अर्जुन का वृक्ष भारत में लगभग सभी स्थानों पर पाया जाता हैं। विशेषकर उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल, हिमालय की तलहटी एवं मध्यभारत में अधिक होता हैं। इसके वृक्ष जंगलों में पैदा होते हैं जो बहुत बड़े होते है। बाग-बगीचों एवं सड़कों के किनारे भी इसके वृक्ष लगाये जाते हैं, इसके वृक्ष की ऊँचायी 60 से 70 फीट होती है। वृक्ष की ऊपरी छाल सफेद सी होती है किन्तु आन्तरिक छाल गुलाबी रंग की मोटी होती है। इसके पत्ते का आकार मनुष्य की जीभ के समान होता है। पत्तों के पीछे डंठल पर दो गांठें होती है जो बाहर से दिखायी नहीं देती। पत्ते आकार में 3 इंच से 6 इंच 2 इंच चौड़े होते हैं। पत्तों का अगला भाग चिकना होता है। अधिकांशतः जब पत्ते आते हैं तब उनके साथ ही शाखाओं पर इसके गुच्छों में फूल निकलते हैं।
वैशाख एवं ज्येष्ठ में इसमें फूल आते है। अर्जुन में पारदर्शक, साफ-सुनहरा, भूरा गोंद भी होता है जो खाने के काम आता है। यह हृदय के लिये हितकारी होता है।
उपयोगी अंग- प्रायः औषधि के तौर पर इसके तने की छाल ही प्रयुक्त की जाती है।
संग्रह- इसकी छाल को सुखाकर ढक्कनादान पात्र में ठण्डे स्थान पर रखना चाहिये। इस तरह संग्रहित की गयी छाल लगभग दो वर्षों तक गुणकारी बनी रहती है।
सेवनीय मात्रा- इसके छाल की चूर्ण की मात्र 9-3 ग्राम है। काढ़ा बनाने के लिये 20 से 40 ग्राम तक प्रयोग किया जाता है। दूध में पकाकर भी यह उपयोग में लायी जाती है। वैसी स्थिति में इसकी सेवनीय मात्रा 6 से 15 ग्राम है।
इसे हिन्दी में अर्जुन, कोह, कौह, संस्कृत में अर्जून, मराठी में सारढोल, गुजराती में कडायो, बंगाली में अर्जुन गाछ, तैलिंगी में मट्टि चेट्टु, कर्नाटकी में तारेमत्ति, लैटिन में स्टर्क्युलियायुरेन्स कहते हैं।
गुणधर्म- यह पौष्टिक, शक्तिवर्द्धक, हृदय के लिये हितकारी, रक्त स्तम्भक, कफनाशक, व्रणशोधक, पित्त, श्रम एवं तृषानिवारक है। इसके सेवन से हृदय के स्वाभाविक कार्य को बल मिलता है। अतः हृदय व रक्तवाहिनियों की शिथिलता, नाडी की क्षीणता आदि में लाभप्रद है। यह सभी प्रकार के शोथ, मेदवृद्धि, मोटापा, जीर्ण कास-श्वास् जैसे विकारों में भी लाभदायक है।
यह बल वृद्धि के साथ-साथ शारीरिक कान्तिवर्धक भी है। यह कफ विकारों कें शमन में भी उत्तम कार्य करता है।इसके सेवन से पित्तज विदग्धत एवं अम्लता कम होती है। रक्त परिभ्रमण प्रक्रिया को सुचारू रूप से चलाने में भी लाभप्रद है। पुरूषों के प्रमेह रोग में हितकारी है। हड्डी टूटने पर उस अंग की हड्डी को स्थिर करके रक्त संचार को सुचारू रूप से करते हुये हड्डियों को जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
आयुर्वेद ग्रन्थों के अनुसार- अर्जुन कसैला, उष्ण, मधुर, शीतल, कान्तिजनक, बलकारक, हलका, व्रण शोधक तथा अस्थिभंग, अस्थिसंहार, कफ, पित्त, श्रम, तृषा, दाह, प्रमेह, हृदय रोग, पाण्डुरोग, विषबाधा, क्षतक्षय, मेदवृद्धि, रूधिरविकार, पसीना, श्वास आदि रोगों का नाश करता है।
पुरानी खांसी- यदि खांसी पुरानी हो एवं उपचार द्वारा ठीक न हो तो अर्जुन की छाल इसमें लाभप्रद है। अर्जुन की छाल को कूट-पीसकर महीन कपड़छन चूर्ण बना लें। चूर्ण को खरल में डालकर उसको अच्छी तरह गीला करने के लिये अडूसे के पीले पत्तों का रस डाल दें। यदि अडूसे के पीले पत्तें उपलबध न हो पायें तो उसके फूल या हरे पत्तों का रस डालकर घोट ले एवं सूख जाने पर शीशी में भरकर रख लें। एक ग्राम मात्रा में दिन में उबालकर इससे चार गुना मिश्री डालकर एवं साथ ही 2 चम्मच शहद मिलाकर सेवन करें। कफ में खून आता हो तो इसे चटाना हितकारी होता है।
शुक्रमेह- अर्जुन की छाल का काढ़ा बनाकर एक माह निरन्तर सेवन करने से लाभ होता है।
रक्ततिसार– अर्जुन की छाल को बकरी के दूध में पीसकर उसमें दूध एवं शहद मिलाकर पिने से लाभ मिलता है।
रक्तपित- अर्जुन की छाल को रात में जल में भिगोकर रखें। प्रातः उसको मलकर, छानकर या उसको उबालकर काढ़ा बनाकर पीने से रक्तपित्त में लाभ होता है।
हड्डी टूटना, घाव, जख्म आदि- शरीर के किसी अंग की हड्डी टूटने पर अर्जुन की छाल लाभ करती है क्योंकि इसमें चूने का अंश अधिक पाया जाता है। हड्डी टूटने पर तुरन्त इसकी ताजी छाल, यदि ताजी न मिलें तो सुखी छाल को पीसकर थोड़ा घी मिलाकर टूटी हड्डी के ऊपर से बांस की खपाचें रखकर, कसकर पट्टी बांधने से आशातीत लाभ होता है, ध्यान रखें कि कुछ दिनों तक उस अंग को हिलाया-डुलाया न जाये।
उपरोक्त उपचार के अलावा अर्जुन की छाल का चूर्ण 3 ग्राम को 6 ग्राम घी एवं 6 ग्राम शक्कर में मिलाकर प्रातः सायं खाते रहें। कुछ दिनों तक निरन्तर इसे खाते रहने से टूटी हड्डी जुड़ जाती है। पट्टी बार-बार खोलनी नहीं चाहियें ध्यान पूर्वक हर तीसरे दिन सावधानी से नया लेप लगाते रहें किन्तु अंग कि स्थिति वैसी ही रहें अर्थात् उसे स्थिर रखा जाये हिलाया-डुलाया न जायें। हृदय के लिये हितकारी हैं।
विभिन्न शोधों द्वारा इस बात की पुष्टि हुयी है कि अर्जुन छाल हृदय रोगों में अत्यन्त हितकारी है। यह हृदय की दुर्बलता, घबराहट, बेचैनी आदि सभी में प्रभावी है। हृदय की घबराहट, बेचैनी में निम्न प्रकार से लाभप्रद है-
अर्जुन की छाल को कूट-पीसकर महीन चूर्ण बनाकर रखें लें। इसमें से 3 ग्राम चूर्ण एवं 15 ग्राम मिश्री मिलाकर पावभर दूध में डालकर नियमित रूप से प्रातः के समय सेवन करें।
अर्जुन की छाल को कूट-पीसकर कपड़छन चूर्ण बनाकर रख लें। यह तैयार किया 200 ग्राम चूर्ण लें एवं इसमें 400 गाम मिश्री का बूरा एवं इतना ही घी अच्छी तरह मिलाकर कांच की शीशी में अच्छी तरह बन्द करके रख लें।
यह एक औषधीय वृक्ष है और औषधि की तरह, अर्जुन के पेड़ की छाल को चूर्ण, काढा, पाक, अरिष्ट आदि के तरह इसक सेवन किया जाता है।
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