समाज और सामाजिक स्तर पर जीवन जन्म से मृत्यु के विविध संस्कारों में गुंफित है। हमारी भारतीय संस्कृति व मानक सिद्धांत, जो संस्कारों के बल पर सुदृढ़ हुए हैं, मानव-समाज को आचार-विचार के महत्व की सीख देते हैं, इसीलिये हमारे ऋषि-मुनियों ने मनुष्य के सांसारिक जीवन के संस्कारों, विद्या-ग्रहण, उपनयन, विवाह, पारिवारिक एवं सामाजिक कर्तव्य का बोध संस्कार-ग्रहण तदनंतर मृत्यु के संस्कारों-अंत्येष्टि आदि का वर्णन किया है। सभी षोड़श संस्कारों का जीवन में पूर्ण औचित्य और महत्त्व है।
हमारे देश में प्रचलित धारणा है कि कुछ संस्कार जन्मजात होते हैं, जिन पर पूर्वजन्म की छाप होती है। इसी कारण कुछ बालकों में महापुरूषों के लक्षण बाल्यावस्था से ही दिखाई देते हैं, अल्प प्रयास से ही उनकी प्रतिभा जगमगाने लगती है। उन्हें क्या बनना है- उसके लक्षण स्पष्ट दिखने लगते हैं, फिर समुचित वातावरण एवं परिवेश रूपी आलोक पाकर उनकी प्रतिभा कमल की भांति पूर्णरूपेण जाग्रत हो जाती है। इसीलिये हमारे समाज में संस्कार प्रदान करने की प्रक्रिया रही है ताकि यह जन्म तो सुधरे ही जन्मांतर भी उत्तम प्रारब्ध बनकर प्राप्त हो। संस्कार हमारे मन पर मनोवैज्ञानिक असर भी डालते हैं, साथ ही साथ हमें कर्तव्यनिष्ठ एवं धर्मपरायण भी बनाते हैं।
एक सम्राट के रथ के थोड़ी दूर आगे साधारण-सादे वस्त्र में एक महात्मा जा रहे थे। सम्राट के रथ के आगे किसी के चलने का दुस्साहस कैसे? ऐसा समझकर एक सैनिक उस महात्मा के पास पहुँचा, बोला- ‘हटो रास्ते से, देखते नहीं सम्राट की सवारी आ रही है?’ महात्मा ने पीछे मुड़कर रथ की ओर देखा फिर मुस्कुराकर वे शांत भाव से चलते रहे। महात्मा की इस हठ की शिकायत अंगरक्षक ने सम्राट से की। सम्राट को बहुत क्रोध आया। रथ महात्मा के पास पहुँच चुका था। सम्राट ने कहा- ‘हटो सामने से कौन हो तुम?’ महात्मा ने विस्मित भाव से कहा- मैं सम्राट हूं। यह बात सुनकर सम्राट को और अधिक क्रोध आ गया, वह बोला साधारण वस्त्रें में इस प्रकार नंगे पांव सड़क पर चलने वाला व्यक्ति सम्राट हो सकता है कभी?
महात्मा ने कहा- कीमती वस्त्रें से सुसज्जित, स्वर्ण रथ पर सवार संस्कारविहीन अहंकारी व्यक्ति सम्राट कैसे हो सकता है? सम्राट तो वह है, जिसका चित विकार रहित हो, जो अहंकार विहीन हो, जिसमें सब के प्रति श्रद्धा भाव है, जो संयम, विवेक द्वारा पूर्णरूपेण अनुशासित और सुसंस्कृत हो। जिसे स्वयं पर अनुशासन नहीं, वह किसी राज्य का शासन कैसे चला सकता है? महात्मा की बात सुनकर सम्राट नतमस्तक हो गया।
निष्कर्ष यह है कि जीवन एक यज्ञ है, संस्कार इस यज्ञ के आधार हैं, किन्तु साधना और संकल्प इस यज्ञ की पूर्णता है। संस्कार-संपन्नता मानव-जीवन को अनुशासित करने की एक सार्थक प्रक्रिया है। मानव-शरीर अनुशासित-प्रक्रिया का जीवंत स्वरूप है। अनुशासन और संतुलन में संबंध है। जिस प्रकार जरा-सा संतुलन बिगड़ने पर शरीर रोगग्रस्त हो जाता है, ठीक उसी प्रकार संस्कारों के अभाव में हमारा जीवन असंस्कृत हो जाता है। संस्कार हमारे आंतरिक सद्गुणों की वृद्धि करके अनुशासित जीवन जीना सिखाते हैं। साथ ही ज्ञान के माध्यम से जीवन में शुचिता, श्रेष्ठता, मनोरथों की पूर्णता की भाव भूमि में निरन्तरता बनी रहती है। दुर्गुणों से ग्रस्त अर्थात् संस्कार-हीन मनुष्य का अनुशासन-विहीन हो जाना स्वाभाविक है और अनुशासन-विहीन मनुष्य का कुसंस्कारी होना भी ध्रुव सत्य है।
संस्कार से मनुष्य में योग्यता आती है। मनुष्य जीव के रूप में जन्म लेता है। पालन-पोषण, संरक्षण से उसकी प्राणशक्ति सबल होती है और जीवन जीने की प्रक्रिया में आनन्द और सरलता का भाव रहता है। वह जीवन जीने की प्रक्रिया प्रारम्भ करता है। लेकिन एक व्यवस्थित जीवन जीने, सार्थक जीवन जीने के लिये जीवन-प्रक्रिया को निखारने की जरूरत होती है, जिसकी पूर्ति संस्कार से ही संभव है। संस्कार-प्राप्ति का वह पल उसके ज्ञान-जगत् का पल होता है। किन्तु संस्कार-प्राप्ति ही पर्याप्त नहीं है, अपितु प्राप्त-संस्कार के अनुरूप साधना भी आवश्यक है। साधना ही व्यक्ति के जीवन को निखारती है।
मानवीय संस्कारों की सार्थकता तब तक सिद्ध नहीं होती, जब तक पारिवारिक और समाजिक संस्कार के पल्लवित-पुष्पित होने का मौका नहीं मिलता। तेजोमय संस्कार के सद्गुणों के आलोक से ही भौतिक जगत् के तमस को दूर करना संभव है। सिर्फ आदमी ही एक ऐसा जीव है, जो रोते हुए पैदा होता है, शिकायतें करते हुए जीता है और हर समय ऊपर वाले पर नाराज होता हुआ अन्त में दुनिया से चला भी जाता है। सब कुछ होने के बाद और पूर्णरूपेण भोग-विलास में लिप्त रहने के बाद भी हम ‘प्रभु’ से मांगते रहते हैं, मांगने की प्रवृति बनी रहती है- पता नहीं, हमारी यह मांगने की आदत छूटेगी या नहीं। इससे तो पशु अच्छे हैं, जिन्हें कभी किसी से गिला शिकवा नहीं होता। बीज से ही वृक्ष बनता है, जैसा बीज होगा, वैसा ही वृक्ष होगा, हम प्रकृति के नियमों को बदल नहीं सकते। जैसा आचार-विचार व्यवहार हम करेंगे, हमें उसी के अनुसार फल मिलता है।
यह शरीर किसका है? इस शरीर पर किसका अधिकार है- यह शरीर क्या पिता का है, माता का है या अपना स्वयं का है? ‘पिता कहता है कि यह मुझसे उत्पन्न हुआ है, इसलिये इस शरीर पर मेरा अधिकार है।’ ‘मां कहती है कि ‘मेरे गर्भ से यह उत्पन्न हुआ है’ इसलिये यह मेरा है।’ ‘पत्नी कहती है कि ‘इसके लिए मैं अपने माता-पिता को छोड़कर आयी हूं, अतः इस पर मेरा अधिकार है। इससे मेरी शादी हुई है, मैं इसका आधा अंग बनी हूं, इसलिये यह मेरा है।’ ‘अग्नि कहती है कि यदि शरीर पर माता-पिता, पत्नी का अधिकार होता तो प्राण जाने के बाद वे इसे घर में ही क्यों नहीं रखते? इस शरीर को श्मसान पर लाकर लोग इसे मुझे अर्पण करते हैं, इसलिये इस पर मेरा अधिकार है।’ ‘इस तरह सभी इस शरीर पर अपना-अपना अधिकार बतलाते हैं।
प्रभु कहते हैं, ‘यह शरीर किसी का नहीं है। मैंने इस जीव को अपना उद्धार करने के लिये दिया है। यह शरीर मेरा है।
संसार में दुखों का प्रधान कारण मोह है। ना मालूम कितने लोग प्रतिदिन मरते हैं और कितने लोगों के धन का नित्य नाश होता हैं, पर हम किसी के लिये नहीं रोते, किन्तु यदि अपने यहां कोई व्यक्ति मर जाय या अपना कुछ धन नष्ट हो जाय तो शोक होता है। इसका कारण मोह ही है। हमारा एक मकान है, यदि कोई आदमी उसकी एक ईंट निकाल लेता है तो हमें बहुत बुरा लगता है। हमने उस मकान को बेच दिया और उसकी कीमत का चेक ले लिया। अब उस मकान की एक-एक ईंट से सारा मोह निकलकर हमारी जेब में रखे हुए उस बैंक के चेक में आ गया।
अब चाहे मकान में आग लग जाय, हमें कोई चिन्ता नहीं। चिन्ता है उस कागज के चेक की। बैंक में गये चेक के रूपये हमारे खाते में जमा हो गये। अब भले ही बैंक के लिपिक उस कागज के चेक के टुकड़े को फाड़ डाले, हमें चिन्ता नहीं। अब उस बैंक की चिन्ता है कि कहीं बाऊन्स ना हो जाये। क्योंकि हमारे रूपये जमा हैं। इस प्रकार जहां मोह है, वहीं शोक है, यदि हमारा सारा मोह सद्गुरू में अर्पित हो जाय, फिर शोक का जरा-सा भी कारण न रहे। भक्त तो सर्वस्व अपने प्रभु को अर्पण कर उनको अपना बना लेते हैं और स्वयं उनका बन जाते हैं। उसमें कहीं दूसरे के लिये मोह रहता ही नहीं, इसलिये वह शोकरहित हुआ। सर्वदा आनन्द में मग्न रहता है।
हम केवल सुख चाहते हैं, मगर हमारे सुख की परिभाषा केवल धन प्राप्ति है, धन आ जाय सुखी हो जायेंगे। परन्तु ऐसा नहीं है, धनवान भी घोर दुखी हैं, धन के साथ जो व्यसन आ जाते हैं, उनसे हम यदा-कदा ही बच पाते हैं। धन का सदुपयोग करना जान जाये तो सुख अवश्य मिलेगा। सरल हृदय, अच्छा व्यवहार, सबका सत्कार, सीमित आवश्यकताएं, सात्विक आहार, परोपकार, समाज और देश प्रेम से हम महान्, श्रद्धावान एवं धनवान बन सकते हैं।
सस्नेह आपकी माँ
शोभा श्रीमाली
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,