तदन्तर इन्द्र दिव्य आभूषण धारण कर, ऐरावत पर चढ़कर बलि की खोज में निकल पड़े। अन्त में एक खाली घर में उन्होंने एक गधा देखा और कई लक्षणों से उन्होंने अनुमान लगाया कि यही राजा बलि हैं। इन्द्र ने कहा- दानवराज् इस समय तुमने बड़ा विचित्र वेष बना रखा है। क्या तुम्हें अपनी इस दुर्दशा पर कोई दुःख नहीं होता। इस समय तुम्हारे छत्र, चामर और वैजयन्ती माला कहां गयी? कहां गया तुम्हारा सूर्य, वरुण, कुबेर, अग्नि और जल का रूप?
बलि ने कहा- देवेन्द्र! इस समय तुम मेरे छत्र, चामर, सिंहासन आदि उपकरणों को नहीं देख सकोंगे। लेकिन फिर कभी मेरे दिन लौटेंगे और तब तुम उन्हें देख सकोगे। तुम जो इस समय अपने ऐश्वर्य के मद में आकर मेरा उपहास कर रहे हो, यह केवल तुम्हारी तुच्छ बुद्धि का ही परिचायक है। मालूम होता है, तुम अपने पूर्व के दिनों को सर्वथा भूल गये।
बलि ने कहा- देवराज! इस विश्व में कोई भी वस्तु सुनिश्चित और सुस्थिर नहीं है। काल सबको नष्ट कर देता है। काल सुखमय स्थितियों को कालचक्र अनुसार विषम व दुखदायी बना देता है, साथ ही संकट पूर्ण कष्टकारी विषमताओं को कालगति अनुसार प्रसन्नता, आनन्द युक्त सुखमय बना देता है।
इस काल के अद्भुत रहस्य को जानकर मैं किसी के लिये भी शोक नहीं करता। यह काल धनी-निर्धन, बली-निर्बल, पण्डित मूर्ख, रूपवान-कुरुप, भाग्यवान-भाग्यहीन, बालक, युवा, वृद्ध, योगी, तपस्वी, धर्मात्मा, शूरवीर और बड़े से बड़े अहंकारियों को भी नहीं छोड़ता और सभी को एक समान ग्रसित करता है। काल के ही कारण मनुष्यों को सुख-दुःख की प्राप्ति होती है।
काल ही सबको देता है और पुनः छीन भी लेता है। काल के ही प्रभाव से सभी कार्य सिद्ध होते हैं। इसलिये तुम्हारा अहंकार, मद तथा पुरुषार्थ का गर्व केवल मोहमात्र है। ऐश्वर्यों की प्राप्ति या विनाश किसी मनुष्य के अधीन नहीं है। मनुष्य की कभी उन्नति होती है और कभी अवनति। यह संसार का नियम है, इसमें हर्ष-विषाद नहीं करना चाहिये।
न तो सदा किसी की उन्नति ही होती है और न सदा अवनति या पतन ही। समय से ही ऊंचा पद मिलता है और समय ही गिरा देता है। यह तुम भी जानते हो कि एक दिन देवता, पितर, गन्धर्व, मनुष्य, नाग, राक्षस- सब मेरे अधीन थे और कहते थे- नमस्तस्यै दिशेऽप्यस्तु यस्यां वैरोचनिर्बलिः अर्थात् मैं जिस दिशा में रहता था, उस दिशा को भी लोग नमस्कार करते थे। पर जब मुझ पर भी काल के आक्रमण के फल स्वरूप मेरे भी दुर्दिन आ गये और मैं इस दशा में पहुंच गया, तब गरजते और तेजस्वी समय पर कालचक्र ने आधिपत्य कर लिया उक्त स्थितियों में परिवर्तन कर दिया।
मैं अकेला बारह सूर्यों का तेज रखता था, मैं ही पानी का आकर्षण करता और बरसाता था। मैं ही तीनों लोकों को प्रकाशित करता और तपाता था। सब लोकों का पालन, संहार, दान, ग्रहण, बन्धन और मोचन मैं ही करता था! मैं तीनों लोकों का स्वामी था, किन्तु काल के फेर से इस समय मेरा वह प्रभुत्व समाप्त हो गया। विद्वानों ने काल को दुरतिकम और परमेश्वर कहा है। बहुत वेग से दौड़ने पर भी कोई मनुष्य काल को लांघ नहीं सकता। उसी काल के अधीन हम, तुम सब कोई है।
इन्द्र! तुम्हारी बुद्धि सचमुच बालकों जैसी है। शायद तुम्हें पता नहीं कि अब तक तुम्हारे जैसे हजारों इन्द्र हुये और नष्ट हो चुके। यह राज्य लक्ष्मी, सौभाग्य श्री, जो आज तुम्हारे पास हैं, तुम्हारी बपौती या खरीदी हुई दासनी नहीं है, वह तो तुम जैसे हजारों इन्द्रों के पास रह चुकी है। वह इसके पूर्व मेरे पास थी। अब मुझे छोड़कर तुम्हारे पास गयी है और शीघ्र ही तुमको भी छोड़कर दूसरे के पास चली जायेगी। मैं इस रहस्य को जानकर रत्ती भर भी दुःखी नहीं होता।
बहुत से कुलीन धर्मात्मा राजा अपने योग्य मन्त्रियों के साथ भी घोर क्लेश पाते हुये देखे जाते हैं, साथ ही इसके विपरीत मैं नीच कुल में उत्पन्न मूर्ख मनुष्यों को बिना किसी की सहायता के राजा बनते देखता हूं। अच्छे लक्षणों वाली परम सुन्दरी तो अभागिनी और दुःख सागर में डूबती दिख पड़ती है और कुलक्षणा, कुरुपा भाग्यवती देखी जाती है। इसमें काल यदि कारण नहीं है तो और क्या है देवराज! काल के द्वारा होने वाले अनर्थ बुद्धि या बल से हटाये नहीं जा सकते। विद्या, तपस्या, दान और बन्धु-बान्धव भी काल ग्रसित मनुष्य की रक्षा नहीं कर सकते। आज तुम मेरे सामने वज्र उठाये खड़े हो। अभी चाहूं तो एक घूंसा मारकर वज्र समेत तुमको गिरा दूं। चाहूं तो इसी समय अनेक भयंकर रूप धारण कर लूं, जिनको देखते ही तुम डरकर भाग खड़े हो जाओ। परन्तु करूं क्या? यह समय सह लेने का है- पराक्रम दिखलाने का नहीं। इसलिये गधे का ही रूप बनाकर मैं अध्यात्म में निरत हो रहा हूं। शोक करने से दुःख मिटता नहीं, वह तो और बढ़ता है। इसीलिये मैं इस दुरावस्था में भी बहुत निश्चिन्त हूं।
वास्तव में मनुष्य जीवन एक कठपुतली के सिवा और कुछ नहीं है, सर्व समर्थ काल कुछ भी करने और बदलने में सक्षम होता है। जीवन मात्र एक मोहरे के समान है, जिसकी हर चाल काल के हाथों में होती है और समय आपको ऐसी-ऐसी परिस्थितियों का सामना करने के लिये बाध्य कर देता है, जिसकी आपने कभी कल्पना भी नहीं की होगी। ऐसी परिस्थितियों में केवल शांत मन से सहन करें और कर्मशील व प्रयासरत रहें, जिससे विषमतायें समाप्त हो सकें।
काल इस सृष्टि में सबसे अधिाक बलवान व सर्व समर्थ है। काल ही एक ऐसा तत्व है, जिस पर किसी का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, जिस पर काल का प्रभाव ग्रसित होता है, उसका निदान माता-पिता, बन्धु-बान्धाव, मित्र, परमात्मा, ईश्वर, इष्टदेव आदि कोई भी नहीं कर सकता। इसलिये काल तत्व को सभी मनुष्य को स्वीकार करना चाहिये और उसके अनुसार ही जीवन की गति का निर्धारण करें।
परम पूज्य सद्गुरुदेव कैलाश श्रीमाली जी
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,