मां-बाप जब अपने संतान की देख-भाल, पालन-पोषण करते है, तो उनके मन में आशा का दीप जलता है, कि यह मेरी संतान युवा होकर हमारे वृद्धावस्था में सहारा बनेगी, हमारी लाठी का सहारा होगा, उनके मन में कहीं पर भी यह विचार नहीं होता कि यह मेरी संतान युवा होकर मेरी ही लाठी तोड़ेगी, कम से कम उन्हें अपनी संतान से इतनी आकांक्षा तो होती ही है कि यह मुझे सुख नहीं दे पाया तो कम से कम दुःख ना ही देगा। प्रकृति माँ भी यही आशा हमसे रखती है और उसका अधिकार भी है कि हमसे वह ऐसी आशा रख सके, आखिर में संसार की प्रत्येक वस्तु जो हमे प्राप्त होती है, वह उसी की दी हुयी तो है और जीवन जीने के लिये, सांस लेने की जो परम् आवश्यकता है, ऑक्सीजन की पूर्ति भी तो वही प्रकृति माँ ही करती है।
जब हम उसके ही अस्तित्व का ध्यान नहीं रखेंगे तो विनाशता का प्रलय तो आयेगा ही। इससे बचने का एक ही उपाय है, कि हम प्रकृति का सहयोग करें, उसकी देख-भाल की पूरी व्यवस्था करें, तब ही मानव जीवन आने वाले समय में सरल और समृद्ध होगा, अन्यथा विकरालता ग्रहण करने के लिये तैयार रहें। प्रत्येक धर्म के उपासक का कर्तव्य है कि वे प्रकृति की देखभाल में सहयोग करें, प्रकृति के क्षेत्र में अतिक्रमण नहीं होना चाहिये। प्रकृति की रक्षा आपकी उपासना बन जाये, ये सरल माध्यम है, ईश्वर रूपी प्रकृति का अनुग्रह प्राप्त होना, मानव जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है।
ईश्वर अनुग्रही है, इसमें कोई दो राय नहीं, परन्तु ईश्वर का अनुग्रह हर किसी को मिले इस मत में मतभेद है, एक तो उसका अनुग्रह है, कि उसने मानव जीवन को सब कुछ दिया, आप सही सलामत, हष्ट-पुष्ट हो, स्वस्थ हो, दूसरा अनुग्रह जो प्राप्त होता है, ईश्वर उपासना से, कर्म शक्ति से उसे प्राप्त करने के लिये आपको संघर्ष करना पड़ता है और यह अनुग्रह भी आपके जीवन के लिये उतना ही आवश्यक है, जितना की पहले था, बुद्धिमान लोग कहेंगे, ईश्वर चतुर है, पहला अनुग्रह तो कर दिया, दूसरे वाले में उसने हाथ खींच लिया, ईश्वर होशियार मालूम पड़ता है।
ईश्वर ने कुछ भी अपने पास नहीं रखा, पूरी स्वतंत्रता दे रखी है, जो इच्छा हो करो, कर्म की पूरी स्वंतत्रता है, करने वाला जाने उसे कौन सा पौधा लगाना है, मीठे वृक्ष का बीज रोपण करेगा तो स्वादिष्ट अमृत के समान फल मिलेंगे, बबूल के पेड़ लगायेगा, तो कांटे ही कांटे, कड़वाहट ही जीवन में घुलेगी। इसलिये मानव स्वतंत्र है, उसकी जैसी इच्छा वृक्ष लगाये। ईश्वर का इसमें कोई रोल नहीं है, सारे रोल आपके कर्म के हैं। यह युग कर्म प्रधान है, यह युग ही नहीं प्रत्येक युग, पूरी सृष्टि, पूरा जगत कर्म प्रधानता से ओत-प्रोत होकर निरन्तर गतिशील है, कभी देखा है कि सूर्य उदय ना हुआ हो, वह प्रतिदिन उदित होता ही है, भले ही धुंध के कारण कुछ ना दिखे, लेकिन सूर्य का उदित होना निश्चित है। क्योंकि यह सम्पूर्ण सृष्टि सतत् रूप से गतिशील है, गतिशील होना ही जीवन है।
अनुग्रह प्राप्त करने के लिये झुकना पड़ता है झुकना भी ऐसे नहीं, पूर्ण समर्पण के साथ, आत्मीय भाव के साथ, लेकिन आत्मा का तो अता-पता ही नहीं, कभी आत्मा से सम्पर्क ही नहीं हुआ तो, झुके कैसे? बड़ा विचित्र संकट है, आत्मा तो सबके पास है लेकिन आत्मिक भाव वाले कितने है, उंगलियों पर गिन सकते हैं, कॉपी कलम की जरूरत नहीं पडं़ेगी, इनकी संख्या इतनी होती है कि उंगुलियों से गिन सकते हैं। बहुत ही कम लोग होते हैं, जो आत्मिक रूप से गुरू को, ईश्वर को पुकार पाते हैं।
युधिष्ठिर कौरवों के साथ जुए में अपना सर्वस्व हार गये थे, शकुनि ने छल से उनका समस्त वैभव जीत लिया था। अपने चारों भाईयों, स्वयं को और द्रौपदी को भी वे बारी-बारी से हार गये। क्योंकि जुआरियों की ऐसी मनोदशा होती है कि उन्हें लगता है कि अगली चाल में जीत कर सब बराबर कर देंगे और यही करते-करते वे अपनी दुर्दशा स्वयं कर लेते हैं, युधिष्ठर के साथ भी यही हुआ और आज के समय में भी अधिकांश लोगो के साथ यही हो रहा है, वे सोचते हैं कि अभी एक साल और गुजार देते हैं, अगले वर्ष से, कुछ समय बाद से फलां काम हो जाये तब ईश्वर का ध्यान, पूजा, साधना प्रारम्भ करेंगे। ऐसे करते-करते वे सारा जीवन गुजार देते हैं, जिस परिवार के लिये वे सारे जतन करते हैं, वह परिवार उसके काम आयेगा, इसकी कोई गारण्टी नहीं और अंत में यह जीवन जुआ बनकर रह जाता है, मोह-माया रूपी शकुनी छल से जीत जाता है और आपको यह जीवन जो प्राप्त हुआ था, अमृत रूपी सद्-चेतना प्राप्त करने के लिये, वह सब निकल जाता है कुछ भी पास नहीं बचता।
युधिष्ठर प्रत्येक दांव हारते गये, अंत में वे द्रौपदी भी हार गये और दुर्योधन ने अपने भाई दुःशासन से कहा-द्रौपदी को भरी सभा में ले आओ। दुःशासन द्रौपदी के केश पकड़ कर जबरदस्ती सभा में ले आया। उस समय द्रौपदी रजस्वला थी, उसने मात्र एक ही वस्त्र पहन रखा था। दुर्योधन ने अपनी जाघं दिखाते हुये कहा-दुःशासन! इस कौरवों की दासी के वस्त्र उतार कर मेरी जांघ पर बैठा दो। भरी राजसभा में बड़े-बड़े महारथी थे, एक से बढ़कर एक योद्धाओं से पूरी सभा भरी थी, अनेक शूरवीर, वयोवृद्ध विद्वान थे, ऐसे लोगों के बीच पाण्डवों की महारानी, जो कुछ सप्ताह पूर्व चक्रवती सम्राट के साथ साम्राज्ञी रूप में भूमण्डल के समस्त नरेशों के द्वारा वन्दित हुयी थी और रजस्वला होने की स्थिति मे घसीट कर लायी गयी और उसे अपमानित करने का आदेश दिया जा रहा था। एक अबला नारी और उसकी एक मात्र साड़ी को दुःशासन अपने मजबूत भुजाओं से पूरा जोर लगाकर खींच रहा था, वह नारी अपने सम्मान के लिये अपनी पूरी कोशिश करती है, दोनों हाथों से अपनी साड़ी को दृढ़ता के साथ पकड़ती है, अपनी क्षमता भर पूरी चेष्टा करती है।
सभी के सभी योद्धा मौंन हैं, पाण्डवों ने शर्म से सर झुका लिया, भीष्म, द्रोण आदि किसी ने भी उस नारी की मदद नहीं की अन्त में जब द्रौपदी को समझ आया कि मुझसे कुछ ना होगा, मैं अपनी स्वयं की रक्षा में समर्थ नहीं हूँ उसने छोड़ दी अपनी साड़ी, दोनों हाथ ऊपर कर आंसू की अथाह में डूबी द्रौपदी कातर स्वर में कहने लगी- ‘‘हे कृष्ण! हे द्वारकानाथ, हे देव, हे जगन्नाथ इन दुष्ट कौरवों के सागर में मैं डूब रही हूं, दयामय मेरा उद्धार करो।’’
श्री कृष्ण उसी क्षण आ गये, जैसे ही द्रोपदी ने अपनी चेष्टायें बंद की और छोड़ दिया भगवान पर कि अब तू ही बचा मुझे, मुझसे ना होगी अपनी रक्षा, भक्त की आत्म पुकार सुनकर भगवान दौड़े चले आये। आत्म पुकार की अनदेखी भगवान कर भी नहीं पाता, हमारे भीतर भी ऐसी आत्म पुकार जब आयेगी, तो भगवान रूक ना सकेंगे, उसे आना ही होगा। अपनी अन्तिक कोशिश कर लो, लेकिन अन्त की जो पुकार हो वह आत्मिक होनी चाहिये। अन्तः करण की आवाज होनी चाहिये। लेकिन ऐसा भी संभवतः देखने को नहीं मिलता, जब आदमी को बहुत अधिक तकलीफ होती है, तो उसका सारा ध्यान तकलीफ में रहता है, ना वह समाधान की ओर बढ़ता है, ना भगवान की ओर, जाता भी है भगवान के पास तो बड़ी चतुराई के साथ। आपकी पुकार ईश्वर तक, परमात्मा तक, नारायण तक पहुँच जायेगी, एक बार अपने हृदय के द्वारा खोलकर देखों, एक बार साहस करके देखो द्रौपदी की तरह, छोड़ दो ईश्वर रूपी नारायण पर सब कुछ पार लगाने की जिम्मेवारी उनकी है।
क्योंकि भगवान के लिये यह कोई विषय ही नहीं है, परमात्मा की ओर से ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। भक्त की जहां से भी, जिस भी स्थिति में आत्म पुकार होगी, ईश्वर की उपस्थिति वहां निश्चित ही होगी। भगवान को पुकारने के लिये शरीर नहीं चित्त शुद्ध होना, प्रसाद नहीं भाव अच्छे होने चाहिये। यह प्रमाण आपके सामने द्रौपदी के रूप में है, लेकिन यह आजमाने का विषय नहीं है, क्योंकि यदि आप भक्त हैं, तो आपका कर्तव्य है, कि आप शरीर, मन, भाव की शुद्धि के साथ ईश्वर के सामने जायें, लेकिन आवश्यकता पड़ने पर, भगवान की ओर से अपनी संतान के लिये हर तरह छूट है, पर शर्त वही पुरानी है, कि पुकार हृदय के सागर से निकलनी चाहिये। साधना जगत की सारी क्रियायें भावनाओं पर आधारित है, सभी देवी-देवता भावनाओं के अनुरूप फल प्रदान करते हैं, जैसी जिसकी भावना होती है, उसी के अनुरूप वह फल प्राप्त करता है, कृष्ण को किसी ने भगवान के रूप में देखा, पूजा तो किसी ने उन्हें द्वारकाधीश के रूप में जाना, गोकुल में उन्हें नटखट कान्हा कहा गया तो यशोदा उन्हें केवल अपना लाला समझती रहीं, जैसी जिसकी भावना रही उसी रूप में उनको कृष्ण दिखे। कहने का तात्पर्य यही है कि जो भी भावना, श्रद्धा, भाव के साथ आप उपासना, स्तुति करेंगे, उसी रूप में आप फल प्राप्त करेंगे।
जीवन में सम-विषम स्थितियां बनती बिगड़ती रहती है इसलिये जब भी कर्म फल भोगने का समय आये तो घबराना नहीं, धैर्य, संयम बनाये रखना, जीवन में सम भाव बना रहना अत्यन्त आवश्यक है, कुछ भी हो जाये, इष्ट पर संदेह नहीं होनी चाहिये, संदेह की स्थिति बड़ी भयावह होती है, संदेह से ग्रसित व्यक्ति ना इधर का होता है, ना उधर का।
बहुत ही सौभाग्यशाली होते है, वे साधक, जो भगवान की भक्ति में पूरी तरह रम जाते हैं, अपने रोम-रोम में भगवान को बसा लेते हैं। जीवन की प्रत्येक क्रिया को भगवान का अनुग्रह समझ कर पूरी श्रद्धा के साथ ग्रहण करते हैं। ऐसे ही साधक, भक्त अपने जीवन में अद्वितीय उपलब्धि प्राप्त करने में सफल होते हैं। जीवन को सफल बना पाते हैं और जीवन सफल केवल इसलिये नहीं होता है कि किसी व्यक्ति के पास अपार धन हो, बंगला गाड़ी हो, सफलता का सूचक यह नहीं हो सकता सफल जीवन तो वह है, जहां शांति, प्रेम, संतुष्टि और इष्ट के प्रति, अध्यात्म के प्रति लगाव हो आत्मिक शक्ति हो, साधना शक्ति को, परिवार में सम्मान हो, आपस में आत्मीक लगाव हो। जीवन में कोई भी कार्य हड़बड़ाहट में ना करे, जल्दबाजी जोखिम से भरी होती है, जिसके कारण क्षति की संभावना बढ़ जाती है। इसलिये अपने जीवन में संयम, धैर्य को महत्व दें और जब बात एक साधक की हो तो उसके जीवन में धैर्य का बहुत बड़ा योगदान होता है, धैर्य की तपस्या से सफलता प्राप्त कर सकते हैं। इन सब बातों का इतना ही तात्पर्य है कि आप स्वयं में धैर्य और संयम का विकास करें, जिससे आपका मस्तिष्क दबाव रहित होकर, सन्मार्ग पर क्रियारत रहे और आप अपनी इच्छा अनुसार अपने जीवन को अग्रसर करने में सफल हो।
जब सूरज निकलता है, तो पृथ्वी पर एक परिवर्तन शुरू हो जाता है। जो कलियां बंद होती है, वे खिलने लगती है। वृक्ष, पौधे, पशु, पक्षी जीवन्त हो जाते है। जो सुगंध थी, वह प्रगट होने लगती है। सूर्य की रोशनी पृथ्वी पर पड़ते ही पृथ्वी पर जीवन आ जाता है और पृथ्वी सूर्य के प्रभाव से प्रकाशित हो जाती है। सूर्य की रोशनी के हटते ही, अंधकार से पृथ्वी अचेतन हो जाती है। सभी कुछ शून्य की अवस्था में चला जाता है, सूरज के उगते ही जागरण आना शुरू हो जाता है। वहां सब कुछ सुप्त है। सब अचेतन है। वहां ज्ञान की रोशनी तेज हो जानी है जिसके पहुँचते ही जागरण संभव है। सद्गुरू की चेतना ले जानी है। किस प्रकार हम चित्त की गहराईयों में ज्ञान की रोशनी ले जा सके? कैसे वहां प्रकाश पहुँचा सकें कि वहां पर स्थापित अंधकार समाप्त हो जाये जिससे हमारे सारे प्राण आलोकित हो उठें। उस प्रकाश को ले जाने की विधि ही सद्गुरू है।
जीवन का सर्वाधिक मूल्यवान सूत्र मन के अंधेरे कक्षों में रोशनी को ले जाना है। ज्ञान के उस प्रकाश के पहुँचते ही चित्त में परिवर्तन होना शुरू हो जाता है। जो कलियां सुप्त थी वह खिलकर फूल बन जाती है। मनुष्य के भीतर जो प्राण शक्ति लुप्त थी, वह जाग उठती है और जिस दिन प्राण शक्ति पूर्णरूपेण जाग जाती है, उस दिन प्राणों में एक सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। फिर मनुष्य के भीतर कोई द्वंद्व, कोई कलह नहीं रहता। उसके भीतर एक शांति स्थापित हो जाती हैं। थोड़ा बहुत प्रकाश मौजूद है। यदि उतना भी प्रकाश मौजूद न होता तो फिर हम कुछ भी नहीं कर सकते थे। लेकिन थोड़ा प्रकाश मौजूद है। हमारे मन के किसी कोनो में एक दीया जला हुआ है, वहां रोशनी हो रही है। उसी रोशनी में आप सद्गुरू की बातें सुन रहे है। उसी रोशनी में आप चल रहें है। उसी रोशनी में आप जी रहे है, विचार कर रहे है उसी रोशनी में।
यह जो चेतन मन है इसका हमने पदार्थ में प्रयोग किया है। इतनी बड़ी दुनिया खड़ी हो गई विज्ञान की। हम पदार्थ में प्रवेश करते गये और हमने अणु को और अणु के भी गहरे न्युट्रोन, इलेक्ट्रोन को खोज लिया, बड़ी शक्ति हाथ में आ गई। यदि हम इस चेतना का उपयोग बाहर न करके भीतर करें तो जिन लोगों ने बाहर प्रयोग किया है, वे अणु तक पहुँच गये। जो व्यक्ति अन्दर उपयोग में लाता है, वह आत्मा तक पहुँच जाता है। यदि वह रोशनी है, दीया है। हम घर के बाहर रोशनी कहते है तो रास्ता दिखाई पड़ता है। घर के भीतर करते हैं तो घर के कष्ट दिखाई पड़ते है। ध्यान, साधना, दीक्षा इस रोशनी को भीतर ले चलने की ही क्रिया है। आँख बंद करके हम अन्दर उतर कर प्रकाश को बढ़ाने की कोशिश करते हैं। परन्तु अधिकांशत होता यह है कि जब हम एक साधना में सिद्धि नहीं प्राप्त कर पाते है तो उसे छोड़ कर यह सोचते है कि दूसरी साधना में हमें शीघ्रता से सफलता मिल जायेगी, ऐसा सोच कर हम डाल-डाल दौड़ते है और संशयात्मक प्रवृति तथा नास्तिकता के भाव की वृद्धि होती है। ऐसी स्थिति इसलिये आती है क्योंकि हम वास्तव में अपने गुरू को समझ ही नहीं पाते उसके स्वरूप को पहचान ही नहीं पाते और भ्रम जाल में फंसे रहते हैं।
जब हमारे समक्ष ऐसी स्थिति उत्पन्न हो तो हमें तत्काल समस्त साधनाओं को छोड़कर एक मात्र गुरू चरणों में समर्पित हो जाना चाहिये क्योंकि सभी साधनाओं रूपी वृक्ष के मूल में तो गुरू ही है। गुरू से जुड़े रहने से ही घर-परिवार और संसार से जुड़े रहते है। इष्ट या गुरू से नाता तोड़ने से जीवन की हर कुस्थिति की ओर अग्रसर हो जाते हैं।
हमारे चेतन मन में जो-जो वृत्तिया उठती है, अगर हम एक-एक वृत्ति को पकड़कर उसका पीछा करें तो उस अंधेरे कमरे में हम पहुँच सकेंगे जहां से वह वृत्तियां जन्म लेती है। एक कमल का फूल एक तालाब पर खिला है, फूल ऊपर दिखाई पड़ता है, उस फूल के नीचे कहाँ से वह फूल आया है, कहां उसकी जड़ें है, वह कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता सिर्फ फूल दिखाई पड़ता है। अगर फूल की डंडी के माध्यम से धीरे-धीरे हम वहां पहुँच जायेंगे, नीचे जमीन के अन्दर जहां उसकी जड़े छिपी है, जहां से उसका जन्म हुआ था। तो मनुष्य अगर अपनी वृत्तियों का अनुसरण करें, चित्त के पीछे-पीछे जाये धीरे-धीरे वह अपने गहरे अचेतन मन के तलों तक पहुँच जायेगा और उसके साथ ही निरीक्षण के साथ वह रोशनी पहुँच जायेगी, जो देखती है। मैं तो वृत्तियों के अनुसरण को ही तप कहता हूँ, उपवास करने को नहीं थोड़े अभ्यास भर की जरूरत है और रोज-रोज करता रहे तो अभ्यास धीरे-धीरे पूरा हो ही जाता है।
मानव मन हमेशा संकल्पों विकल्पों से घिरा रहता है, इसीलिये जब भी हम कोई कार्य प्रारम्भ करते हैं तो हमारे हृदय में उसके परिणाम को लेकर अत्यधिक हलचले होती है। जब हम किसी साधना में प्रवृत्त होते है। तो हमें प्रारम्भ में काफी उत्साह एवं श्रद्धा रहती है। परन्तु सब साधना धीरे-धीरे अपने मध्य चरण में प्रवेश करती है तभी हमारा मन अधीर हो जाता है तथा हम इस बात पर विचार करते हैं कि हमें सफलता क्यों नहीं मिल रही कौन सी न्यूनतायें है, हम यह समझ बैठते हैं कि अब इस साधना में हमें सिद्धि नहीं प्राप्ति होगी।
इसका प्रमुख कारण मन की चंचलता होती है और जब मन चंचल होता है तथा उसके सामने कोई निश्चित लक्ष्य नहीं होता है तथा उसके मन की निश्चित धारणा नहीं होती है तो वह इधर-उधर भटकने लगता है और मन साधना के मार्ग पर दृढ़ निश्चयी नहीं हो पाता है। वास्तव में साधना के क्षेत्र में निर्बल, कमजोर, अस्थिर, मन सदैव ही असफलता ही देता है संसार के आकर्षण साधक को अपनी ओर खीचें रखते हैं। प्रत्येक मनुष्य का मन व धारणा अच्छे कार्यो की ओर लगाने का प्रयत्न किया करती है। लेकिन आलस्य तथा स्वार्थ के कारण मनुष्य मन आत्मा की पुकार को भी अनुसुना कर देता है और कर्म भाव व कर्त्तव्य को भूल जाता है। मन से भयभीत व्यक्ति की सभी शक्तियां नपुंसक बन जाती है। मन को शक्तिशाली, संस्कारी, संवेदनशील बनाना चाहिये, मन जितना सुन्दर निर्मित होगा, जीवन उतना ही श्रेष्ठ बनेगा। मन को श्रेष्ठ कार्यों में एकाग्रचित करने पर ही जीवन में श्रेष्ठता आती है।
अपने मन के समस्त संकल्प विकल्प से ऊपर उठा कर एकमात्र इष्ट अथवा गुरू चरणों में दृढ़ करें क्योंकि शास्त्रें में साधना की सफलता से सद्गुरू का महत्त्व सर्वोपरि बताया गया है। समस्त आध्यात्मिक और भौतिक प्रगति के आधार सद्गुरू ही होते है। अतः प्रकृति के सभी चक्रो-उपत्यिकाओं, इडा पिंगला, सुषुम्ना आदि नाडि़यों का उनके परिष्कार का ज्ञान गुरू कृपा से ही मिलता है। गुरू मनुष्य रूप में वस्तुतः सच्चिदानन्द धनरूपी परमात्मा का दर्शन कराने वाली झरोखे रूपी सत्ता है। उसी के माध्यम से हमें अनन्त का विस्तार दिखाई पड़ता है। गुरू के बिना अनुभवों में समग्रता नहीं आ पाती। साधना एक प्रकार से शरीर रूपी मकान में वायरिंग के समान है। उसका स्विच आन करने का काम गुरू ही करता है।
परम् पूज्य सद्गुरूदेव
कैलाश श्रीमाली जी
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