उसने भक्त को कहा कि अब चलो कोई भी व्यक्ति यहां से कुछ लेकर जाने में समर्थ नहीं हो पाया है। आओ ये चने खालो दिन भर से तुमने कुछ खाया नहीं है। आज के जगत में व्यक्ति धन की लालसा में धन को कमाने में और अपनी व्यापारिक बुद्धि से तोलमोल करने की, लोभ की प्रवृत्ति से इतना अधिक प्रभावित हो गया है कि उसे उपरोक्त कथा में कोई सार्थकता नजर नहीं आयेगी। अपनी क्षणिक प्रवृत्ति के पीछे इतने अधिक पागल हो जाते हैं कि वे निरन्तर धन और व्यापार के बारे में विचार करते रहते हैं। धन, आर्थिक सम्पन्न्ता मनुष्य को बहुत कुछ दे सकती है लेकिन प्रेम प्रसन्नता का भाव प्रदान नहीं कर सकती है। धन की उपयोगिता तभी तक है जब तक आप उसे सदुपयोग कर सकें। जब धन का उपभोग नहीं होता तो धन व्यक्ति के मन में और अधिक लालच प्रवृत्ति उत्पन्न करता है व्यक्ति एक चक्रव्यूह में फंसता रहता है आखिर व्यक्ति के जीवन में धन कितना आवश्यक है? क्यों आवश्यक है? और वह उसका किस प्रकार से उपभोग करें इस विषय पर व्यक्ति को विचार करना आवश्यक है।
शास्त्रों में धर्मार्थ काम मोक्षाणां पुरूषार्थ चतुष्टयम् कह कर मनुष्य की उन्नति के लिये चार प्रकार के पुरूषार्थ बताये गये हैं, जिसमें सबसे पहला पुरूषार्थ धर्म, दूसरा धर्म लक्ष्मी, तीसरा काम (सन्तान उत्पन्न् करना) और चौथा मोक्ष प्राप्ति के लिये साधना आदि सम्पन्न करना है।
इस प्रकार शास्त्रों में यह स्वीकर किया गया है, कि जीवन में धर्म का सबसे पहला स्थान होना चाहिये, धर्म के नियमों को मानना चाहिये और हमारे मन में देवताओं के प्रति, इष्ट के प्रति और अपने गुरु के प्रति सम्मान और श्रद्धा होनी चाहिये, जिससे कि हम धर्म के पथ को पहचान सकें, अपने कर्त्तव्यों को जान सके और कर्त्तव्य मार्ग पर आगे बढ़ते हुये धर्म का पालन करते हुये लक्ष्मी प्राप्ति में सफल हो सकें।
धर्म से ही सम्पन्नता आती है, परन्तु इसके साथ यह भी आवश्यक है कि सम्पन्नता के लिये कुछ विशेष साधनायें और क्रियायें सम्पन्न करने से ही हम इस भाग दौड़ की जिन्दगी में, प्रतिस्पर्धा के जीवन में, व्यापार और अन्य कार्यों के माध्यम से अर्थ संचय कर सकेगें।
शास्त्रों ने देवताओ में श्रेष्ठ भगवान विष्णु की पत्नी के रूप में लक्ष्मी को स्थान देकर उनकी श्रेष्ठता और उनके महत्व को सिद्ध कर दिया है। यह स्पष्ट है कि लक्ष्मी से सम्बन्धित उपासना हमारे जीवन की आवश्यक उपासना है। हम चाहे किसी भी मत के अनुयायी हों, किसी भी धर्म का पालन करते हों, किसी भी विचारधारा से सम्बन्धित हों पर हमें लक्ष्मी की प्राप्ति और उसके महत्व को स्वीकार करना ही पड़ेगा।
एक समय ऐसा भी था जब धन को अधिक महत्व नहीं दिया जाता था। धन जीवन का और विनिमय का आधार अवश्य था, परन्तु वह सब कुछ नहीं था, लेकिन आज समाज की मान्यतायें और विचार बदल गये हैं, हम समाज की ही एक इकाई हैं और समाज के साथ ही साथ हमें भी अपने आपको बदलना आवश्यक हो गया है। अतः हमें यह स्वीकार करना ही पड़ेगा, कि हमारे जीवन में पूर्णता प्राप्ति के लिये अन्य तत्वों के साथ-साथ धन का सर्वोपरि महत्व है। परन्तु इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिये कि धन के साथ-साथ धर्म का भी पालन आवश्यक है और इन दोनों के युग्म से ही काम और मोक्ष रूपी पूर्णता की प्राप्ति संभव हो पाती है। इसीलिये शास्त्रीय नियमों व मान-मर्यादा के अनुकूल धन एकत्र करें और श्री सम्पन्न बनें।
बिना धन के धर्म का अस्तित्व आज के युग में सम्भव ही नहीं। इसीलिये धन की महत्ता सर्वोपरि है और धन की महत्ता मानव के प्रारम्भिक काल से आज तक रही है। इसीलिये शास्त्रों में कहा गया है, कि व्यक्ति को श्री सम्पन्न होना चाहिये, श्री सम्पन्न व्यक्ति ही समाज के आभूषण हैं।
केवल परिश्रम से ही धन संचय नहीं हो पाता, केवल शिक्षा प्राप्ति से ही लक्ष्मीपति नहीं बना जा सकता। हमारे समाज में चारों और सैकड़ों युवक घूमते दिखाई देंगे, जो हैं तो विभिन्न् डिग्रियों से युक्त परन्तु उनमें से अधिकांश बेकार या बहुत ही छोटी तनख्वाह पर जीवन यापन के लिये बाध्य होते हैं। वे सामान्य रूप से भी जीवन का संचालन नहीं कर पा रहें हैं, व्यापार में भी हम देखते हैं, कि लोग परिश्रम करते हैं, अपनी तरफ से पूरा प्रयत्न करते हैं। बड़ी से बड़ी दुकान खोल लेते हैं, परन्तु इतने पर भी धन एकत्र हो जाये यह सम्भव नहीं है, इसकी अपेक्षा हम यही देखते हैं कि जिसकी छोटी सी दुकान है, वह ज्यादा कमा रहा है, सम्पन्न हो रहा है, ऐसे भी निरक्षर सेठों को देखा है, जिनको भली प्रकार चार लाइनें लिखनी नहीं आती, परन्तु वे लखपति, करोड़पति हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं, कि परिश्रम और शिक्षा के अलावा हमारे जीवन निर्माण और जीवन की सम्पन्नता में सौभाग्य का भी बहुत बड़ा हाथ है। सौभाग्य होने पर व्यक्ति सामान्य श्रेणी से बहुत ऊंचा उठ जाता है, भाग्य में परिवर्तन विशिष्ट साधना, हवन, विशिष्ट क्रियाओं के द्वारा गुरु सान्निध्य में ही हो सकता है। लक्ष्मी साधना की सार्थकता तभी है जब व्यक्ति उसका उपयोग कर सके। यदि कोई वस्तु का उपयोग नहीं कर सकते तो उसकी सार्थकता भी नहीं है धन की सार्थकता भी तभी तक है जब उसका उपयोग, उपभोग कर सके उसे अपना सहयोगी बना सके, धन के ऊपर मनुष्य की बुद्धि हावी रहे मनुष्य की बुद्धि पर धन नहीं इसी मार्ग के द्वारा वह वास्तव में चारों पुरुषार्थ धर्म के द्वारा अर्थ, धर्म और अर्थ के सहयोग से काम और कामना पूर्ति से उस मार्ग को प्राप्त कर सकता है जिसमें अमृत्व है परमात्मा स्वरूप जीवन की पूर्णता प्राप्त होती है।
सांसारिक जीवन का प्रत्येक क्षेत्र धन से जुड़ा है। धन के अभाव में गृहस्थ जीवन की व्याख्या ही अधूरी है। धन पूर्ति के उधेड़बुन में जीवन का यौवन काल बीत ना जाये इसके लिये आवश्यक है कि साधक श्रेष्ठ मुहूर्त, चैतन्य स्थल, उत्तम काल खण्ड में सद्गुरूदेव की चेतना को प्राप्त करें। जिससे कि अभावग्रस्त, धनहीन के जीवन में भी लक्ष्मी अपने सभी स्वरूपों में सतत् रूप से स्थापित हो सके।
सर्व दुःख भंजन महालक्ष्मी साधना महोत्सव कैलाश सिद्धाश्रम जोधपुर में 25-26-27 अक्टूबर को गुरु परिवार के सानिध्य में कार्तिक अमावस्या व धन लक्ष्मी शक्ति युक्त सर्वार्थ सिद्धि अमृत योग में दीपावली महालक्ष्मी साधना, पूजा करने से जीवन में हिरण्यमयी स्वर्ण स्वरूप, कामाक्षी, विष्णु प्रिया, शोक विनाशिनी, दारिद्रय दुःख नाशिनी, ब्रह्मा, विष्णु, शिवत्व शक्ति स्वरूपिणी अष्ट सिद्धि धनदा लक्ष्मी नव निधियों युक्त प्रत्यक्ष साधना सिद्धि, हवन, दीक्षा सद्गुरु सानिध्य में ऐसे महान पर्व पर सम्पन्न करने से उक्त सुस्थितियां प्राप्त हो सकेंगी।
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