आप सब भी ऐसी ही स्थिति मे हैं। आपके अन्दर भी एक छोटा सा चेतना का झरना है और उसमें अगर चेतना प्रकट हो सकी है तो सिर्फ इसीलिये कि वह कहीं न कहीं चेतना के महासागर से आप जुड़े हैं। एक तो बुद्धि है, जो विचार करती है, और एक हृदय है, जो अनुभव करता है। हमारे अनुभव की ग्रंथि बंद रह गई खुली नहीं, गांठ बनी रह गई है। हमारे अनुभव करने की क्षमता पूर्णरूप से विकसित नहीं है। इसीलिये प्रश्न उठता है-भगवान है या नहीं? लेकिन प्रश्न अगर जरा गलत हुआ तो उत्तर कभी सही नहीं हो पाएगा। मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, भगवान कहां हैं? मैं उनसे पूछता हूं, भक्ति कहां है? भक्ति, श्रद्धा, विश्वास पहले होना चाहिये। लेकिन उनका प्रश्न विचारणीय है। वे कहते हैं, जब तक हमें भगवान का पता न हो, तब तक भक्ति कैसे करें? किसकी भक्ति करें? कैसे करें? किसके चरणों में झुकें? अपने भगवान, अपने इष्ट, गुरू पर विश्वास पहले होना चाहिये। तभी हम झुक सकेंगे?
चूंकि भगवान की खोज उन्होंने गलत जिज्ञासा से की अब इस गलत जिज्ञासा के कारण बहुत से गलत समाधान उठते रहेंगे। भक्ति के लिये भगवान की कोई जरूरत ही नहीं है। आंख के उपचार के लिये सूरज की क्या जरूरत है? भक्ति के लिये सिर्फ तुम्हारे प्रेम के, भाव को बढ़ाने की जरूरत है, भगवान की कोई जरूरत नहीं है। प्रेम को इतना बढ़ाओ कि अहंकार उसमें डूब जाये, लीन हो जाये। जहां प्रेम निरअहंकार को उपलब्ध हो जाता है, वहीं भक्ति बन जाता है। भक्ति का भगवान से कुछ भी संबंध नहीं है। भक्ति तो प्रेम का ऊर्ध्वगमन है। प्रेम को मुक्त करो क्षुद्र से प्रेम को बड़ा करे। प्रेम की बूंद को सागर बनाओ। जिससे भी प्रेम करते हो, गहनता से करो। जहां भी प्रेम हो, वहीं अपने को पूरा उडेल दो। कंजूसी न करो। अगर प्रेम में कृपण हो, तो प्रेम नहीं रहता और प्रेम अगर अकृपण हो, तो भक्ति, श्रद्धा आनन्द बन जाता है और जहां तुम्हारे अन्दर भक्ति, श्रद्धा, विश्वास अपने गुरू, अपने इष्ट व भगवान के प्रति जागृत हुआ वहीं तुम्हें पूर्णता प्राप्त हो जायेगी, वहीं तुम्हें भगवान के दर्शन हो जायेंगे। तुमसे कहा गया है बार-बार कि भगवान पर भरोसा करो ताकि भक्ति हो सके। हमारे ऋषि-मुनियों ने कहा कि अथातो भक्ति जिज्ञासा! अब भक्ति की जिज्ञासा करें। और जिसने भक्ति की जिज्ञासा नहीं की, वह आया तो संसार में लेकिन संसार में व्यर्थ ही जीवन गंवाया। जीया और जी नहीं पाया, उसकी जीवन कथा दुर्दिनों की कथा है और दुर्घटनाओं की। अवसर तो मिले, लेकिन कोई भी उपयोग नहीं कर पाये। जो बिना श्रद्धा, प्रेम, भक्ति के बिना जी लिया, जो बिना गुरू को जाने जी लिया, उसका जीवन जीवन नहीं है।
श्री विवेकानंद ने कहा है जब मैं जागा तब मैंने जाना कि जीवन क्या है। उसके पहले तो जो जाना था, वह मृत्यु ही थी। उसे भ्रांति से जीवन समझ बैठा था। जब आंख खुली तब पहचाना रोशनी क्या है। उसके पहले जिसे रोशनी समझी थी, वह तो अंधेरा निकला। जब हृदय खुला तो अमृत की पहचान हुई। एक राजा का दरबार लगा हुआ था। क्योंकि सर्दी का दिन था इसलिये राजा खुली धूप में बैठा था। पूरी आम सभा सुबह की धूप में बैठी थी। महाराज के सिंहासन के सामने एक टेबल पर कोई कीमती चीज रखी थी। पंडित, दीवान व प्रजा आदि सभी दरबार में बैठे थे। राजा के परिवार के सदस्य भी बैठे थे। उसी समय एक व्यक्ति आया और प्रवेश माँगा, प्रवेश मिला तो उसने कहा मेरे पास दो वस्तुयें हैं, मैं हर राज्य के राजा के पास जाता हूँ और अपनी बात रखता हू कोई परख नहीं पाता सब हार जाते हैं और मैं विजेता बनकर घूम रहा हूँ अब आपके नगर में आया हूँ। राजा ने बुलाया और कहा क्या बात है तो उसने दोनों वस्तुयें टेबल पर रख दी, बिल्कुल समान आकार, समान रूप-रंग, समान प्रकाश, सब कुछ नख-शिख समान राजा ने कहा ये दोनो वस्तुयें एक हैं, तो उस व्यक्ति ने कहा, हाँ दिखायी तो एक सी देती हैं लेकिन हैं भिन्न। इनमें से एक है बहुत कीमती हीरा और एक है काँच का टुकड़ा।
लेकिन रूप रंग सब एक है कोई आज तक परख नही पाया कि कौन सा हीरा है? और कौन सा काँच? कोई परख कर बताये कि हीरा है या काँच। अगर परख खरी निकल गयी तो मैं हार जाऊगाँ और यह कीमती हीरा मैं आपके राज्य की तिजोरी में जमा करवा दूंगा। यदि कोई नहीं पहचान पाया तो इस हीरे की जो कीमत है उतनी धनराशि आपको मुझे देनी होगी। इस प्रकार मैं कई राज्यों से जीतता आया हूँ। राजा ने कहा मैं तो नहीं परख सकूंगा दीवान बोले हम भी हिम्मत नही कर सकते क्योंकि दोनो बिल्कुल समान है। सब हारे, कोई हिम्मत नहीं जुटा पाया। हारने पर पैसे देने पड़ेगे इसका कोई सवाल नहीं, क्योंकि राजा के पास बहुत धन है राजा की प्रतिष्ठा गिर जायेगी इसका सबको भय था। कोई व्यक्ति पहचान नहीं पाया, आखिरकार पीछे थोड़ी हलचल हुई एक अंधा आदमी हाथ में लाठी लेकर उठा उसने कहा मुझें महाराज के पास ले चलो, मैंने सब बाते सुनी हैं और यह भी सुना कि कोई परख नहीं पा रहा है।
राजा को लगा कि इसे अवसर देने मे क्या हरज है। राजा ने कहा ठीक है! तो उस अंधे आदमी को दोनो चीजे छुआ दी गयी और पूछा गया इसमे कौन सा हीरा है और कौन सा काँच यही परखना है। उस आदमी ने एक मिनट में कह दिया कि यह हीरा है और यह काँच। जो आदमी इतने राज्यों को जीतकर आया था, वह नतमस्तक हो गया और बोला सही है। अंधे आदमी को बोला-आपने पहचान लिया धन्य हो आप। अपने वचन के मुताबिक यह हीरा मैं आपके राज्य की तिजोरी में दे रहा हूँ। सब बहुत खुश हो गये और जो आदमी आया था वह भी बहुत प्रसन्न हुआ कि कम से कम कोई तो मिला परखने वाला। वह राजा और अन्य सभी लोगो ने उस अंधे व्यक्ति से एक ही जिज्ञासा जताई कि तुमने यह कैसे पहचाना कि यह हीरा है और वह काँच?
उस अंधे ने कहा कि सीधी सी बात है मालिक, धूप में हम सब बैठे है। मैने दोनो को छुआ जो ठंडा रहा वह हीरा जो गरम रहा वह काँच। अंधा आदमी पत्थर को हीरा समझे ले, आश्चर्य क्या? अंधे को परख भी कैसे हो, पत्थर की और हीरे की? अंधे के लिये दोनों पत्थर हैं। आंख फर्क लाती है। आंख में जौहरी छिपा है। तो खयाल रखना, अगर भक्ति की जिज्ञासा नहीं उठी है तो समझना कि अभी तुम जन्मे ही नहीं। अभी तुम गर्भ में ही पड़े हो। अभी तुम बीज ही हो। अभी अंकुरण नहीं हुआ। अभी जीवन की जो परम संपदा है, उसकी भनक भी तुम्हारे कानों में नहीं पड़ी।
सूर्य को देखने के दो उपाय हो सकते हैं। एक तो सीधा सूरज को देखो और एक दर्पण में सूरज को देखो। हालांकि दर्पण में जो दिखाई पड़ता है वह प्रतिबिंब ही है, असली सूरज नहीं। प्रतिबिंब तो प्रतिबिंब ही है, असली कैसे होगा? वह असली का धोखा है। वह असली की छायाँ है। इसलिये सूरज को देखने के दो ढंग हैं, यह कहना भी शायद ठीक नहीं, ढंग तो एक ही है-सीधा देखना। दूसरा ढंग कमजोरों के लिये है कायरों के लिये है। जो लोग शास्त्रों में सत्य को खोजते हैं वे कायर हैं। वे दर्पण में सूरज को देखने की कोशिश कर रहे हैं। दर्पण में सूरज दिख भी जायेगा तो भी किसी काम का नहीं। छाया मात्र है। दर्पण के सूरज को तुम पकड़ न पाओगे। शास्त्र में जो सत्य की झलक मालूम होती है वह झलक ही है। लेकिन लोगों ने शास्त्र को सिर पर रख लिये हैं कोई गीता, कोई कुरान, कोई बाइबिल लोग शास्त्रों की पूजा में लगे हैं। यह दर्पण की पूजा चल रहीं हैं। सूरज को तो भूल ही गयें। और दर्पणों पर इतने फूल चढ़ा दिये हैं कि अब उनमें प्रतिबिंब भी नहीं बनता। उन पर व्याख्याओं की इतनी धूल चढ़ा दी हैं, सिद्धांतों का इतना जाल फैला दिया है कि अब शास्त्रों से कोई खबर नहीं आती सत्य की।
सत्य को देखना हो तो सीधा ही देखा जा सकता है। इसलिये विवेकानंद कहते हैं भक्ति की जिज्ञासा करें हम। विवेकानंद भी पहले भक्त हो चुके थे, ज्ञानी हो चुके थे शास्त्र निर्मित हो चुके थे। विवेकानंद ने नहीं कहा कि चलो अब शास्त्रों में चलें और सत्य को खोजें, चलों अब शास्त्र में चलें और भगवान की छवि को तलाशें। विवेकानंद ने कहा, हम अपने हृदय को साफ करें। भगवान मिलेगा तो वहीं मिलेगा शब्दों में नहीं, अपने अनुभव में मिलेगा। परमात्मा की झलक तो सब तरफ मौजूद है। और अगर तुम्हें वृक्षों में उसकी झलक नहीं दिखाई पड़ती तो तुम्हें शास्त्रों में उसकी झलक कभी भी दिखाई नहीं पड़ेगी। क्योंकि शास्त्र में तो मुर्दा शब्द हैं।
इसलिये विवेकानंद जैसे ज्ञानी ने कहा है कि सत्य कहा नही जा सकता। और कहने से ही झूठ हो जाता है। क्योंकि शब्द की चौखट बड़ी छोटी है, सत्य का विस्तार अनंत है। क्षुद्र शब्द के भीतर समाने की कोशिश में ही सत्य जड़ हो जाता है। बड़ी पुरानी कथा हैं कबीर के एक गीत में प्रेमी ने प्रेमिका के द्वार पर दस्तक दी आधी रात प्रेमिका ने भीतर से पूछा कौन है? प्रेमी ने कहा मैं हूं तेरा प्रेमी। मेरी ध्वनि नहीं पहचानी? मेरी आवाज नहीं पहचानी? भीतर सन्नाटा हो गया। कोई उत्तर न आया। प्रेमी बेचैन हुआ। उसने कहा, क्या कारण है? द्वार क्यों नहीं खुलता? प्रेमिका ने कहा इस घर में दो के लायक जगह नहीं है। या तो मैं, या तो प्रेम, घर में दो के लिये जगह नहीं है। यह द्वार बंद ही रहेगा, जब तक तुम एक होकर न आओं।
प्रेमी वापस चला गया। कई दिवस आये गये, ऋतुयें आयी गयी, बड़ी साधना की उसने बड़ा अपने को निखारा। शुद्ध किया, आग से गुजरा, कंचन हो गया, एक रात पूर्णिमा को उसने प्रेमिका के द्वार पर दस्तक दी, वहीं सवाल, कौन हो? प्रेमी ने कहा, तू ही है। कबीर कहता है, द्वार खुल गये। भक्त कह दे परमात्मा से, कि बस तू ही है, मैं नहीं हूं। यात्र पूरी हो गयी लेकिन अगर थोड़ा गौर से देखोगे तो जब तक तू का भाव है तब तक मैं का भाव मिट नहीं सकता। क्योंकि तू का अर्थ ही अगर मैं नहीं? तू में सारा अर्थ ही मैं के कारण है तू के पहले मैं है और जब प्रेमी ने कहा तू ही है और तब भीतर तो वह जानता है कि मैं कह रहा हूं। मैं ही तो तू कहेगा, तो तू भी कौन कहेगा?
इसलिये कबीर की तो कविता पूरी हो जाती है कि द्वार खुल गये। लेकिन मैं थोड़ी देर और बंद रखना चाहूंगा अगर कबीर मुझे मिल जाये तो मैं कहूंगा कविता को थोड़ा और चलने दो कहलाओं प्रेमिका से कि जब तक तू है, तब तक मैं भी मौजूद हूं और दो के लिये द्वार नहीं खुल सकेंगे और प्रेमी को तो लौटा दो अभी कचरा जल गया, कंचन बचा, अब कंचन को भी मिट जाने दो। अशुद्धि गई, शुद्धि बची, पाप गया, पुण्य बचा उसे जाने दो और तब मैं कहता हूं, प्रेमी को आने की जरूरत नहीं, प्रेमिका ही आएगी। तब उसे वापस दोबारा लाने की जरूरत नहीं दरवाजा खटखटाने के लिये दो दफा काफी खटखटा चुका अब प्रेमी नहीं लौटेगा। तब प्रेमी जहां होगा, मगन होगा। अब प्रेमिका ही उसे खोजती हुई आयेगी प्रेमिका ही उसे आकर आलिंगन कर लेगी।
जिस दिन भक्त बिलकुल मिट जाता है। भगवान आता ही है। और मैं तुमसे कहता हूं, कि भक्त कैसे भगवान तक पहुंच सकता है? न तो तुम्हें उसका पता मालूम है, न ठिकाना। पता भी लिखोगे तो कहां? जाओगे तो कहां? तुम उसे खोजोगे कैसे? वह मिल भी जाये तो पहचान कैसे होगी? क्योंकि पहले तो कभी जाना नहीं। जब तुम शून्य हो जाओगे, वहां से उत्तर आता है। जैसे बूंद सागर में खो जाये। तुम शून्य हुये कि पूर्ण होने के अधिकारी हुये। तुम मिटे कि परमात्मा आया। क्योंकि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तू का क्या अर्थ है, अगर मैं नहीं? मैं का क्या अर्थ है, अगर तू नही?
कबीर कहते हैं, हम तो एक एक करि जाना। न वहां कोई मैं है, न वहां कोई तू है। हमने तो एक को बस, एक ही तरह जाना। दोई कहै, तिनही को दोजख जिन्होंने दो कहा, वे नर्क में। वह नर्क में है। दो यानी नर्क, एक यानी स्वर्ग। वे ही दो कहते हैं जिन्होंने पहचाना नहीं। और जो दो कहते हैं, वे गहन नर्क में पडे़ रहते हैं। सीमा नर्क है। बंधे हुये अनुभव होना पीड़ा है। सब तरफ से दबे होना दुःख है। कुछ बचा है पाने को। जब तक सब कुछ न पा लिया गया हो। कुछ भी न बचे बाहर। तुम ऐसे फैल जाओ कि आकाश जैसे ढाक लो सारे अस्तित्व को। कि फूल तुममें खिलें, चांद-तारे तुममें चलें। स्वामी राम चरण दास कहा करते थे कि मैंने ही चँाद-तारे बनाये। वह मैं ही था। जिसने चांद-तारों को पहले छुआ ऊंगली से और जीवन दिया और गति दी और चांद-तारे मुझमें ही घूमते हैं। तो लोग समझते थे कि पागल है। ज्ञानियों को सदा लोगों ने पागल समझा है। बात ही पागलपन की लगती है।
जब स्वामी राम चरण दास अमेरिका गये और उन्होंने ये ही बातें वहां कही-तो वहां के लोगों ने उन्हें पागल कहा साथ ही वरिष्ठ व्यक्तियों ने कहा कि हम सभी हिंदुस्तान के पागलों से बहुत परिचित हैं। परन्तु हिंदुस्तान में यह चल जाता है। बातें हजारों साल से पागलों को सुनते-सुनते जो पागल नहीं हैं, वे भी कम से कम उनकी भाषा से परिचित हो गये। मानते है कि सधुक्कड़ी भाषा है। अपनी नहीं, साधुओं की है। कुछ सिरफिरे लोगों की है। तभी तो कबीर को कहना पड़ता है, कहैं कबीर दीवान। दीवानों की है पागलों की है, मस्तों की है। मगर हमने इतने दिनों से सुनी है और हमने इतने मस्त पुरूष देखे हैं कि हम नासमझी में भी चाहे स्वीकार न करें, लेकिन अस्वीकार भी नहीं करते।
इसलिये हमारे ऋषियों ने कहा है कि जब भक्त अपना सब कुछ छोड़ देता है तो आंगन, आकाश उसका हो जाता है। जिसने अपने अहंकार को छोड़ा सब उसका हुआ। जिसने यहां गिराया अपना अभिमान, जब बूंद समुद्र में डूब गई वह सब के भीतर सब के प्राण उसके ही प्राण हो गया। रामकृष्ण परमहंस को मरने से पहले गले का कैंसर हो गया, तो बड़ा कष्ट था। भोजन करने में, पानी भी पीना मुश्किल हो गया था। गले से कोई भी चीज खाने में बड़ा कष्ट था, तो विवेकानंद ने एक दिन रामकृष्ण को कहा कि इतनी पीड़ा शरीर को हो रहीं हैं। आप जरा माँ को क्यों नहीं कह देते? जगत् जननी को जरा कह दो। तुम्हारी वह सदा से सुनती रहीं हैं। इतना ही कह दो, कि गले को इतना कष्ट क्यों दे रही हो? रामकृष्ण ने कहा, तु कहता है तो कह दूंगा मुझे ख्याल ही न आया।
घड़ी भर बाद आंख खोली और खूब हंसने लगे और मां ने कहा पागल! कब तक इसी कंठ से बंधा रहेगा? सभी कंठों से भोजन कर तो रामकृष्ण ने कहा, यह कंठ अवरूद्ध ही इसलिये हुआ था कि सभी कंठ मेरे हो जायें। अब मैं तुम्हारे कंठों से भोजन करूंगा। एक कंठ अवरूद्ध होता है, तो सभी कंठों के द्वार खुल जाते हैं। यहां एक अस्मिता बुझती है और सारे अस्तित्व की अस्मिता, सारे अस्तित्व का मैं भाव वही तो परमात्मा है। वही अस्तित्व की अस्मिता तो कृष्ण से बोली है। सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज। सब धर्म छोड़ कर तू मेरी शरण में आ जा यह कौन बोला है? यह कौन है मेरी शरण में? यह कोई कृष्ण नहीं है, जो सामने खड़े हैं। यह सारे अस्मिता, यह सारे अस्तित्व का मैं बोला है। क्योंकि तुम्हारा मैं बाधा है क्योंकि उसके कारण तुम सारे अस्तित्व के मैं के साथ एकता नहीं साध पाओगे।
रवींद्रनाथ ने अपना एक संस्मरण लिखा, जो मुझे बड़ा ही प्रीतिकर लगा। ऐसी पूर्णिमा की रात थी, रवींद्रनाथ नदी किनारे बैठे थे। एक छोटा सा दीया जला कर किताब पढ़ रहे थे। बड़ी टिमटिमाती रोशनी थी। छोटा सा दिया था। और बाहर पूरा चांद खिला था पूर्णिमा की रोशनी ही रोशनी थी। लेकिन कमरे के भीतर दीया टिमटिमा रहा था। उसकी मंदी सी रोशनी सारे कक्ष को रोशनी से मंदा कर रही थीं वह आधी रात तक पढ़ते-पढ़ते थक गये। दीये को फूंक मार कर बुझा कर किताब बंद की। तो वह चौंक के खडे़ हो गये और नाचने लगे। यह एक अनूठी सी घटना थी। उन्होंने सोचा भी न था ऐसा होगा। अभी तक पीला सा प्रकाश भरा था कमरे में। दीये को बुझाते ही द्वार से, खिड़कियों से, रंध्र-रंध्र से चांद भीतर आ गया और नाचने लगे रवींद्रनाथ।
उस रात उन्होंने अपनी डायरी में लिखा, मैं भी कैसा पागल हूं! पूरा चांद बाहर खड़ा था अनूठी सुंदर रात बाहर प्रतीक्षा कर रही है। चांद द्वार पर खड़ा है, खिड़की पर खड़ा है, रंध्र-रंध्र के पास खड़ा रह देखता है कब बुझाओगे भीतर का दीया, कि मैं भीतर आ जाऊं। और छोटा सा दीया बाधा बना है और उसकी वजह से भीतर मंदा प्रकाश भरा है जिसमें आंखें थकती हैं, शीतल नहीं होतीं। दीये के बुझते ही सब तरफ से रोशनी दौड़ पड़ी। भीतर जगह खाली हो गई। शून्य हो गई। चाँद आ गया नाचता हुआ। रवींद्रनाथ ने कहा, उस दिन मेरे मन में एक द्वार खुल गया, कि जब तक मेरे भीतर अहंकार का दीया जल रहा है, तब तक परमात्मा की रोशनी बाहर ही खड़ी रहेगी। जिस दिन यह दीया मैं फूंक मार कर बूझा दूंगा, उसी दिन बह नाचता भीतर आ जायेगा। फिर नाच ही नाच, आनन्द ही आनन्द, उत्सव ही उत्सव है। फिर इस उत्सव का कोई अंत नहीं होता।
जिन्होंने दो कहा, वे नर्क में है। कबीर का यह वचन एक बहुत प्रसिद्ध वचन है, जिसमें उन्होंने कहा है- दूसरे की मौजूदगी नरक है। तो क्या करें? क्या अकेले में भाग जायें? एकांत में हो जायें, जहां दूसरा न हो? न पत्नी हो, न पति हो, न बेटा हो। बहुतों ने यह प्रयोग किया है। भागे हैं हिमालय की कंदराओं में ताकि अकेले हो जायें। क्योंकि दूसरा नरक है। लेकिन तुम भाग कर भी अकेले न हो पाओगे। क्योंकि तुम्हारा मैं तो तुम्हारे साथ ही चला जायेगा। तुम अपना तु तो यहीं छोड़ जाओगे, मैं तो साथ चला जायेगा। और ध्यान रखो, जहां मैं हूं, वहां तू है। वह सिक्का इक्टठा है। तुम आधा-आधा छोड़ नहीं सकते। अगर मैं तुम्हारे साथ गया तो तू भी तुम्हारे साथ गया। जल्दी ही तुम अपने को ही दो हिस्सों में बांट कर चर्चा करने लगोगे।
अकेले में लोग अपने से ही बात करने लगते है। मैं और तू दोनों हो गये। अकेले में लोग ताश खेलने लगते हैं। खुद ही दोनों तरफ से बाजी बिछा देते है। उस तरफ से भी चलते हैं, इस तरफ से भी चलते हैं। इतना ही नहीं, उस तरफ से भी धोखा देते हैं, इस तरफ से भी धोखा देते है किसको धोखा दे रहे हो? अकेले मे लोग कल्पना की मूर्तियों में जीने लगते हैं। उनसे चर्चा करते हैं, बात करते हैं, तो तू मौजूद हो जाता है। भीड़ तुम्हारे साथ ही आ जायेगी अगर मैं तुम्हारे साथ गया। क्योंकि मैं तो केंद्र है सारी भीड़ का भीड़ तो परिधि है। तुम जहां जाओगे, तुम भीड़ में रहोगे। तुम अकेले नहीं हो सकते। हिमालय का एकांत शून्य नहीं बनेगा। अकेलापन रहेगा ही। और अकेलेपन और एकांत में बड़ा फर्क है। अकेलेपन का अर्थ है, लोनलीनेस और एकांत का अर्थ है अलोननेस, अकेलेपना का अर्थ है, कि दूसरे की चाह मौजूद है। दूसरे की वासना मौजूद है। तूम चाहते हो कोई आ जायें। तुम अपनी हिमालय की गुफा के बाहर बैठकर भी रास्ते पर नजर लगाये रखोगे कि शायद कोई यात्री मानसरोवर जाता गुजर जाये। शायद कोई मनुष्य थोड़ी खबर ले आये नीचे के मैदानों की, कि क्या हुआ? जयप्रकाश नारायण की पूर्ण क्रांति हो पाई कि नहीं? शायद कोई अखबार का एक टुकड़ा ही ले आये और तुम वेद वचनों की तरह अखबार को पढ़ लो। मन तुम्हारा नीचे ही भटकता रहेगा मैदानों में, जहां भीड़ है।
रामकृष्ण एक बार बैठे थे मंदिर के बाहर दक्षिणेश्वर में तो देखा कि एक चील मरे हुये चूहे को ले उड़ी है। अब चील कितने ही ऊपर उड़े, नजर तो उसकी नीचे कचरे-घर में लगी रहती है। जहां मरे चूहे पड़े हो, मांस का टुकड़ा पड़ा हो, फेंकी गई मछली पड़ी हो। आकाश में नजर तो घूरे पर लगी रहती है। तुम हिमालय पर बैठ जाओ। कोई फर्क नहीं पड़ेगा। नजर घूरे पर लगी रहेगी दिल्ली में एक पहाड़ हो जिस पर घूर पड़ा है। उस पहाड़ के आसपास और भी बहुत सुन्दर चीजे है पर लोगों की नजर उस घूर के पहाड़ पर ही जाती है। जैसे चील की नजर मरे हुये चूहों पर लगी रहती है। तुम अपने को तो साथ ही ले जाओगे। तुम ही तो तुम्हारे होने का ढोंग हैं।
रामकृष्ण ने देखा कि वह चील उड़ रही है चूहे को लेकर और बहुत सी चीलें उस पर झपटृा मार रही है। कौवे दौड़ गये है। बड़ा उत्पात मच गया है आकाश में। वह चील बचने की कोशिश कर रही है। लेकिन और गिद्ध आ गये हैं और सब तरफ से उसको टोचे जा रहे है वह भागती है, बचना चाहती है। उसके पैरों पर लहू आ गया है। तब क्रोध की अवस्था में वह भी किसी गिद्ध पर झपटी और मुंह से चूहा छूट गया। चूहे के छूटते ही सारा उपद्रव बंद हो गया। कोई वे चील के पीछे पड़े नहीं थे। बाकी गिद्ध और चीलें और कौवे वे चूहे के पीछे पड़े थे। जैसे ही चूहा छूटा वे सब चले गये। अब वह थकी चील वृक्ष पर बैठ गई। रामकृष्ण कहते है कि मुझे लगा, शायद थोड़ी उसे समझ आई होगी। चूहा सारी भीड़ को ले आया था।
तुम्हारे मैं में तुम हिमालय चले जाओंगे, कोई फर्क नहीं पड़ेगा। सब भीड़ आ जायेगी। तुम्हारा मैं भीड़ को खींचता है। तुम मैं, को छोड़ दो बाजार में बैठे रहो, वहीं हिमालय हो जायेगा। तुम्हारी दूकान तुम्हारी गुफा हो जायेगी तुम्हारा दफ्रतर तुम्हारा मंदिर हो जायेगा। मैं का चूहा भर छूट जाये। फिर कोई चील हमला नहीं करती फिर कोई गिद्ध तुम पर आकर हमला नहीं करता। तुमसे किसी का कुछ लेना-देना नहीं है। वह तुम्हारा मैं ही तुम्हारे उपद्रव का कारण है। तुम्हें कभी किसी ने धक्का नहीं मारा? किसी ने तुम्हें कभी नीचा दिखाया नहीं। तुम्हारे मैं को नीचा दिखाया गया है? किसी ने कभी तुम्हारी स्तुति की? नहीं तुम्हारे मैं की स्तुति की गई। जैसे ही मैं गया सारी भीड़ गिर जाती है निंदाकों की, स्तुति करने वालों की, मित्रों की, शत्रुओं की, अपनो की, परायों की द अदर इज हेल। शास्त्र कह रहा है-दूसरा नर्क है लेकिन अगर बहुत गौर से सोचो और थोड़ा गहरे जाओ तो दूसरा इसीलिये है, कि तुम हो। द गो इज द हेल। गहरे पर विश्लेषण करने पर तो पता चलेगा कि दूसरा तो तुम्हारे कारण है। इसलिये दूसरे को क्या नर्क कहना। वह नर्क मालूम पड़ता है। वस्तुतः मैं ही नर्क है। अहंकार ही नर्क है।
एक ही पवन है चाहे कैलाश में, चाहे काबा में। एक ही पानी है, चाहे गंगा में, चाहे तुम्हारे घर रखें गंगोदक में। और चाहे छोटे से मिटृी के दीये में और चाहे महासूर्यों में एक ही ज्योति है। इस एक को पहचानो। इस एक को जीओ। इस एक में रमों। एक को ही गुनो। इस एक को ही साधो। इस एक को ही ध्यान बनाओ।
और एक ही मिटृी है जिससे सब तरह के घड़े गढ़े गये हैं। कुम्हार चक्के पर रखता जाता है वही मिटृी। अलग-अलग रूप देता चला जाता है रूप का भेद है। नाम का भेद है। मूल का तो जरा भी भेद नहीं है। अस्तित्व का तो जरा भी भेद नहीं है। कोई स्त्री है, कोई पुरूष है। भीतर सब एक है। कोई गोरा है, कोई काला। कोई हिंदू है, कोई तुर्क है। कबीर कहा रहा है कि लकड़ी को रगड़ने से अग्नि पैदा की जाती है। वही एक उपाय था। लकड़ी में अग्नि छिपी है। काष्ठ में अग्नि छिपी है। जब बढ़ई काटता है लकड़ी को तो लकड़ी ही कटती है, अग्नि नहीं कटती है। कबीर यह कह रहे है, ऐसे ही तुममें वह एक छिपा है। जब मौत तुम्हें मारती है, तो लकड़ी ही कटती है। अग्नि नहीं कटती। जब बीमारी तुम्हें पकड़ती है, तो लकड़ी को ही पकड़ती है, अग्नि को नहीं पकड़ती।
जब जवान बूढ़ा होता है तो लकड़ी ही बूढ़ी होती है, अग्नि बूढ़ी नहीं होती। कबीर यह कह रहे है। ऐसे ही तुममें कहां वह एक छिपा है। चाहे तुम्हें पता न हो। क्योंकि तुमने रगड़ा ही नहीं कभी और जिन्होंने रगड़ा अपने आप को उन्होंने जाना। रगड़ने का अर्थ है, जिन्होंने थोड़ा साधा, उन्होंने जाना। जिन्होंने भीतर के रूप को बाहर प्रकट कर के देखा, उन्होंने जाना। उन्होंने भीतर की अग्नि को पहचान लिया और तब वे जानते है, कि सभी लकडि़यों मे एक ही अग्नि छिपी है। लकड़ी के रूप अलग-अलग होंगे। आग का रंग-ढंग एक। आग का स्वभाव गुण एक। जिसने ऊपर-ऊपर से पहचाना वह शायद सोचता हो, सब अलग-अलग हैं। जिसने भीतर से पहचाना, ये एक ही मिटृी के बने है।
इसलिये तो कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, ‘‘ना हन्यते हन्यमाने शरीरे’’ शरीर कटेगा फिर भी वह नहीं कटता। नैनं छिदंति शस्त्रणि नैनं दहति पावकः न तो मुझे शस्त्र छेद सकते हैं और न मुझे आग जला सकती है। शरीर ही कटेगा, मैं नहीं कटता हूं। तू भी नहीं कटेगा शरीर ही कटेगा। ये जो युद्ध के मैदान में आकर खड़े हो गये लोग हैं, इनकी काष्ठ की देह कटेगी, अग्नि नहीं कटती।
और जब तुम्हें यह दिख गया कि भीतर की ज्योति अखंड है, भीतर के प्राण शाश्वत सनातन हैं। दीया मिट जायेगा, ज्योति नहीं मिटेगी। शरीर गिरेगा प्राण ज्योति सदा रहेगी। इसलिये अपने अन्दर के मैं को मिटना पड़ता है। अहंकार को गलना पड़ता है। और तब स्वयं को पहचानने की क्रिया करनी होती है। तब उस परमात्मा से एकाकार होता है। तब अन्दर छिपी अखंड ज्योति स्वरूप वह अग्नि प्रज्वलित होती यह तभी सम्भव है जब हम अपने अन्दर के मैं को मार डाले और अपने अन्दर अपने ईष्ट, गुरू व उस परमात्मा के प्रति श्रद्धा, विश्वास भक्ति को जाये जिससे तुम्हारा जीवन अजस्त्र अखंड गंगा की तरह निर्मल होकर बहता रहे।
परम पूज्य सद्गुरूदेव
कैलाश श्रीमाली जी
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