महाभारत काल में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि- हे अर्जुन! तुम युद्ध में केवल शस्त्रों के माध्यम से विजय प्राप्त नहीं कर सकते, जब तक जीवन में, इन्द्रियों के कण-कण में ऊर्जा का संचार नहीं होगा, तुम दैवीय चेतना से आप्लावित नहीं हो जाते, तब तक जीवन के इस महासंग्राम में विजयी हो पाना संभव नहीं होगा। शक्ति के द्वारा ही जीवन के समस्त परिस्थितियों में विजय प्राप्त की जा सकती है।
शक्ति उपासना रूपी शस्त्र से जीवन के समस्त शत्रुओं को परास्त कर जीवन के महासंग्राम में विजय प्राप्त होती है। शक्ति साधना ऊर्जा का मूल स्त्रोत है, जिससे व्यक्ति शारीरिक व आत्मिक रूप से साधना के बल, ओज और तेजस्विता से युक्त होता है। जो उसे जीवन के हर क्षेत्र में विजयी बनाने में सहायक सिद्ध होती है।
सुख, आनन्द, शक्तिमय जीवन की प्राप्ति के लिये सर्व पूजनीय आद्या शक्ति की विशिष्ट साधनायें सम्पन्न करनी ही चाहिये। इतिहास साक्षी अर्जुन के पीछे भगवान कृष्ण की योगमाया शक्ति आदि शक्ति भगवती नित्या हैं तथा देवताओं, मनुष्यों, संत जनो, ऋषियों की सुभाव कामना पूर्ति के लिए वे समय-समय पर अनेक रूपों में प्रकट होती रहती हैं। जगन्मूर्ति भगवती नित्य स्वरूपा हैं, जिसके बारे में ब्रह्मवैवर्त पुराण में भगवान नारायण एवं नारद संवाद में भगवती दुर्गा के सोलह उत्तम स्वरूप हैं- दुर्गा, नारायणी, ईशानी, विष्णुमाया, शिवा, सती, नित्या, सत्या, भगवती, र्श्वाणी, सर्व मंगला, अम्बिका, वैष्णवी, गौरी, पार्वती और सनातनी। हे नारद! सृष्टि के आदि में श्रीकृष्ण ने गोलोक में सर्वप्रथम देवी के इन स्वरूपों की अर्चना की। इसके बाद ब्रह्मा ने मधुकैटभ से भयभीत होकर और बाद में तीसरे त्रिपुर से प्रेरित होकर त्रिपुरारी (शिव) ने उनकी पूजा की और फिर वह समस्त विश्व में मुनियों, सिद्धगणों, देवों और श्रेष्ठ महर्षियों द्वारा पूजित होकर सदैव पूजित होने लगीं।
गुरु भी अपने शिष्यों को निरन्तर दीक्षा के माध्यम से चेतना ऊर्जा शक्ति प्रदान करने हेतु ऐसी ही श्रेष्ठतम उच्चकोटि की साधनायें स्वयं सम्पन्न कर अपने आपको नियोजित करते हैं। तब ही वे अपनी प्राणशः चेतना के माध्यम से दीक्षा प्रदान करते हैं- एक छोटी लघु कथा है- एक बार कोई महिला गुरु से मिलने के लिये आई और विनती की मेरा बच्चा बहुत मीठा खाता है, इसे आप आज्ञा प्रदान करें कि ये शक्कर नहीं खाये, गुरु ने कुछ विचार कर महिला को कहा कि दस दिन बाद में आना, समयावधि बाद महिला बच्चे को लेकर आयी पुनः अपनी उक्त बात रखी, तब गुरु ने बालक से कहा कि शक्कर खाना छोड़ दो, महिला बहुत खुश हुई साथ ही थोड़ी व्यथित भी हुई और गुरु से कहा कि इतनी सी बात तो आप दस दिन पहले भी बच्चे से कह सकते थे, तब गुरु ने कहा कि मैं स्वयं अपने पर आजमाना चाहता था कि बिना शक्कर खाये रह सकता हूं क्या? और यही क्रिया स्व्यं दस दिन तक करने के बाद ही मैं बच्चे को आज्ञा दे सकता हूं। ठीक उसी तरह गुरु भी प्रत्येक क्रिया रूपी पूजा, अर्चना, साधना, मंत्र जाप को अपने भीतर आत्मसात कर ही अपने मानस पुत्र-पुत्रियों रूपी साधकों को प्रदान करता है।
इस नवरात्रि में अग्रलिखित 9 साधनायें पूर्णरूपेण साक्षीभूत रूप से गुरु द्वारा सिद्ध की गई है, श्रेष्ठ साधक आद्या शक्ति की साधनाओं को सम्पन्न कर देव स्वरूप तेजपुंज व जीवन को सर्वमंगला स्वरूप में कल्याणमयी बना सकेंगे। क्योंकि आद्या शक्ति केवल देवी ही नहीं, वह मातृ स्वरूपा भी हैं अर्थात् जैसे वात्सल्यमयी माँ अपने शिशु को सर्वांगण चेतना प्रदान करती है। वैसी ही क्रिया आद्या शक्ति के नौ स्वरूपों में प्राप्त हो सकेगी।
अष्ट वैभव भुवनेश्वरी साधनाः संसार की त्रिगुणात्मक शक्ति का श्रेष्ठतम स्वरूप भुवनेश्वरी है, जो जीवन के अष्टपाश रूपी मृत्यु, रोग, ऋण, कुटुम्ब क्षय, बुद्धि हीनता, शत्रु आक्रमण, गृहस्थ न्यूनता, अज्ञानता रूपी स्थितियों को समाप्त कर पूर्ण गृहस्थ सुख, सौभाग्य, ऐश्वर्य, यश, भौतिक सम्पदा, सफलता व आध्यात्मिक श्रेष्ठता प्राप्ति की उच्चकोटि की साधना है।
महाकाली सुमंगलमय जीवन प्राप्ति साधनाः महाकाली जीवन से अधंकारमय स्थितियों का शमन करती हैं और इनकी साधना से समस्त पाप-दोष, तंत्र बाधा, कालसर्प दोषादि से निवृत्ति होती है, जिससे साधक के जीवन में सुमंगलम सुस्थितियों का विस्तार होता है।
वैभव लक्ष्मी मातंगी साधनाः मातंगी साधना शारीरिक, मानसिक और आर्थिक तीनों ही दृष्टियों से पूर्ण स्वस्थ, सुखी और सम्पन्नता से युक्त जीवन प्राप्त करने की क्रिया है। इस साधना से सांसारिक जीवन में लक्ष्यों की प्राप्ति, शारीरिक बल, शक्ति, ऊर्जा और चेतना की प्राप्ति होती है। जिससे साधक के सभी कार्य सुगम और सरलता से पूर्ण होते हैं।
कर्ण पिशाचिनी धूम्र वाराही साधनाः धूम्र वाराही दुर्गति व कलह निवारणी शक्ति है, जो अपने भक्तों को अभय देने वाली तथा उसके शत्रुओं के लिए साक्षात् काल स्वरूप हैं। इस साधना से भूत-प्रेत, पिशाच, तंत्र बाधा का साधक पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। साथ ही उसे सभी दुखों से निवृत्ति मिलती है और वह विपरीत स्थितियों को भी अनुकूल बना लेने में समर्थ होता है।
कामाख्या चैतन्य साधनाः कामाख्या देवी जीवन का सृजन करने वाली महाशक्ति हैं, जिनकी साधना उपासना से सांसारिक जीवन की प्रत्येक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है, इनकी साधना से धन-दौलत, पद-प्रतिष्ठा, आरोग्यता, सुयोग्य पत्नी, संतान, भवन, वाहन, राज आदि सुख-भोगमय जीवन की प्राप्ति होती है।
वज्र विरोचिनी शत्रुहन्ता छिन्नमस्ता साधनाः यह क्लीं बीज युक्त प्रचण्ड शत्रुहन्ता साधना है, जिससे व्यक्ति वज्र के समान अपने सभी शत्रुओं, विकारो, न्यूनताओं पर वैरोचनीये स्थिति में विजय प्राप्त करता है। पूर्व जन्मकृत दोष समाप्ति, सद्बुद्धि, क्रियाशीलता, स्वयं पर नियंत्रण रखने की यह एक अद्भुत साधना है।
संताप हारिणी तारा साधनाः तारा का तात्पर्य है तारने वाली अर्थात् दैहिक, दैविक और भौतिक स्वरूप में जो पूर्ण समृद्ध कर दे। इस साधना से जीवन पर्यन्त आर्थिक न्यूनता नहीं आती तथा साधक सभी संतापों से पूर्णरूपेण विर्निमुक्त हो जाता है।
बगलामुखी साधनाः जीवन की समस्यायें, परेशानियां, तनाव, चिन्ता तथा अभावयुक्त जीवन को हर क्षण दुःखदायी बना देता है और रोग, आर्थिक संकट, शत्रु से जीवन त्रस्त हो जाता है, तब व्यक्ति को अपने शत्रु रूपी विषमताओं से मुक्ति हेतु ब्रह्मास्त्र बगलामुखी साधना को पूर्णरूपेण आत्मसात करना चाहिये। जिससे शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर अपने अभावों से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं।
ललिताम्बा सौभाग्य शक्ति साधनाः भगवती ललिताम्बा ललित स्वरूपों में जहां वह अपने प्रेम, स्नेह और करूणा से साधक के जीवन को आनन्द, प्रसन्नता से आप्लावित करतीं हैं, वहीं अम्बा रूप में उसके पूर्व जन्मकृत पाप-दोषों का शमन कर उसे निर्विघ्न चिन्ता मुक्त जीवन प्रदान करती है। जिससे प्रभाव युक्त शक्तिशाली एवं अद्वितीय जीवन की प्राप्ति होती है।
साधना को पूर्ण रूपेण जीवन में उतारने के लिये शक्तिपात दीक्षा आत्मसात कर विशेष दिवस पर साधना सम्पन्न करेंगे तो निश्चिन्त रूप से जीवन योग-भोग शक्तियों युक्त पुरुषोत्तमय चेतना से आप्लावित हो सकेगा।
दस महाविद्या साधना क्रम में भुवनेश्वरी साधना एक ऐसी अद्वितीय साधना है जो शिष्य को गुरु की कृपावश प्राप्त होती है तथा जिसे सम्पन्न कर वह सर्वश्रेष्ठ व्यक्तित्व बनने की ओर अग्रसर होता है।
दक्षिणामूर्ति संहिता के अनुसार भगवती भुवनेश्वरी के बीज मंत्र में आकाश बीज हकार में कैलाशादि समाहित हैं, वहीं बीज रेफ् में पृथ्वी समाहित है तथा ईकार अनन्त रूप में पाताल में स्थित हो समस्त भू-मण्डल को समाहित किये हुये है। अतः तीनों लोकों स्वर्ग लोक, मृत्यु लोक पृथ्वी और पाताल लोक के समाहित होने के कारण ही इन्हें त्रिभुवनों स्वरूप भुवनेश्वरी कहा गया है।
देवी भागवत में वर्णित देवी का शक्ति स्वरूप तथा महालक्ष्मी स्वरूप का समन्वित रूप है ‘ ह्रीं ‘ बीज। भुवनेश्वरी साधना का अर्थ है कि साधक समस्त प्रकार की भौतिक सम्पदाओं को प्राप्त करता हुआ साधना के उस उच्चतम सोपान को प्राप्त करे, जहां साधक कालपुरूष बन जाता है।
भगवती भुवनेश्वरी को अनेक स्वरूपों में सम्बोधित किया गया है, प्रत्येक स्वरूप साधक के लिए नवीन चिन्तन युक्त है। विश्वोत्पत्ति के पश्चात् जब वह शक्ति त्रिभुवन का संचालन करती है, तो उसे भुवनेश्वरी के रूप में सम्बोधित किया गया।
यह साधनात्मक उन्नति के साथ सामाजिक, गृहस्थ पूर्णता, यश, आध्यात्मिक उच्चता, सम्मान, भौतिक सम्पदा, सफलता प्राप्त कर स्थिर बनायें रखने में पूर्णतया समर्थ व महत्वपूर्ण साधना है।
संसार की त्रिगुणात्मक शक्तियां महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती है। महालक्ष्मी का श्रेष्ठतम स्वरूप वरदायक स्वरूप भुवनेश्वरी माना गया है, यह दस महाविद्याओं में एक है। भुवनेश्वरी साधना अत्यन्त सरल, सौम्य अद्वितीय एवं शीघ्र सफलतादायक है, जीवन में अष्टपाश रूपी मृत्यु, रोग, ऋण, कुटुम्ब क्षय, बुद्धि हीनता, शत्रु आक्रमण, गृहस्थ न्यूनता, अज्ञानता रूपी स्थितियों को समाप्त करने में यह अष्टगण वैभव शक्ति भुवनेश्वरी साधना सर्व रूप में श्रेष्ठ है।
भुवनेश्वरी साधना भगवान शिव के द्वारा प्रदत्त वरदान है। इस भुवनेश्वरी साधना के माध्यम से जीवन के सभी आयाम धन, यश, मान, प्रतिष्ठा, ऐश्वर्य, भोग-विलास, सफलता, अनुकूलता, व्यापार वृद्धि सर्वस्व स्वरूप में प्राप्त होता है, जो साधक की कामना होती है।
साधक शुद्ध पीला वस्त्र धारण कर लकड़ी के बाजोट पर पीले वस्त्र बिछायें तथा उस पर चावल से ह्रीं और गं निर्मित कर मध्य में भुवनेश्वरी यंत्र स्थापित करें। यंत्र के बायीं ओर अष्ट सिद्धि गुटिका रखें। यंत्र व गुटिका का पूजन कुंकुम, अक्षत तथा पुष्प से कर घी का दीपक जलायें।
अब भगवती भुवनेश्वरी ध्यान करें-
सिन्दूरारूण विग्रहां त्रिनयनां माणिक्य मौलिक।
रत्तारानायक शेखरां स्मितमुखी।। वक्षोरूहाम् पाणिभ्यां
मणिपूर्णरत्नचषकं।। रक्तोत्पलं विभ्रतीं सौम्या रत्नघटस्थ
सत्यचरणां अष्ट वैभव ध्यायेत्पराम्बिकाम।।
ध्यान के पश्चात् खड्ग माला से निम्न मंत्र का 9 माला मंत्र जप करें-
साधना समाप्ति के पश्चात् अष्ट सिद्धि गुटिका 3 माह तक तिजोरी में रखें और यंत्र, माला किसी जलाशय में अष्ट गण भुवनेश्वरी मंत्र का 21 बार जप करते हुये प्रवाहित कर दें।
काल का तात्पर्य है मृत्यु रूपी स्थितियां व अंधकारमय जीवन और भगवती महाकाली जीवन से अधंकार को पूर्ण रूप से दूर करतीं हैं। जिससे साधक के जीवन में महावीरमय मृत्युंजय स्थितियां निर्मित होती हैं।
भगवती के ललाट पर अमृतत्व रूपी चन्द्रमा सुशोभित है। अतः काली के साधक को विषमय स्थितियों से निवृत्ति प्राप्त होता है। वे त्रिगुणातीता हैं, सूर्य, चन्द्र और अग्नि ये भगवती के तीन नेत्र है, इसकी उपासना से साधक भूत-वर्तमान-भविष्य देखने में समर्थ होता है। जिस प्रकार सिंह गर्जना से भयभीत हो अन्य पशु भाग जाते हैं, उसी प्रकार महाकाली शक्ति साधना से साधक में तेजमय चेतना का विस्तार होता है, जिससे समस्त पाप-दोष, तंत्र बाधा, कालसर्प दोष पलायित हो जाते हैं। भगवती महाकाली सदैव अपने बाल सुलभ हृदय वाले साधकों की प्रार्थना को सुनती हैं और उनकी मनः इच्छा को पूर्ण करती हैं। शास्त्रों में भगवती काली को दस महाविद्याओं में प्रमुख स्थान दिया गया है। आचार्य भट्ट ने काली के दस अर्थ बतायें हैं-
यह साधना शीघ्र फलदायी है व दरिद्रता नाशक, पाप-ताप, कालसर्प दोष निवारक, सर्व विघ्नहारिणी व जीवन को मंगलमय चेतना से आप्लावित करने में अचूक है।
नवरात्रि के प्रथम दिवस पर जीवन को हर दृष्टि से सुमंगलता से ओत-प्रोत करने हेतु साधक सूर्योदय से पूर्व अथवा मध्य रात्रि में शुद्ध वस्त्र धारण कर दक्षिण दिशा की ओर मुंह कर बैठ जायें और सामने तेल का दीपक लगा लें, प्लेट में सुमंगलमय प्रदाता सिद्ध महाकाली यंत्र स्थापित करें और साथ में अमंगलमय स्थितियों को समाप्त करने हेतु हकीक माला को स्थापित कर इन सभी का सिन्दूर से तिलक करें। नित्य 1 माला मंत्र जप विजय दशमी तक करें-
साधना पूर्णता पर यंत्र व माला लाल कपड़े में बांधकर किसी निर्जन स्थान पर गाड़ दें या किसी सरोवर में प्रवाहित कर दें। ऐसा करने से सभी दोषो से मुक्ति मिलती है और साधक दिन-प्रतिदिन सुवृद्धि की ओर बढ़ता है।
मातंगी शब्द जीवन के प्रत्येक पक्ष को उजागर करने की क्रिया का नाम है। जीवन के सैकड़ों पक्ष है, जहां भौतिक पक्ष है- स्वास्थ्य, आयु, धन, कुटुंब सुख, पत्नी, पुत्र, पुत्रियां, गृहस्थ सुख, ऐश्वर्यता आदि अनेक प्रकार की इच्छाओं की पूर्ति वैसे ही आध्यात्मिक पक्ष भी हैं- कुण्डलिनी जागरण, ध्यान, समाधि, साधना सिद्धि, एकाग्रता, इष्ट दर्शन, आने वाले भविष्य को देखने की क्षमता, किसी भी व्यक्ति के भूतकाल को परखने की पहचान व सिद्धाश्रम की प्राप्ति।
ये सभी क्रियायें, ये सभी स्थितियां केवल मातंगी साधना से ही प्राप्त हो सकती है। यदि हम मातंगी साधना को भली प्रकार से सम्पन्न कर लें, तो निश्चय ही ये सारी स्थितियां स्वतः ही प्राप्त हो जाती हैं।
विश्वामित्र ने कहा है- बाकी नौ महाविद्याओं का भी समावेश मातंगी साधना में स्वतः ही हो गया है। चाहे हम बाकी नौ साधनायें नहीं भी करें और केवल मातंगी साधना को ही सम्पन्न कर लें, तो भी अपने आप में पूर्णता प्राप्त होती है। शास्त्रों में मातंगी साधना को सर्वोच्चता और श्रेष्ठता दी गई है।
मातंगी साधना को सम्पन्न करने के बाद साधक शारीरिक, मानसिक और आर्थिक तीनों ही दृष्टियों से पूर्ण स्वस्थ, सुखी और सम्पन्नता से युक्त जीवन प्राप्त कर सकता है और गृहस्थ जीवन भी पूर्णतः सुखमय होता है, अतः इस प्रयोग के द्वारा साधक सभी भौतिक सुखों की प्राप्ति करने में सक्षम हो जाता है।
वैभव लक्ष्मी मातंगी साधना सम्पन्न करने से सांसारिक जीवन में लक्ष्यों की प्राप्ति और शारीरिक बल, शक्ति, ऊर्जा और चेतना की प्राप्ति होती है। इस साधना के माध्यम से कार्य सुगम और सरलता से पूर्ण होते हैं। इसे सम्पन्न कर आप स्वयं अनुभव करेंगे कि जो काम आप पिछले कई वर्षों में नही कर सकें, वो कुछ ही दिनों में पूर्ण करने में सफल हो जाते हैं।
साधक को चाहिये कि वह सूर्योदय से पूर्व भोर काल में स्नान आदि से निवृत्त हो, उत्तर दिशा की ओर मुंह कर, आसन पर बैठ जाये और अपने सामने गुरु चित्र और मातंगी यंत्र एक लकड़ी के बाजोट पर स्थापित कर दे तथा उसका कुंकुम, अक्षत, धूप, दीप, पुष्प, नैवेद्य आदि से पूजन सम्पन्न करें। फिर साधक वैभव लक्ष्मी जीवट को आसन के नीचे दबाकर 1 माला गुरु मंत्र जप सम्पन्न कर राज-राजेश्वरी माला से 5 माला मंत्र जप करें-
मंत्र जप सम्पन्न होने के पश्चात् गुटिका, यंत्र एवं माला को किसी नदी या तालाब में विसर्जित कर दें। इस प्रकार यह साधना पूर्ण हो जाता है और साधक को यथा शीघ्र अनुकूलता की प्राप्ति होने लगती है।
इस साधना के बारे में दो बातें विशेष रूप से हैं। प्रथम तो यह दुर्गति व कलह निवारणी शक्ति है, द्वितीय यह कि पार्वती गौरी लक्ष्मी का विशाल एवं रक्ष स्वरूप है। जो क्षुधा भूख से विकलित कृष्ण वर्णीय रूप है, जो अपने भक्तों को अभय देने वाली तथा उसके शत्रुओं के लिए साक्षात् काल स्वरूप है। इस साधना के सिद्ध होने पर भूत-प्रेत, पिशाच व अन्य तंत्र बाधा का साधक व उसके परिवार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
जब कोई साधक धूम्र वाराही साधना सम्पन्न करता है, तो भगवती वाराही प्रसन्न होकर साधक के शत्रुओं का भक्षण कर लेती हैं और साधक को अभय प्रदान करती हैं। धूमावती शत्रुओं पर प्रचण्ड वज्र की तरह प्रहार करने वाली मानी जाती है। ये प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दोनो ही रूपो में सहायक सिद्ध होती ही हैं।
जो वाराही महाशक्ति स्वरूपा और दुखों से निवृत्त करने वाली है। बुरी शक्तियों से पराजित न होना और विपरीत स्थितियों को अपने अनुकूल बना देने की शक्ति साधक को इनकी साधना से प्राप्त होती है। कहते हैं कि समय बड़ा बलवान होता है और उसके आगे सबको हार मानना पड़ता है, किन्तु कर्ण पिशाचिनी शक्ति से युक्त होने के कारण इस साधना के द्वारा साधक पूर्व में ही सभी विपरीत स्थितियों से अवगत हो जाता है। उसे पूर्व में ही सुरक्षित मार्ग का ज्ञान हो जाता है। वह समय से भी ज्यादा बलशाली कहलाता है।
जो भयग्रस्त, दीन-हीन और अभावग्रस्त जीवन जीते हैं, वे कायर और बुजदिल कहलाते हैं, किन्तु जो बहादुर होते हैं। वे सब परिस्थितियों से अवगत होकर उन पर विजय प्राप्त करते हैं। जो कुछ उनके भाग्य में नहीं है, उसे भी साधना के बल पर प्राप्त करने की सामर्थ्य रखते हैं। आज समाज में जरूरत से ज्यादा द्वेष, ईर्ष्या, छल कपट, हिंसा और शत्रुता का वातावरण बन गया है, फलस्वरूप यदि व्यक्ति शांतिपूर्वक रहना चाहे, तो भी वह नहीं रह सकता। अतः जीवन की असुरक्षा समाप्त करने की दृष्टि से यह साधना विशेष महत्वपूर्ण एवं अद्वितीय है। सृष्टि में जितने भी दुःख हैं, व्याधियां हैं, बाधायें हैं, इनके शमन हेतु ये साधना श्रेष्ठ है। इस साधना के द्वारा धन-धान्य, समृद्धि की कमी नहीं होने पाती, क्योंकि इस साधना के माध्यम से लक्ष्मी प्राप्ति में आने वाली बाधाओं का पूर्ण दमन होता है।
मध्य रात्रि से पूर्व स्नान आदि से शुद्ध होकर साधना कक्ष में पश्चिम दिशा की ओर मुंह कर लाल धोती पहन कर लाल ऊनी आसन पर बैठ जायें। प्लेट में लाल वस्त्र बिछाकर कर्ण पिशाचिनी यंत्र स्थापित करें, यंत्र को जल से धोकर उस पर कुंकुम से तीन बिन्दी लगा लें, धूप व दीप जला कर पूजन सम्पन्न करें। सद्गुरु का ध्यान करते हुये बायें हाथ में धूम्र वाराही गुटिका मुटठी में दबाकर शत्रु दमन माला से 5 माला मंत्र जप करें-
जप समाप्ति पर सभी सामग्री लाल कपड़े में लपेट कर आठवें दिन शाम को किसी जन-शून्य स्थान में जाकर गढ्ढा खोदकर दबा दें और पीछे मुड़कर न देंखें। घर आकर हाथ-पैर धो लें। पूर्ण मनोभाव से साधना करने पर निश्चिन्त रूप में सुफल की प्राप्ति होती ही है।
जब शिव और शक्ति का मिलन होता है तो सृष्टि में सृजन निर्माण की स्थिति बनती है, जगत् क्रियाशील होता है, भूमि उर्वर होती है जल व पृथ्वी का मिलन होता है। इस निर्माण में जो मूल तत्व है वही कामाख्या तंत्र है। कामाख्या शक्तिपीठ जो नीलांचल पर्वत पर स्थित है। उस शक्ति की साधना योगी तांत्रिक-मांत्रिक स्त्री-पुरुष सभी करते हैं। जब तंत्र के माध्यम से यह साधना सम्पन्न की जाती है तो स्वतः ही पूर्णता प्राप्त होती है।
कामाख्या तंत्र जीवन को पूर्णता देने का तंत्र है। कामाख्या देवी ही जीवन का सृजन करने वाली हैं और जीवन की प्रत्येक स्थिति में उनका ही वर्चस्व है, कामाख्या तंत्र जीवन की प्रत्येक स्थिति से सम्बन्ध रखती है। कामपीठ से जो भी प्रकट होगा वह पूर्ण ही होगा।
जीवन की सफलता कई-कई छोटी आवश्यकताओं की पूर्ति पर ही पूरी होती है। धन-दौलत, पद-प्रतिष्ठा, स्वास्थ्य, सुयोग्य पत्नी, पुत्र-पौत्र सुख, वैभव, सुन्दर भवन, वाहन, राज सुख आदि अनेक सुखों से जीवन को सम्पूर्णता मिलती है। इन सभी के बीच में धन और ऐश्वर्य का विशेष अर्थ होता है। आज के युग में यदि व्यक्ति चाहे कि वह सीमित संसाधन व आय से जीवन के सभी सुखों को पूर्ण रूपेण भोगना संभव ही नहीं। केवल पद-प्रतिष्ठा और समाज में सम्मान की दृष्टि से ही नही, आज तो जीवन की जरूरते पूरी करने के लिये भी, सामान्य से भी अधिक धन की आवश्यकता पड़ती है।
कामाख्या तंत्र में जिस प्रकार लक्ष्मी प्रदायक साधना वर्णित हुआ है, उसमें मूल पूजन तो कामाक्षी देवी का ही है इस साधना में जिस यंत्र की आवश्यकता पड़ती है उसका अमृत पीठेश्वरी मंत्रों से सिद्ध होना आवश्यक होता है। इस काम पीठ की सौम्यता और वरदायक स्वरूप की संज्ञा अमृत पीठेश्वरी ही हैं और वास्तव में कामाख्या देवी अमृत पीठेश्वरी स्वरूप में धन, प्रसन्नता, पूर्णता, काम शक्ति, यौन सुख, पूर्ण पौरूषता और वह सब कुछ जो आज के सांसारिक गृहस्थ जीवन की आवश्यकता है साधक को प्रदान करती हैं। कामाख्या शक्ति नवीन सृजन दायक दैवीय शक्ति हैं। जिनके द्वारा जीवन में नवीनता का निर्माण और सृजन निरन्तर होता रहता है।
कामाख्या यंत्र रात्रि में 10 बजे के बाद लाल वस्त्र पर स्थापित कर दें और इसका पूजन लाल फूलों, बिल्व पत्र, लौंग, रक्त चन्दन, सिन्दूर से करें। कामबीज को काले धागे में पिरोकर गले में धारण कर निम्न मंत्र का कामाख्या शक्ति सिद्धि माला से तीन माला मंत्र जप करें ।
मंत्र जप पूर्ण कर पुनः पूजन लाल पुष्पों से करें। पूजन के बाद कामबीज को तीन माह तक धारण करें व यंत्र तथा माला को किसी लाल वस्त्र में बांध कर जल में प्रवाहित करें। यह साधना वास्तव में तंत्र की एक सशक्त और प्रभावशाली साधना है जिसके द्वारा साधक को एक के बाद एक धन के स्रोत और सफलता मिलती रहती है तथा सृजनात्मक स्थिति का प्रादुर्भाव होता है। गृहस्थ जीवन में रस, प्रेम, आनन्द, काम शक्ति, पति-पत्नी मधुरता, नौकरी में पदोन्नति, समाज में सम्मान-प्रतिष्ठा की वृद्धि होती है।
छिन्नमस्ता महाविद्या साधना तीव्र तांत्रोक्त साधना है, क्योंकि यह क्लीं बीज युक्त प्रचण्ड शत्रुहन्ता साधना है, जिससे व्यक्ति वज्र के समान अपने सभी शत्रुओं, विकारो, न्यूनताओं पर वैरोचनीये स्थिति में विजय प्राप्त करता है। पूर्व जन्मकृत दोष समाप्ति, सद्बुद्धि, क्रियाशीलता, स्वयं पर नियंत्रण रखने की यह अद्भुत साधना है। माया, मोह रूपी कलियुग में छिन्नमस्ता साधना की तुलना किसी भी अन्य साधना से नहीं की जा सकती है।
वास्तव में छिन्नमस्ता साधना की आज के भौतिक युग में नितांत आवश्यकता प्रतीत होती है। क्योंकि आज के आधुनिक युग में प्रतिस्पर्धा की लड़ाई शीर्ष पर स्थित है। हर व्यक्ति एक- दूसरे से आगे निकलने की होड़ में है। जिसके लिये वे नीच से नीच क्रिया करने से भी नहीं चूकते। ऐसे में प्रत्येक व्यक्ति को सुरक्षात्मक कवच के साथ ही साथ भौतिकता के प्रत्येक क्षेत्र में पूर्णता चाहिये। जिसके लिये यह साधना वज्र के समान फल देने में पूर्णता समर्थ है। वहीं इस साधना के द्वारा आध्यात्मिक उच्चता भी प्राप्त होती है।
छिन्नमस्ता दस महाविद्याओं में सर्वश्रेष्ठ महाविद्या है, इस महाविद्या को सिद्ध कर अन्य महाविद्याओं को भी आसानी से सिद्ध किया जा सकता है, साधक को अत्यधिक सक्षमता और लगन पूर्वक, पूर्ण एकाग्रता से इसे सम्पन्न करना चाहिये, इस साधना को प्रारम्भ करने से पूर्व श्रद्धा, विश्वास जैसे गुणों से परिपूर्ण होना आवश्यक है।
नवरात्रि दिवसों में पूर्णरूपेण सभी ग्रह सक्रिय हो जाते हैं और शुक्ल पक्ष की भाव स्थिति के कारण ये दिवस साधना पर्व कहलाते हैं और पूर्ण मनोभाव से विधि-विधान स्वरूप साधना करने से जीवन की मलिनता समाप्त होती ही है, अतः रात्रि काल में साधना सम्पन्न करना श्रेयष्कर रहता है।
पूजा स्थान में तांबे की बड़ी प्लेट में सिन्दूर से स्वस्तिक बनाएं तथा चारों दिशाओं में सिन्दूर से चार त्रिशूल के निशान बनायें, फिर छिन्नमस्ता यंत्र मध्य में स्थापित कर दें तथा नीलांक्ष को दक्षिण दिशा की ओर बने त्रिशूल पर स्थापित करें और शेष तीनों त्रिशूलों पर एक-एक लौंग रख दें, इन सभी वस्तुओं पर लाल पुष्प तथा कुंकुम से रंगे हुए चावल चढ़ायें। फिर एक माला गुरु मंत्र का जप कर सद्गुरु को साधना सफलता के लिये आवाहित करें।
विरोचिनी माला से उक्त मंत्र का 11 माला जप करें। जप समाप्ति के पश्चात् यंत्र, नीलांक्ष और माला एक साथ नीले रंग के वस्त्र में बांधकर किसी पवित्र सरोवर या नदी में विसर्जित कर दें।
इस साधना के माध्यम से प्रबल से प्रबल शत्रुओं का भी पूर्ण रूप से नाश होता है साथ ही यदि कारोबार, रोजगार विपन्न अवस्था में चल रहा हो तो इस साधना के बाद धन की सुदृढ़ता होती ही है और आर्थिक अभाव समाप्त हो जाते हैं। धन का आगमन बराबर बना रहता है।
तारा शब्द का सरलार्थ है- उबारने वाली, तारने वाली। इस प्रकार दैहिक, दैविक और भौतिक-इन तीनों प्रकार के तापों के कारण ही भगवती तारा कही गयी। पतंजलि ने कहा है- अविद्या, द्वेष, अस्मिता, राग तथा अभिनिवेश इन पांच प्रकार के क्लेशों से भगवती तारा अपने साधक की रक्षा करती हैं।
भगवती तारा साधना करना अत्यधिक फलदायी है, वर्तमान समय में अपने जीवन को परिपूर्ण बनाये रखने के लिये, जीवन को प्रत्येक विपत्तियों से सुरक्षित रखने के लिये तथा मुख्य रूप से घर में सम्पन्नता बनाये रखने के लिये। इन तीन तत्वों की पूर्ति के लिये भगवती तारा की साधना महत्वपूर्ण एवं आवश्यक है। पूर्ण विधान से साधना सम्पन्न करने वाले साधक को जीवन पर्यन्त आर्थिक रूप से कमी का एहसास नहीं होता है, साधक सभी संतापों से पूर्णरूपेण विर्निमुक्त हो जाता है।
रात्रि 9 बजे के पश्चात् स्वच्छ वस्त्र धारण कर गुलाबी आसन पर उत्तर दिशा की ओर मुंह कर बैठ जायें। बाजोट पर गुलाबी वस्त्र बिछा दें और उस पर गुलाबी रंग से रंगे चावलों की तीन ढेरियां बना दें, इन ढ़ेरियों पर एक-एक लौंग रखें तथा तारा यंत्र व भगवती तारा बाहु बीच की ढे़री पर गुलाब के पुष्पों के साथ स्थापित करें। फिर दोनों हाथ जोड़कर श्रद्धायुक्त हृदय से भगवती तारा का ध्यान करें-
प्रत्यालढ़ पदार्पितांघ्रिशवहृद् घोरादृहासा परा, खड्गेन्दीवरकर्तृं खर्परभुजा हूं कारबीजोद्भवा।
खर्वानील विशालपिंगल जटा जूटैकनागैर्युताः, जाड्यं न्यस्य कपालिके त्रिजगतां हन्त्युग्रतारा स्वयम्।।
दाहिने हाथ में जल लेकर विनियोग मंत्र बोल कर जमीन पर छोड़ दें-
अस्य श्रीतारामंत्रस्य अक्षोभ्य ऋषिः, बृहती छन्दः तारा
देवता, ह्रीं बीजं, हुं शक्ति, स्त्रीं कीलकं, अष्टतारिणी
ममाभीष्ट सिद्धये जपे विनियोगः।
पश्चात् यंत्र का संक्षिप्त पूजन कर संताप तारिणी माला से निम्न मंत्र की 5 माला मंत्र जप करें-
मंत्र जप के पश्चात् घी के दीपक से गुरु आरती और जगदम्बा आरती सम्पन्न करें।
साधना पश्चात् यंत्र, चित्र, माला, लौंग एवं पूजा में प्रयुक्त पुष्पादि को बाजोट पर बिछे कपड़े सहित लपेट कर मौली से बांध दें और किसी नदी या तालाब में विसर्जित कर दें।
मानव जीवन में पग-पग पर शत्रु पैदा होते रहते हैं, जिनके बीच खड़े रहकर अपनी मंजिल की ओर बढ़ना सामान्य मनुष्य के लिए कठिन और दुष्कर होता है। जिसके कारण बार-बार प्रयत्न करने पर भी वह अपना लक्ष्य प्राप्त करने में असमर्थ रहता है और उसे अपने जीवन में दुःख, तकलीफ़, परेशानी, पीड़ा सहन करना पड़ता है, वह इन पीड़ाओं के कारण जीवन से हताश, निराश हो जाता है।
प्राचीन काल से अब तक यही होता रहा है, कि जो साधारण, कमजोर, अस्वस्थ, निर्बल प्राणी होते हैं, उन पर बलिष्ठ, ताकतवर, दुष्ट प्रवृत्तिमय असुरी विचारधारा के लोग प्रहार करने की कोशिश करते हैं, उनकी मंशा उस व्यक्ति पर अपना आधिपत्य स्थापित करने की होती है।
प्रतिस्पर्धा के इस युग में मनुष्य की अनेक चिन्ताएं हैं और वह उन सभी चिन्ताओं से निकलने का प्रयास करता है, परन्तु अधिकांश लोग इसी के बीच घिर कर ठीक ढंग से चिंतन-मनन, विचार व कार्य करने में असमर्थ हो जाते हैं और अपने शत्रु रूपी समस्याओं को कैसे परास्त किया जाए निर्णय न ले पाने के कारण उनका जीवन संकट ग्रस्त हो जाता है।
जीवन की समस्यायें उसे हर पल परेशानियां, तनाव, चिन्ता तथा अभावयुत्तफ़ जीवन ही प्रदान करती है, जो उस पर हर क्षण प्रहार करते ही रहते हैं, जिससे मानव जीवन दुःखदायी हो जाता है। ये शत्रु कभी रोग के रूप में तो कभी आर्थिक संकट के रूप में पग-पग पर विकास का मार्ग बाधित करते हैं। इन सभी विषमताओं को दूर करके ही एक श्रेष्ठ सुखमय जीवन प्राप्त किया जा सकता है। जीवन के विभिन्न पक्षों में शत्रु भिन्न-भिन्न रूप धारण कर मानव के सामने खड़े हो जाते हैं, केवल वही मनुष्य उन शत्रुओं से मुक्ति पा सकता है, जो उन्हें परास्त करने की क्षमता साधनात्मक क्रियाओं द्वारा पूर्णता से प्राप्त कर लेता है।
जीवन के बाधाओं, कष्टों, परेशानियों से छुटकारा पाया जा सकता है, यदि इस विशिष्ट ब्रह्मास्त्र बगलामुखी साधना को पूर्णरूपेण आत्मसात कर लिया जाये, इतिहास साक्षी है पौराणिक काल में जब भी संकट का समय आया इस साधना द्वारा अत्यन्त ही तीक्ष्ण और शीघ्र फलदायक की प्राप्ति हुई। इस साधना के द्वारा सांसारिक व्यक्ति भी शत्रुओं पर विजय निश्चित रूप से प्राप्त कर सकता है और अभाव युक्त जीवन से मुक्ति प्राप्त कर सकता है।
मध्य रात्रि के पूर्व स्नानादि से निवृत्त होकर शुद्ध पीले वस्त्र धारण कर संक्षिप्त गुरु पूजन करें, फिर एक बाजोट पर गहरे पीले रंग का वस्त्र बिछाकर, उस पर रक्त चन्दन से त्रिशूल बनाकर ब्रह्मास्त्र शक्ति युक्त बगलामुखी यंत्र को स्थापित कर कुंकुम, अक्षत से संक्षिप्त पूजन कर, तिल के तेल का दीप प्रज्ज्वलित करें, पश्चात् संकल्प लें कि मैं अमुक (अपना नाम) अपने सर्व शत्रुओं के शमन व सुरक्षा हेतु ब्रह्मास्त्र बगलामुखी साधना सम्पन्न कर रहा हूं, ऐसा कह कर उस जल को जमीन पर छोड़ दें, हाथ को जल से धो लें।
सर्वप्रथम गुरु मंत्र की 1 माला मंत्र जप कर शत्रु संहारक माला से उक्त मंत्र की 7 माला जप करें। मंत्र जाप की समाप्ति के पश्चात् पुनः गुरु मंत्र की 1 माला जप कर गुरु आरती सम्पन्न करें। विजय दशमी पर समस्त सामग्री जल में प्रवाहित कर दें।
यों तो किसी भी देवी की पूजा व साधना की जाये, शीघ्र सफलता मिलती ही है, परन्तु शक्तिमय दुर्गा के अनेक स्वरूपों की आराधना, वन्दना करना श्रेयष्कर रहता है। क्योंकि मां जगत जननी होती है और जो जननी स्वरूप में निर्माण करती है, वही अपनी शक्ति से उसे सर्वश्रेष्ठ बनाती है। साथ ही वह करूणामयी, ममतामयी होती है। अपने इसी विशालतम करूणामयी स्वरूप के कारण ही वह देवी स्वरूपा कहलाती है और दे देती है वह सब कुछ, जो उसके पास है, जिससे उसके पुत्र अथवा आत्मीय के जीवन को सभी संकटों से निवृत्ति प्रदान करने की ऊर्जा से युक्त करती है। इसी से वह निरन्तर क्रियाशील रहता है। जीवन में स्वच्छ एवं सरल मार्ग प्रशस्त करती है, जिस पर चलकर उसका जीवन सुखमयता की ओर अग्रसर रहता है, उसकी समस्त त्रुटियों का निस्तारण साधना रूपी शक्तियों से प्रदान करती है।
आज के युग में प्रत्येक व्यक्ति सौन्दर्य युक्त, प्रभाव युक्त, शक्तिशाली एवं अद्वितीय जीवन जीना चाहता है और इसके लिये भरसक प्रयास भी करता है, किन्तु अपने-आप को असफल एवं असमर्थ ही पाता है और इस असमर्थता को दूर करने के लिये वह कोई भी मार्ग, कोई भी उपाय करने के लिये तत्पर रहता है, ऐसे क्षणों में यदि सही मार्ग प्रशस्त हो जाये, तो वह अपने जीवन के अभावों को दूर कर पुनः जीवन की सृष्टि कर सकता है।
भगवती ललिताम्बा जो ब्रह्माण्ड की समस्त सिद्धियों की स्वामिनी है। ललित स्वरूपों में जहां वह अपने प्रेम, स्नेह और करूणा से साधक को अपना आशीर्वाद प्रदान करतीं हैं, वहीं अम्बा रूप में उसके पूर्व जन्मकृत पाप-दोषों का शमन कर, उसके जीवन के समस्त शत्रुओं का विनाश कर उसे एक निर्विघ्न चिन्ता मुक्त जीवन प्र्रदान करती है और ये शत्रु हैं- उसके भौतिक और आध्यात्मिक जीवन की समस्त न्यूनतायें।
यह उस मनुष्य का सौभाग्य ही है कि वह भगवती ललिताम्बा सिद्धि की ओर प्रवृत्त हो, क्योंकि अन्य देवियों की अपेक्षा भगवती ललिताम्बा की साधना अपने-आप में उत्कृष्ट और श्रेयस्कर मानी जाती है। वह साधक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विजय प्राप्त करता है, फिर जीवन में उसे किसी भी प्रकार का कोई भय नहीं रहता। इस साधना से नपुंसक व वृद्ध व्यक्ति भी पूर्ण यौवनवान एवं कामदेव के समान शक्ति युक्त बन जाता है। इसे सम्पन्न करने पर साधक को विभिन्न लाभ प्राप्त होते हैं-
यह साधना—————-सम्पन्न करें। स्नानादि से निवृत्त होकर शुद्ध पीला वस्त्र धारण कर उत्तर दिशा की ओर मुंह कर बैठ जायें। सामने पीले आसन की चौकी पर गुरु यंत्र, गुरु चित्र, ललिताम्बा यंत्र और सम्मोहन वशीकरण गुटिका स्थापित कर पंचोपचार पूजन करें। पश्चात् ललित कला प्राप्ति माला से 9 माला जप करें।
मंत्र जप समाप्ति के बाद माला एंव यंत्र को किसी जलाशय में विसर्जित कर देना चाहिये।
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