शिष्य का जीवन गुरू से जुड़ कर ही पूर्ण बनता है, जीवन की यात्रा तो संसार में जिसने भी जन्म लिया है वह करता ही है लेकिन कितने व्यक्ति इस जीवन में पूर्णता प्राप्त करते हैं, यह ज्यादा महत्वपूर्ण है। सद्गुरूदेव जी ने इस प्रवचन में शिष्य धर्म की पहचान तो स्पष्ट की है, साथ ही जीवन जीने की कला को अपने विशिष्ट भाव प्रवाह वाणी में स्पष्ट किया है उसी प्रवचन का सारांश-यह श्लोक वशिष्ठोपनिषद से लिया गया है और उसमें गुरू और शिष्य का एक विशेष वर्णन आया है।
शिष्योर्वदातुं भव देव नित्यं, कठिनत्व पूर्ण दुर्लभं शरीरं।
चित्रं मया पूर्ण मदीव नित्यं, विश्वो ही एकं विश्वेठवनंजं।।
इस श्लोक में ऋषि वशिष्ठ ने कहा है, कि जीवन में कई लाख योनियां भटकने के बाद में यह मनुष्य शरीर मिलता है और आप सब मनुष्य हैं, चाहे 5 वर्ष के हैं, चाहे 30 वर्ष के हैं, चाहे 100 वर्ष के हैं। उसमें पहले पंक्ति में कहा है कि ‘गुरू’ हमार जाति, गुरू हमार गोत्र। बंगला में उसका ट्रांसलेट किया गया है कि हमारी जाती अब कुछ नहीं रही, हमारा गोत्र भी कुछ नहीं रहा। गुरू ही हमारा नाम है, गुरू ही हमारा जाति है, गुरू ही हमारा गोत्र है, गोत्र का अर्थ- वंश परंपरा। क्योंकि ‘जन्मना जायते शूद्र, संस्कारात द्विज उच्च्यते।’ मां-बाप ने जो जन्म दिया वह तो एक शूद्रवत जन्म दिया। शूद्र का मतलब कोई जाति विशेष से नहीं है, जिसको मल का, मूत्र का, शुद्धता का, अशुद्धता का भान नहीं हो वह शूद्र है। और जिसको इस बात का ध्यान है कि शुद्धता हो, पवित्रता हो, दिव्यता हो, श्रेष्ठता हो, मन में करूणा हो, प्रेम हो वह ब्राह्मण है।
प्रत्येक व्यक्ति जब जन्म लेता है तो शूद्र के रूप में होता है, इसलिये की उसको ज्ञान नहीं होता कि मैं मल में पड़ा हुआ हूं या मूत्र में पड़ा हुआ हूं। मां उसको स्वच्छ करती है, बाकि उसी हाथ से वह अपने किसी शरीर के अंग को जो मल में भरा होता है— जो 4 महीने का, छह महीने का बालक होता है वही वापस मुंह में लगा लेता है और उसी पलंग पर जहां वह लेटा हुआ है वहीं मूत्र कर लेता है, मल कर लेता है और उसी पर खेलता रहता है।
उसको इस बात का ज्ञान नहीं होता कि मैं क्या हूं और जब वह गुरू के पास में आता है, तब गुरू उसको एक नया संस्कार देते हैं। उसको यह समझाते हैं कि यह उचित है, वह अनुचित है और आज से तुम मेरी जाति के हो, मेरे गोत्र के हो, मेरे नाम के हो, मेरे ही पुत्र हो। तो संस्कारात द्विज, द्विज का मतलब है, दूसरी बार जन्म लेने वाला। द्विज— ‘ज’ जन्म लेने वाला, तथा ‘द्वि’ दूसरी बार।
परिवार ने उसको एक बार जन्म दिया, वह तो मां-बाप ने एक संयोगवश दे दिया, कोई प्लान नहीं था, कोई प्लानिंग नहीं थी उनकी, कोई मन में ऐसी भावना नहीं थी कि मुझे एक श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न करना है। वह तो प्रकृति की एक लीला थी और कुछ व्यक्ति और अधिकांश व्यक्ति उसी प्रकार से जन्म देकर समाप्त हो जाते हैं- चाहे वह हमारी मां हो, बाप हो, भाई हो, बहन हो, पड़ोसी हो या रिश्तेदार हो। फिर संस्कार जब मिलता है, तो संस्कार के कारण वापिस से उसका जन्म होता है। तब उसको भान होता है कि मेरे जीवन का लक्ष्य, मेरे जीवन का कर्त्तव्य क्या है, उद्देश्य क्या है, चिन्तन क्या है और मुझे किस जगह पहुँचना है क्योंकि जिस शरीर को हम सब कुछ समझ बैठते हैं, जो भाग्य पदार्थ, हम सब ध्येय मान लेते हैं- चाहे पान खाना हो या मिठाई खाना हो। मिठाई इतनी स्वादिष्ट और इतनी महंगी है, वह हम खाते हैं तो शाम को विष्ठा ही बनती है। सुबह हम उसको देखना भी नहीं चाहते, इतनी गन्दी और घृणित होती है। ये शरीर अपने आप में कोई सुगन्धमय नहीं बना क्योंकि हमने जो कुछ भी फल खाये, सेब खाये, अनार खाये, केले खाये, या मिठाई खायी या रोटी खायी ये सब अपने आप में विष्ठा में परिणित हो जाते हैं। हमारा शरीर क्या कार्य करता है वह मैं आपको समझाता हूं। पशु भी हमसे अच्छे हैं, गाय घास खाकर भी दूध उत्पन्न कर लेती है, हम मिठाई खाकर भी विष्ठा उत्पन्न करते हैं। क्योंकि हमारा पूरा शरीर अपने आप में शूद्रमय शरीर है।
ब्राह्मणमय शरीर बने वशिष्ठ कहते हैं। यही जीवन का उद्देश्य है, यही जीवन का धर्म, यही जीवन का लक्ष्य होना चाहिये। यदि ऐसा नहीं है, तो शूद्र बन कर भी जीवन व्यतीत किया जाता है। उसको कोई रोकता नहीं है। उस जीवन में आनन्द नहीं है, उस जीवन में सुख नहीं है, उस जीवन में तृप्ति नहीं है और यदि आप उत्तम कोटि के वस्त्र पहन भी लेंगे तब भी चार महीने बाद फट कर के पोछा बन जायेगा या बाहर फेंक देंगे।
इस शरीर को यदि आप चार पांच दिन तक धोयेंगे नहीं तो यह शरीर दुर्गन्धमय बन जायेगा। आप चाहे कितना ही पाउडर, लिपस्टिक, क्रीम लगाये तब भी शरीर पर झुर्रियां पड़ ही जायेंगी। इसी शरीर को भगवान का देवालय कहा है मन्दिर कहा है। ‘शरीरं शुद्धं रक्षेत देवालय देवापि च’। ये भगवान का मन्दिर है। जहां भगवान का एक मन्दिर हो, उसमें बाहर एक चार दीवारी होती है, चार दीवारी के अन्दर एक कमरा होता है, कमरे के अन्दर एक और कमरा, उसके अन्दर भगवान की मूर्ति का स्थापन किया जाता है, ठीक उसी प्रकार से अन्दर एक ईश्वर है और ईश्वर के बाहर एक शरीर है, शरीर हड्डियों का ढ़ाचा है। फिर यह चमड़ी ऐसी है जैसे चार दीवारी हो और ये चार दीवारी टूट जाती है तो भी पशु अन्दर घुस सकता है, कि हमें हर क्षण यह ध्यान रहे कि अन्दर मूल मन्दिर में भगवान बैठे हुए हैं या जिनको हमने गुरू कहा है।
गुरू अपने आप में कोई मनुष्य नहीं है, यदि हम किसी मनुष्य को गुरू मानते हैं तो वह हमारी न्यूनता है। एक क्षण ऐसा आता है, कि
यः शिव सः गुरू प्रोक्त, यः गुरू सः शिवः स्मृतः
तस्य भेदेन भावेन, सः याति नरकामगति।
यह शिव है वही गुरू है। यह गुरू है वही शिव हैं। शिव यानी कल्याण करने वाला, सत्यं शिवं सुन्दरम्। जो हमारा कल्याण कर सकें। जो इसमें भेद मानता है, वह अधम है। गुरू और शिव में भेद रहता है, जब तक हम शूद्र रहते हैं तब तक भेद रहता है और एक क्षण ऐसा आता है, जब साक्षात् उस शिवत्व का, उस कल्याण रूप का दर्शन करने लग जाते हैं। जब दर्शन करने लग जाते हैं तब ब्राह्मण वृत्ति की ओर बढ़ने लग जाते हैं। तब इस बात का भान नहीं रहता कि हम घर में सूखी रोटी खा रहे हैं या घी चुपड़ा हुआ है या नहीं या पुड़ी, या सब्जी है, या मिठाई है या फल है क्योंकि वह तो सब अपने आप में एक ही चीज में कन्वर्ट होती है, रूपान्तर होती है। इसलिए वह भेद तो मिट जाता है। जो उसी में लिप्त रहता है वह शूद्र ही रहता है। जब उससे परे हट जाता है कि जो कुछ मिल जाता है प्रभु का प्रसाद है हमें उसको स्वीकार करना चाहिये। साधु तो केवल जंगली फल और हवा, वायु और जल इनका सेवन करके भी अपने आप में तेजस्वी बने रहे और हम उत्तम कोटी के भोज्य पदार्थ खाने के बाद भी 60 वर्ष की अवस्था में मर गये, क्योंकि हमारे हृदय में वह चिंतन नहीं था और जिनके हृदय में चिंतन आ जाता है कि हमारा जीवन ‘त्वदीयं वस्तु गोविन्दं, तुभ्य मेवं समर्पयेत’ ये आपकी दी हुई चीज है, क्योंकि आपने हमें पुनः जन्म दिया है, आपने हमें वापिस संस्कार सिखाया है और ‘तुभ्य मेवं समर्पयेत’ इसीलिये आपको समर्पित है। आप इसका जैसा उपयोग करना चाहें, करें। आप लिखने के लिये उपयोग चाहें, झाडू निकालने का उपयोग करना चाहें, या आपकी इच्छा है जो देने की इच्छा है, जो आप चाहते हैं, मेरी कोई भावना नहीं है, कि मैं झाडू निकालू तो छोटा हो जाऊंगा या लिखूंगा तो बहुत बड़ा हो जाऊंगा। मेरा तो उद्देश्य, मेरा लक्ष्य वही है कि आपने जो काम सौंपा मुझे वह पूरा करना है। इसलिए शिष्य को गुरू के हाथ, गुरू के पैर, गुरू की आंख, गुरू का मस्तिष्क कहा गया है। क्योंकि गुरू अपने आप में कोई सागर बिम्ब नहीं है, निराकार को एक मूर्ति का आकार दिया गया है। ये सारे शिष्य मिलकर के एक गुरूत्वमय बनता है, एक आकार बनता है। इसलिये अगर मैं घमण्ड करूं कि मैं गुरू हूं, यह मेरा घमण्ड व्यर्थ है।
क्योंकि हम विकार ग्रस्त हैं। हमारा ध्यान इसलिये नहीं लगता, क्योंकि हमारा चित्त चंचल है, भटकता रहता है, तो शास्त्रें ने मूर्ति का आकार दिया कि यह मूर्ति है। क्योंकि एकदम ध्यान लगता नहीं तो उस जगदम्बा की मूर्ति को देखते हैं कि अच्छा ऐसी जगदम्बा है। यह प्रतीक मान कर ध्यान लग जाता है। ये सगुण रूप है, आगे जा करके व्यक्ति, निर्गुण रूप में आ जाता है, उसके सामने मूर्ति, चित्र या बिम्ब कुछ होता ही नहीं केवल एक ज्योति होती है, उस ज्योति में वह गुरू के दर्शन करता रहता है। फिर ये सारे उपाय-उपकरण अपने आप में व्यर्थ हो जाते हैं। फिर उसका भी अपने आप में शरीर के प्रति कोई गर्व या घमण्ड नहीं होता। वह तो उसके काम आ जाए, वह उसका उपयोग ले और ऐसे जीवन चिन्तन की प्रक्रिया, ऐसे जीवन का विचार और धारणा जब बनती है तब हम सही अर्थों में मनुष्य बनते हैं। यह धारणा बननी चाहिये, यह विचार आना चाहिये, कि बहुत कम समय है हमारे जीवन में और केवल आधा घंटा भी हम गुरू को दे पायें तो यह श्रेष्ठता है। जीवन के बाकी तो हमें कार्य करने ही है और गुरू कार्य में हमारा कोई स्वार्थ नहीं है, कोई लक्ष्य नहीं है।
स्वार्थ तो पशु करते हैं, कि एक रोटी फेंक देते हैं एक कुत्ता रोटी उठाता है, दूसरा कुत्ता उस पर झपटता है। वहां स्वार्थ है। मनुष्य अपनी रोटी निकाल कर सामने वाले को दे देता है। तुम खाओ ये छोटी रोटी मैं खा लेता हूं। तुम अच्छी सब्जी खाओ मैं कम खा लेता हूं। ऐसा भाव की मैं जमीन पर सो रहा हूं या पलंग पर सो रहा हूं या मैं अच्छा खा रहा हूं या बुरा पी रहा हूं ये अपने आप में महत्वपूर्ण नहीं है। महत्व इतना है कि हमारा शरीर टूटे नहीं, बिखरे नहीं, खायेंगें नहीं तो शरीर बिखर जायेंगा, भोजन नहीं करेंगे तो शरीर कमजोर हो जायेंगा और कमजोर हो जाएगा तो चार दीवारी टूट जायेगी तो उस मन्दिर में अन्दर कोई बदमाश, कोई घटिया आदमी, कोई पशु घुस जायेगा। इस चार दीवारी को सुरक्षित रखना, स्वस्थ रखना जरूरी है। इसकी ईट कोई खिसके नहीं, यह शरीर कमजोर बने नहीं मगर शरीर को मजबूत बनाने के लिए उत्तम भोज्य पदार्थ आवश्यक नहीं है, अनिवार्य नहीं है। मिल जाये तो ठीक नहीं मिलें तो ठीक, पलंग मिला तो ठीक है नहीं मिला तो ठीक है। ऐसी जब मन में भावना आती है और जब वह धारणा बनती है, तो एक क्षण के बाद में समाधि की अवस्था आ जाती है। तब हम बैठते हैं तो हमारी आँखों के सामने गुरू का बिम्ब बिल्कुल साकार स्पष्ट हो जाता है, वह चाहे हजार मील दूर हों।
ऋषि वशिष्ठ के उपनिषद् में कहा है कि ऐसा तो शिष्य पैदा ही नहीं हुआ, हो ही नहीं सकता, शिष्य नहीं कहला सकता क्योंकि सबसे पहले तो एक व्यक्ति होता है, एक लड़का होता है, एक बालक होता है, जो गुरू के पास आता है, उससे मिलता है, जुड़ता है और आते ही उसने गुरू दीक्षा ले ली तो शिष्य नहीं बन गया। दीक्षा ली है, उसके बाद में वह जिज्ञासु बनता है। उसके मन में होता है कि यह गुरू है कि नहीं है, मतलब एक तर्क विर्तक पैदा होता रहता है, यह कैसा गुरू है, यह खुद भी कभी-कभी उदास हो जाते हैं, कभी-कभी रोने लग जाते हैं, गुरू तो रोता नहीं। ये कभी-कभी उदास हो जाते हैं, कभी-कभी विचलित हो जाते हैं, हमें तो कहते हैं कि जमीन पर सोओ ये तो खुद पलंग पर लेटते हैं। तो यह गुरू कैसे हो गये? ये तो मेरे सामने केले खा रहे थे, तो क्या यह गुरू है भी कि नहीं है। इनको हम गुरू मानें कि नहीं मानें? ये तर्क वितर्क पैदा होता है, तर्क वितर्क चलता रहता है, शिष्य नहीं वह जिज्ञासु कहलाता है। उसको जिज्ञासा होती है ये सही है, गलत है। उस भोजन करने से क्या फायदा हो जायेगा, भोजन नहीं करें तो कौन सा मर जायेंगे। ये सब जिज्ञासा होती है, जिज्ञासा वृत्ति का मतलब है कि अभी तक हममें मनुष्यत्व आया नहीं है, शिष्यत्व तो आगे की बात है। अभी मनुष्य वह बना नहीं, अभी जिज्ञासा है, तर्क वितर्क है, संदेह है, भ्रम है। और यह संदेह, यह भ्रम आपके खून में हैं। यह तर्क वितर्क से भरा है क्योंकि उनके मन में ऐसा विचार था, ऐसा चिन्तन था। उन्होंने कभी इस प्रकार का चिन्तन किया ही नहीं। उनके जीवन में ऐसा कोई गुरू मिला ही नहीं, उनको कोई ऐसा रास्ता दिखाने वाला मिला ही नहीं। तो वह भ्रम, वह संदेह, वो न्यूनता हमें देते गये। उस परिवेश, उस वातावरण ने, उस खून ने तर्क वितर्क पैदा किया। इसलिये पहले मैंने कहा कि ‘गुरू हमारी जाति है अब वह पुरानी जाति नहीं रही’। गुरू हमारा गोत्र है, हमारी वह वंश परंपरा भी नहीं रही। जब ऐसा विचार आता है तो हम तर्क वितर्क समझ जाते हैं। ‘एकोहि वाक्यं गुरूम् स्वरूपम्’ गुरू ने कहा है वही वाक्य है।
इसलिये ऋषि वशिष्ठ कहते है, कि तर्क वितर्क से अगली जो स्टेज है, वह शिष्यत्व की स्टेज है और तर्क वितर्क से अगली स्टेज शिष्यत्व की तब बनती है जब गुरू जो करता है वैसा नहीं करें, जो गुरू कहे वैसा करे। दोनों में अंतर है। जो करे गुरू वैसा आप करेंगे तब गड़बड हो जायेंगे। गुरू किसी से किस ढंग से बात करेंगे, किसी को प्रेम से बात करेंगे, किसी को डांटेंगे, किसी के पास बैठेंगे, किसी के पास नहीं बैठेंगे। कृष्ण गोपियों के पास बैठते थे तो हमारा भ्रम, तर्क-वितर्क कहता है ये तो बिल्कुल कृष्ण है ही नहीं। ये तो बहुरूपिया है।
वही उद्धव को उपदेश देते हैं तो ज्ञानी कहलाते हैं। वही व्यक्ति जब गीता का उपदेश देते है तो महान विद्वान कहलाते है। वही दुर्योधन पर प्रहार करते है तो एकदम शत्रुवत व्यवहार होता है और हमारा तर्क वितर्क चलता रहता है कि जैसे अर्जुन के मन में संदेह पैदा होता रहा कि ये ईश्वर हैं भी कि नहीं है, ये गुरू है भी कि नहीं है। कृष्ण समझाते रहे कि तुम मुर्खता कर रहे हो। मैं हूं तुम्हारा ईश्वर। मैं तुम्हारा गुरू हूं। तुम मुझे सारथी समझ रहे हो, तुम मुझे मित्र समझ रहे हो। मै तुम्हारा मित्र नहीं हूं, सारथी नहीं हूं, मैं तो सम्पूर्ण ईश्वर हूं। तो ये कोई घमण्ड नहीं कर रहा था। कृष्ण जब गीता में बता रहे थे कि तुम यों नहीं समझो तो यों समझो कि इतने सैंकड़ों पेड़ हैं, उनमें मैं पीपल का पेड़ हूं, क्योंकि वह पवित्र है, मुझे पीपल का पेड़ समझो। हजारों नदियां हैं तो यों समझो कि मैं गंगा नदी हूं। तुम जिस तरीके से मुझे समझना चाहो समझ लो, समझ लोगे तो ये भ्रम तुम्हारा मिट जाएगा। जब भ्रम मिट जाएगा तो मुझमें तुम एकाकार हो जाओगे।
इसीलिये मैं जो करता हूं वह तुम मत देखो, उसका अनुसरण तुम मत करो। जो मैं कहूं उसका तुम अनुसरण करो, मैं तुम्हें कहूं युद्ध के लिए तैयार हो जा, खड़ा हो जा तो उस समय खड़ा हो जा। कोई जरूरी नहीं है कि तीर फेंको। तुम केवल मेरी आज्ञा पालन करो। तुम मेरा अनुसरण मत करो, जो मैं करता हूं, उसी ढंग से मत करो। इसलिये जब ऐसी स्थिति आ जाती है कि उन्होंने कहा और हमने किया वही शिष्यत्व है। उस समय एक क्षण भी विलम्ब होता है तो समझना चाहिये शिष्यत्व में न्यूनता है।
गुरू कोई ऐसा आदेश देता भी नहीं, देता भी है तो गुरू नहीं है, गुरू की कसौटी है कि ऐसा कोई आदेश नहीं दे जो उसके सामर्थ्य के बाहर हो। गुरू कोई ऐसा आदेश नहीं दे जो अपने स्वार्थ के लिए हो, गुरू कोई ऐसा आदेश ना दे जो अपने प्रयोजन के लिये हो। शिष्य सोचे इस समय गुरू को क्या जरूरत है और इसलिये तीसरी पंक्ति में वशिष्ठ ने कहा है कि सैंकड़ों मील, हजारों मील बैठे हुये भी यदि गुरू के पैर में कांटा चुभता है और यहां दर्द होता है तो समझिये हम शिष्य हुये, यही कसौटी है। जब दूर बैठा हुआ व्यक्ति उदास है तो एकदम से उदासी छा जाती है कि कुछ अच्छा नहीं लगता घर में बैठे हुये भी, तब एहसास होता है कि कोई समस्या तो नहीं है, घर में तो सब ठीक है। पति बैठे हैं, पत्नी बैठी है, बल्कि खेल रहे हैं, मिठाई आ रही है और फिर भी उदासी छाई हुई है और जब ऐसी उदासी छाये, तो समझ लेना चाहिये कि जरूर मेरे साथ वहां से जुड़े हुए मेरे गुरू उदास हैं। जरूर कोई तनाव है उनको, जरूर कोई परेशानी है।
इसलिये कहते हैं, उनको कांटा चुभे और दर्द हमें हो। ऐसा शिष्य हुआ भी क्या कि गुरू रात में तड़पते रहे और शिष्य को नींद आ जाये, उसे शिष्य कह नहीं सकते। ऐसे कैसे हुआ कि गुरू रात में बीमार बुखार से तड़पता रहे और तुम्हे नींद आती रही, तो तुम जुड़े नहीं, तुममें शिष्यत्व नहीं आया। क्योंकि अलग तो हो ही नहीं सकते। एक ही जाति, एक ही गोत्र, एक ही प्राण, एक ही चेतना, एक ही धड़कन। ऐसा तो हो ही नहीं सकता, पैर में कांटा चुभे और तकलीफ नहीं हो। कांटा यहां चुभेगा तो यहां तकलीफ होगी ही होगी। हृदय में तकलीफ होगी, वेदना होगी, इसलिये गुरू और शिष्य का एक ही शरीर होता है, दो तो दिखाई देते हैं परन्तु दो शरीर एक प्राण होता है, उन दोनो शरीर को मिला करके जो चित्र बनता है उसको गुरू कहा गया है।
चौथी पंक्ति में कहा गया है कि जब जिज्ञासु वृत्ति समाप्त हो जाती है, तर्क-वितर्क समाप्त हो जाते हैं, संदेह भ्रम समाप्त हो जाते हैं, तब तीसरी अवस्था उसकी शिष्यत्व की बनती है और शिष्य बनता है तो यह स्टेज आती है कि वे कहीं पर भी हो तब भी हर क्षण मेरे पास मे हैं। चलता हूं, उठता हूं, बैठता हूं, बात करता हूं, तो बिलकुल मेरे पास ही विचरण कर रहे हैं। मैं खाता हूं तो वही खाना खिला रहे हैं, खा रहे हैं। वह ही पास में बैठे हैं। उनको तकलीफ है तो पहले मुझे तकलीफ है। उनको आंच आ रही है तो मैं जल रहा हूं, धूप में खड़े हैं तो मेरा सिर दर्द हो रहा है, क्योंकि वह शरीर बना रहेगा तो और ज्ञान फैलेगा। वो शरीर जल्दी समाप्त हो जायेगा, तो ज्ञान वहां समाप्त हो जायेगा।
इसलिये वह ज्ञान और ज्यादा फैले इसलिये उसकी शरीर की रक्षा करना भी शिष्य का धर्म है। अगर वह तनाव में रहेगा तो कुछ कर नहीं पायेगा, लिख नहीं पायेगा, कुछ ज्ञान चेतना नहीं दे पायेगा। इसलिये उसके मस्तिष्क को जीवित रखना भी एक शिष्य का धर्म है, इसलिये शिष्य को आंख कहा गया है, नेत्र कहा गया है, हाथ कहा गया है, पांव कहा गया है। वह सब मिलकर के फिर जब नई स्थिति बनती है तब वह अपने आप चौथी अवस्था में, पूर्ण परमहंस अवस्था में आ जाता है, गुरूत्वमय अवस्था में आ जाता है, पूर्ण एकाकार हो जाता है, पूर्ण लीन हो जाता है और जैसा कहा गया है, कबीर ने कहा है कि- फूटा कुंभ जल, जल ही समाना यह तथ कहा ग्यानी।
एक घड़े में पानी है, एक नदी में भी पानी है और नदी के अंदर वह घड़ा है। इस संसार में आप हैं, एक गुरू के हृदय में आप हैं मगर उस पानी और इस पानी में अन्तर है, क्योंकि वह घड़े के अन्दर बन्द है। वह पड़ा-पड़ा पानी सड़ जायेगा। आज नहीं सड़ेगा घड़े का पानी तो पांच दिन के बाद में कीटाणु पड़ जायेंगे। ज्योहि वह घड़ा फूटा जल-जल ही समाना, वह जल उस जल में मिल जाएगा। जो आपके ऊपर संदेह का आवरण, जो घड़ा है, जो जल मिला नहीं, मिलाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा है, मिला नहीं पा रहा है, वह घड़ा जब फूटेगा तभी एकाकार हो पायेगा। आपका जब मोह, जब आपकी माया, जब आपका भ्रम, जब आपका संदेह, जब आपका अप्रेम फूटेगा तभी, जल जल ही समान, आपका शरीर, आपका प्राण उनके प्राणों से जुड़ जायेंगे तो यही तथ्य कहा, चिंतन कहा इसलिये यही ज्ञान है, यही चेतना है।
यह ज्ञान जब हमारी चेतना में व्याप्त हो, तब इस शरीर से अपने आप में सुगन्ध-व्याप्त हो जाती है। फिर शरीर से बदबू नहीं आती इस शरीर से दुर्गन्ध नहीं आती। फिर कृष्ण के शरीर से जैसे अष्ट गन्ध निकलती है वैसे उस व्यक्ति के शरीर से भी अष्ट गन्ध निकलने लग जाती है और उस खुमारी में वह मस्त रहता है। अपने काम में लगा रहता है। एक अजीब सी खुमारी है और वो खुमारी तभी आ पायेगी, जब उसके अन्दर एक क्रिया बनेगी, जब उसके अन्दर एक ज्योति प्रकाशित होगी। अपने आप में गुरू के जागरण की स्थिति बनेगी। अपने आप में चेतना पैदा होगी और ऐसी चेतना पैदा होने पर ही वह अपने आप में चौथी अवस्था में आकर के गुरूत्वमय बनता है। शिष्य आगे बढ़कर गुरू के साथ एकाकार हो जाता है। दीक्षा देते ही नहीं हो जाता। चौथी अवस्था में जा करके गुरूत्वमय बनता है। वशिष्ठ कह रहे हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को यह चिन्तन करना चाहिये कि मैं कहां पर खड़ा हूँ। पहली क्लास में खड़ा हूं या दसवीं की परीक्षा दे रहा हूं या एम-ए- का एक्जाम दे रहा हूं, कहां हूं। उम्र का इसमें कोई बन्धन है नहीं। पांच साल के प्रहलाद को ज्ञान हो गया था और साठ साल के हिरण्यकश्यप को ज्ञान हुआ ही नहीं था। अस्सी साल के कंस को भी ज्ञान नहीं हुआ था। तो वो चेतना तब व्याप्त होती है, जब कोई सूखी लकड़ी किसी चन्दन से घिसती है, घिसने पर वही सूखी लकड़ी जो खैर की लकड़ी होती है उसमें भी सुगन्ध व्याप्त हो जाती है।
जब आप गुरू के शरीर से, गुरू के आत्म से, गुरू के पांव ये घिसेंगे अपने आपको एकाकार कर सकेंगे, आप में भी सुगन्ध व्याप्त होगी ही होगी। जब सुगन्ध व्याप्त होगी, तो ऐसी खुमारी आयेगी, एक मस्ती आयेगी। फिर काम करते हुए थकेंगे नहीं आप। फिर आप को यह लगेगा कि मेरा शरीर, मेरा समय नष्ट हो रहा है, मैं और क्या काम करूं, कैसे करूं, कैसे बढ़ाऊं इस चेतना को इस ज्ञान को कैसे फैलाऊं, कैसे उसको उपयोग में लाऊं।
शिष्य को यह सोचना है कैसे मैं गुरू का विश्वास पात्र बन सकूं। मेरे ऊपर वे निश्चित हो सकें और ज्यों-ज्यों आपका क्रोध और आपका अहंकार गलता जायेगा, त्यों-त्यों आप उसमें एकाकार होते जायेंगे। यह क्रिया आसान भी है। आसान इसलिये है कि जिस क्षण आप पहला पांव आगे बढ़ा देंगे, तो दूसरा पांव स्वतः बढ़ जाएगा। दूसरा, तीसरा, आठवां, दसवां और एक दिन अपनी मंजिल तक पहुँच जायेंगे। मगर समय बहुत कम है उसमें बीस साल का गैप, पच्चीस साल का गैप, पन्द्रह साल का गैप नहीं रख सकते। जितना जल्दी उस मंजिल को पार-कर लेंगे, वही हमारे जीवन की एक गति होगी, सुगति होगी, उन्नति होगी श्रेष्ठता होगी, पूर्णता होगी।
हमारी केवल ईश्वर पर आश्रित होने की आदत पड़ गई है। यह बहुत बड़ी बात कही है उपनिषद् ने। बाकी सब शास्त्रें ने ईश्वर के अस्तित्व को माना है। इस उपनिषद्कार ने कहा कि हम स्वयं ब्रह्म हैं तो फिर विधाता कौन है? हम स्वयं विधाता हैं। इसलिए ब्रह्म की परिभाषा इस श्लोक में की गई है कि पांच साल का प्रहलाद भी पूर्ण ब्रह्म था, शुकदेव पांच साल के थे तब भी पूर्ण ब्रह्म थे और कश्यप अस्सी साल के थे तब भी पूर्ण ब्रह्म नहीं थे। जो गुरू के समीप रह सकता है और गुरू के हृदय में प्रवेश कर सकता है वह ब्रह्म है। यह श्लोक ने परिभाषा दी है। जो गुरू के समीप रहता है शारीरिक रूप से या आत्मिक रूप से वह ब्रह्म है और वह गुरू के हृदय में प्रवेश करे। गुरू को भी आप पर स्नेह रहे, वह तब रहेगा जब आपका कार्य होगा, जब आप नजदीक होंगे, आप उनके आत्मीय होंगे। इतने नजदीक कि आप उपनिषद् बन जायेंगे। आप उनके हृदय में उतर जायेंगे तब आप ब्रह्म बन जाएंगे।
ब्रह्म की व्याख्या ऋषि ने बिल्कुल नये तरीके से की। ब्रह्मचारी रहने को ब्रह्म नहीं कहा, शास्त्र पढ़ने वाले को ब्रह्म नहीं कहा गया और ऐसे सैकड़ों ऋषि हुए जिन्होंने विधिवत ज्ञान प्राप्त नहीं किया, स्कूल में नहीं पढ़े और उन्हें ब्रह्म कहा गया। विश्वामित्र सैकड़ों वर्षों तक ब्रह्म नहीं कहलाये क्योंकि वे अपने गुरू को हृदय में उतार नहीं पाये। अपने अहंकार की वजह से, घमंड की वजह से, अलग धाराणाओं की वजह से ब्रह्म ऋषि नहीं कहला पाये और बहुत बाद में जब गुरू के हृदय में उतर सके तो ब्रह्म ऋषि कहलाये।
इसका तात्पर्य यह है कि जो गुरू के हृदय में उतर सकता है चाहे जो भी हो, चाहे मैं ही हूं और उनका इतना प्रिय बन सकूं कि उनके हृदय में उतर सकूं, उनके होठों पर अपना नाम लिखवा सकूं, गुरू को याद रहे, कि यह कौन है। हजारों लाखों शिष्यों के नाम होठों पर नहीं खुदते और होठों पर नाम अंकित करने के लिए गुरू के हृदय में उतरना आवश्यक होता है और उसके लिए असीम प्यार की आवश्यकता होती है। समर्पण की आवश्यकता होती है और प्राणों से प्राण जुड़ने की जब क्रिया होती है तो प्राणों में उतरा जा सकता है, जब उसके बिना रह नहीं सके तो हृदय में उतरा जा सकता है। जिसके बिना संसार सूना-सा लगे उसके हृदय में उतरा जा सकता है।
हृदय में उतरने के लिए आपकी परसनैलिटी, आपकी सुन्दरता, आपकी महानता, आपकी विद्वता, आपके ज्ञान वे सब अपने आप में गौण हैं। इसलिये श्वेताश्वेतरोपनिषद में भाग्य और दुर्भाग्य की बिल्कुल नयी व्याख्या की गयी है। उसमें सब कुछ आपके हाथ में सौंप दिया कि आप स्वंय ब्रह्मा हैं, आप स्वयं भाग्य निर्माता हैं, आप स्वयं दुर्भाग्य के निर्माता हैं, आप स्वयं उपनिषद्कार हैं आप स्वयं गुरू के हृदय में उतरने की क्षमता रखते हैं, सारी बागडोर आपके हाथ में सौंप दी उस उपनिषद्कार ने और मैं समझता हूं कि 108 उपनिषद्कारों में से इसने बिल्कुल यर्थात् चिंतन किया है।
यह श्लोक सोने के अक्षरों में लिखने के योग्य है। इसलिये कि पहली बार एहसास हुआ कि हम सामान्य मनुष्य नहीं हैं, हम स्वयं नियंता हैं, निमार्णकर्ता हैं। मैं बहुत कुछ हूं और मैं स्वयं का निमार्ण करने वाला हूं और मैं सामान्य शरीर से प्रारम्भ होकर के बहुत ऊंचाई तक पहुँचने वाला हूँ। पैदा होते समय व्यक्ति महापुरूष नहीं होता। एक भी महापुरूष नहीं हुआ। आगे जाकर के महापुरूष बने। शुरू में राम अपने आप में महापुरूष थे नहीं। न कृष्ण महापुरूष थे, न बुद्ध महापुरूष थे। राजा के पुत्र थे वे सब। शुरू में सामान्य बालक थे, वैसे ही दौड़ते थे, घूमते थे, खेलते थे। वैसे ही थे जैसे हम और आप हैं। बाद में जाकर उन्होंने उस चीज को समझा जिसका मैंने अभी उल्लेख किया कि मुझे अगर कुछ निर्माण करना है और कुछ बनना है तो मेरी बागडोर मेरे हाथ में है।
जब यह भाव आपके मन में रहेगा तो यह भाव भी रहेगा कि कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता। यह भाव हो कि मैं तो अपना खुद का हूं, नहीं मैं किसी के हृदय में उतर चुका हूं। जब उतर चुका हूं तो यह उनका कर्त्तव्य है कि वह मुझे उस जगह पहुँचाये। पत्नी शादी करने के बाद निश्चित हो जाती है कि यह पति का कर्त्तव्य है कि झोपड़ी में रखे, महल में रखे, गहने पहनाये या नहीं, मारे या प्यार करे। वह अपना हाथ उसके हाथ में सौप देती है।
इसलिये कबीर ने कहा है कि मैं राम की बहुरिया हूं। सूर ने कहा है कि मैं कृष्ण की प्रयेसी हूँ, इसीलिये जायसी ने कहा कि मैं तो सही अर्थों में नारी हूं, ईश्वर की चेरी हूं, दासी हूं। ये सब पुरूष हैं जिन्होंने ये बातें कही और इसीलिये कही कि इन्होंने अपने आपको ईश्वर के हाथों में सौंप दिया है और आप गाते हैं कि अब सौंप दिया इस जीवन का सब भार तुम्हारे हाथों में। है जीत तुम्हारे हाथों में और हार तुम्हारे हाथों में। मगर जीवन में यह भाव उतारने की क्रिया होनी चाहिये केवल बोलने की क्रिया नहीं होनी चाहिये। बोलने से आप अपने आप में ही रहेंगे। करने की क्रिया से आप उनके हृदय में उतर सकेंगे। अंतर यहीं पर आता है। जब आप आपने आपको पूर्ण रूप से समर्पित कर देंगे तो ब्रह्म बन पाएंगे।
पूर्ण रूप से समर्पित करने का मतलब है कि आप अपना अस्तित्व खो दें, यह भूल जायें कि मैं क्या हूं तो आप कुछ प्राप्त कर पायेंगे और जिसने खोया है उसने सब कुछ प्राप्त किया है। मैं शिष्यों के पास बैठता हूँ तो एक घण्टा खोता हूं, मगर यह नहीं खोता, तो आपका प्यार, आपका समर्पण नहीं पाता।
हम द्वन्द्व में जीते हैं और पूरा जीवन द्वन्द्व में बिता देते हैं। चाहे गृहस्थ है या संन्यासी है, पूरा जीवन द्वन्द्व में बिताते हैं। जीवन के अस्सी साल की उम्र में सोचते हैं क्या करें, क्या नहीं करें। प्रतिक्षण आपके मन में तर्क-वितर्क चलता ही रहता है और आप निर्णय नहीं कर पाते। लोग जहां आपको ठेलते हैं आप ठेल जाते हैं क्योंकि आप अपने हाथ में नहीं होते। ऐसे व्यक्ति साधारण होते हैं, मुट्ठी भर व्यक्ति, लाख में से एक दो व्यक्ति अपना जीवन अपने हाथ में रखते हैं। औरंगजेब जब राजा बना तो उसको हाथी पर बिठाया गया कि हमारे यहां पर यह परंपरा है कि हाथी पर बैठकर राजतिलक किया जाता है।
एक राजा पहली बार हाथी पर बैठा, सीढ़ी लगा करके। बैठने के बाद उसने कहा मुझे लगाम दीजिये जिससे कि मैं इसे चलाऊं, जैसे घोड़े की लगाम होती हैं, ऊंट की होती है। उसे कहा गया कि हाथी की लगाम नहीं होती। वह एकदम से नीचे उतर गया, उसने कहा कि मैं इसकी सवारी नहीं करूंगा जिसकी लगाम नहीं होती। मैं यह सवारी नहीं कर सकता, यह सवारी मेरे काम की नहीं है। वह जीवन भी काम का नहीं है जिसकी लगाम आपके हाथ में नहीं है। आपका अर्थ है कि शिष्य और गुरू का एकात्म क्योंकि आप तो अपने आप को समर्पित कर चुके। वह जीवन जीना बेकार है जो आपके हाथ में नहीं है, वह जीवन सार्थक है जिसमें गुरू से सामीप्यता हो, प्रसन्नता के साथ सामीप्यता हो, पूर्णता के साथ सामीप्यता हो, अप्रसन्नता के साथ नहीं हो सकती। यदि आपको कोई गाली दे दें तो कोई उसे सुने या नहीं सुने, गुरू उसे सुने या नहीं सुने मगर वातावरण में वह बात तैरती है और आपको नीचे के धरातल पर उतार देती है। आप जब भी ऐसी कोई बात करते हैं, निन्दा करते हैं या गाली देते हैं तो अपने आप में एक सीढ़ी नीचे उतर जाते हैं। जब भी आप चिंतन करते हैं कि आप उन मुट्ठी भर लोगों में से एक बनेंगे, बनूंगा तो नानक बनूंगा, वीर विक्रमादित्य बनूंगा, तो आप एक कदम आगे बढ़ जाते हैं। विक्रमादित्य भौतिक दृष्टी से एक पूर्णता प्राप्त राजा और नानक एक फक्कड़ दिव्यमय ज्ञानी साधु दोनों की तरह जीना चाहें जी सकते हैं। मगर गधे की तरह काम करेंगे तो राजा की तरह जी पाएंगे। शेक्सपीयर ने कहा कि दिन में गधे की तरह जीना चाहिये और रात में राजा की तरह जीना चाहिये। श्वेताश्वेतरोपनिषद में कहा है कि वह चाहे बालक हो, पुरूष हो या स्त्री हो जो जीवन अपने हाथ में रखता है या गुरू के हाथ में रखता है वही सफल हो सकता है। सिक्के को हम दो भागों में नहीं बांट सकते कि यह सिक्का अगला भाग है और यह पिछला भाग है। सिक्के दो भाग अलग-अलग होते नहीं। एक ही सिक्के के दो भाग होते हैं।
इसी तरह एक ही परसनैलिटी के दो भाग होते हैं जिसमें एक को गुरू कहते हैं, एक को शिष्य कहते हैं। दोनों को मिलाकर एक पूरा सिक्का बनता है और वह बाजार में चलता है, जीवन में चलता है। जब शिष्य गुरू में मिल जाता है, प्रसन्नता के साथ में तो यह मिलना एक निष्ठा की वजह से होता है। एकनिष्ठता का अर्थ है निरन्तर गुरू कार्य में संलग्न और सचेष्ट रहना। मेरा मतलब यह नहीं है कि आप मेरा काम करें। मैं तो केवल श्लोक का अर्थ स्पष्ट कर रहा हूं। आप गुरू को देखें या नहीं देखें परन्तु प्रतिक्षण उनके कार्य में संलग्न रहते हैं, सचेष्ट रहते हैं, निरन्तर आगे बढ़ कर उनके कार्य को करते हैं तो मन में एक संतोष होता है कि मैंने वास्तव में एक क्षण को जीया है, फेंका नहीं है इस क्षण को। इस क्षण में मैंने कुछ सृजन किया है, व्यर्थ नहीं किया है इस क्षण को। इस क्षण में कुछ रचना की है, गालीयां नहीं दी हैं। इस क्षण में किसी का स्मरण किया है, किसी के हृदय में उतरने की क्रिया की है। क्षण आपका है, आप चाहें दो घंटे ताश में बिता दें, वह चाहे आप चिंतन करके या कोई कार्य करके बिता दें।
भाग्य या जीवन तो आपके हाथ में है। सामान्य मनुष्य बस जीवन जी कर बिता लेते हैं। आप जाकर देख लें सड़क पर सब सामान्य मनुष्य हैं। उनमें कुछ विशेषता है ही नहीं, उन्हें पता ही नहीं कि उनके आस-पास कौन रहता है। शिव कहां रहते हैं यह मुझे मालूम है क्योंकि हर क्षण मैंने सृजन किया है। इस पद को प्राप्त करने के लिए तिल-तिल करके अपने खून को जलाया है। जलाया है तो आज पूरा देश पूरा विश्व मानता है कि यह कुछ परस्नैलिटी है। उस सृजन को करने के लिए व्यक्ति को अपने आप को जलाना ही पड़ता है। खून जल जाता है तो वापस आ जाता है, मांस जल जाता है तो वापस आ जाता है, मगर गया हुआ समय वापस नहीं आता। अगर मैं कंकाल भी हो जाऊं, मांस भी गल जाये तो मांस वापस चढ़ जायेगा। मांस चढ़ाने वाले बहुत मिल जायेंगे जो मिठाई खिला देंगे, घी खिला देंगे, मालिश कर देंगे तो मांस चढ़ जायेगा।
मगर कोई मुझे ज्ञान नहीं सिखा सकता, धर्म शास्त्र नहीं सिखा सकता, धर्म शास्त्र का सार नहीं सिखा सकता। कोई भाग्य का निर्माण करके मुझे नहीं दे सकता। मुझे महानता कोई नहीं दे सकता। वह तो सब मुझे खुद को प्राप्त करना पड़ेगा, इसके लिए खुद को जलाना पड़ेगा। उसके लिए रचनात्मक चिंतन करना पड़ेगा। उसके लिए प्रेम करना पड़ेगा, किसी के हृदय में उतरना पड़ेगा और एकनिष्ठ होना पड़ेगा। किनारे पर खड़े होकर नदी को या तालाब को भी पार नहीं किया जा सकता। आप सोचेंगे कि गुरू जी को भी देख लेते हैं, घर को भी देख लेते हैं और बाहर का काम भी देख लेते हैं, सब कुछ एक साथ कर लेते हैं- यह एक निष्ठता नहीं है। एकनिष्ठता का अर्थ है कि एकचित होकर के तीर की तरह एक लक्ष्य पर अचूक हो जाना और जो तीर की तरह चलता है वह जीवन में सर्वोच्चता प्राप्त करता है और जो सर्वोच्चता प्राप्त करता है उसे संसार देखता है और जिसको संसार देखता है उसका जीवन धन्य होता है।
आपकी पीढि़यां जो स्वर्ग में बैठी होती हैं वे भी धन्य अनुभव करती हैं कि हमारे कुल में कोई तो पैदा हुआ जो पूरे भारत में विख्यात है पूरा भारतवर्ष इनको स्मरण करता है, इनकी आवाज पर लाखों लोग एकत्रित हो जाते हैं। इनकी आवाज पर लाखों लोग नाचने लग जाते हैं, झूमने लग जाते हैं। उन्हें भी लगता है कि कुछ तो है इस बालक में, कुछ है और उनको वह प्यारा अनुभव होता है और व्यक्ति पहले दिन से लगाकर अंतिम दिन तक बालक ही रहता है यदि सीखने की क्रिया हो, निरन्तर आगे बढ़ने की क्रिया हो, यदि प्यार करने की क्रिया हो और वह क्रिया भी अपने हाथ में है।
इस उपनिषद में कहा गया है कि सब कुछ आप के हाथ में है आप कैसा जीवन जीना चाहते हैं, घटिया, रोते-झींकते हुए दुःख में अपने जीवन को बर्बाद करते हुए या अपने आप एकनिष्ठता प्राप्त करते हुए जीवन में प्रत्येक क्षण आनन्द प्राप्त करते हुए मुस्कुराहट के साथ में, चिंतन के साथ में, कार्यों में डूबते हुए और अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते हुये। कैसा जीवन आप व्यतीत करना चाहते हैं। वह आपके हाथ में है और यही आपके भाग्य का निर्माण करने वाला तथ्य होता है। जो श्लोक है उसकी व्याख्या जिसने लिखी है उस ऋषि ने की होगी और किसी ने नहीं की होगी। उसका तथ्य समझा नहीं होगा, उसका चिन्तन समझा नहीं होगा। इसलिये मैं कहता हूं कि गीतो को कृष्ण के अलावा किसी ने समझा नहीं है। उनके श्लोकों को लोगो ने समझा ही नहीं। उनकी नवीन ढंग से चिन्तन व्याख्या होनी आवश्यक है।
यह एक जीवन का मेरा लक्ष्य है, उद्देश्य है। आपका भाग्य-दुर्भाग्य, आयु-पूर्णायु, अमरत्व और मृत्यु, पूर्णता और अपूर्णता सब कुछ आपके हाथ में है, मगर उसका बेस एकनिष्ठता है। आप जीवन में एकनिष्ठ बने ऐसा ही मैं आपको आशीर्वाद देता हूं। श्वेताश्वेतरोपनिषद बहुत ही महत्वपूर्ण उपनिषद् है और इसका भाव विश्व आज नहीं तो कल अवश्य ही समझेगा और जब समझेगा तो यह ग्रंथ सबसे आगे की पंक्ति में खड़ा होगा। इस उपनिषद में ऋषि ने अपने सारे ज्ञान को बांध कर रख दिया है और उन्होंने कहा है कि व्यक्ति में कमी है ही और यह कमी रहेगी भी क्योंकि वह समझते हुये भी नासमझ बना रहता है। जानते हुये भी अज्ञानता अपने अन्दर स्थापित करता रहता है, प्रकाश की किरण बिखरने पर भी वापस अंधकार में स्वयं को ठेल देता है।
ऋषि यह कहना चाहते है कि मैं समझा रहा हूँ शिष्यों को मगर शिष्य पांच मिनट के बाद फिर इस ज्ञान की किरण पर अपने अंधकार को ढक देंगे और मेरा कहा हुआ बेकार हो जायेगा। जो चिंतन मैंने प्रस्तुत किया है वह दो मिनट या पांच मिनट रहेगा और वापस इसके ऊपर रेत जम जायेगी और यह चिन्तन समाप्त हो जायेगा। यह व्यक्ति का स्वभाव है और रहेगा। जो इस स्वभाव को धक्का मार कर आगे निकल जाता है वह अपने आप में ऊंचाई की ओर पहला कदम रखता है।
ऋषि ने पहली बात यह कही कि व्यक्ति जानते हुए भी अनजान बना रहता है क्योंकि अनजान बना रहना उसकी प्रवृत्ति है। अनजान इसलिये बना रहता है कि वह सुरक्षित है, वह कहता है मुझे इसका ज्ञान नहीं क्योंकि इससे कोई लाभ नहीं। परन्तु ऐसा कहकर, वह अपने को छलावा देता है, दुनिया को मूर्ख नहीं बना रहा है अपने आप को मूर्ख बना रहा है।
दुनिया जैसी चीज इस संसार में है ही नहीं। दुनिया जैसा शब्द है ही नहीं, संसार जैसा शब्द है ही नहीं। देश जैसा भी कोई शब्द नहीं है। क्योंकि देश या संसार या विश्व ये सब व्यक्तियों के समूह से बनते हैं। ऐसा नहीं कह सकते कि यह देश है। एक नक्शा है वह देश तो हो ही नहीं सकता। देश के लिए आवश्यक है कि लोग हो। एक निश्चित भूभाग पर रहने वाले लोग देश के निवासी कहलाते हैं। आप भारत वर्ष के लोग है इसलिये भारतवर्ष है। भारत में कोई मनुष्य रहेगा ही नहीं तो भारतवर्ष होगा ही नहीं। इस श्वेताश्वेतरोपनिषद के रचनाकर ने हमें सिखा दिया कि हम जमीन पर पड़े रहकर आसमान में छेद कैसे कर सकते हैं। जमीन पर खड़े होकर देवताओं के समान पूरे विश्व में कैसे वन्दनीय हो सकते हैं, जमीन पर पड़े रहकर कैसे अपने माता-पिता का नाम रोशन कर सकते हैं।
उस ऋषि की वाणी को मैं आपके हृदय में उतार रहा हूं जिससे आपके हृदय का अंधकार दूर हो और यदि प्रकाश बिखेरा तो प्रकाश बिखरेगा ही। मैं आपको ऐसा आशीर्वाद दे रहा हूं कि आप एक सामान्य व्यक्ति से आगे बढ़ करके जिज्ञासु, जिज्ञासु से आगे बढ़ करके शिष्य, शिष्य से आगे बढ़ करके आत्मीय बन जाएं, एकाकार हो जाएं, झूमने लग जाएं। ऐसी स्थिति आपकी बने, मैं ऐसा ही आपको हृदय से आशीर्वाद देता हूं, कल्याण कामना करता हूं।
परम् पूज्य सद्गुरूदेव
कैलाश श्रीमाली जी
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,