जीवन में कर्तव्य आवश्यक हो सकते हैं लेकिन जिस प्रकार से कर्तव्य आकर जीवन को ग्रसित कर लेते हैं वह न तो आवश्यक होता है न सहज। बचपन, बचपन के बाद किशोरावस्था, किशोरावस्था के बाद यौवन और इसी यौवन की प्रथम सीढ़ी पर पांव रखते ही कर्तव्यों का संसार भी प्रारंभ हो ही जाता है। स्वयं खुद के भरण-पोषण के साथ-साथ माता-पिता का दायित्व, छोटे भाई-बहिनों का परोक्ष अथवा अपरोक्ष रूप से दायित्व एवं स्वयं अपने परिवार की जिम्मेदारी यही लगभग पहचत्तर प्रतिशत व्यक्तियों के जीवन की कथा है। शेष पच्चीस प्रतिशत में हो सकता है कि उन्हें पैतृक सम्पदा मिली हो, पारिवारिक दायित्व, किन्हीं अन्य सुविधाओं से या तो न हो अथवा सीमित हो, किन्तु फिर भी जीवन-यात्रा तो शेष रह ही जाती है।
प्रायः 20-22 वर्ष की अवस्था आते-आते व्यक्ति को अपने भविष्य और भावी जीवन की चिन्ताये आकार घेर लेती ही है। स्व. व्यवसाय अथवा नौकरी-इनमें से किसका चुनाव किया जाये, इस बात का द्वंद्व प्रारंभ हो ही जाता है। कुछ सौभाग्यशाली होते हैं जिन्हें पैतृक रूप से जीवन-यापन का मार्ग मिल जाता है। घर का व्यवसाय या पैतृक सम्पत्ति मिल जाती है किन्तु सम्पत्ति प्राप्त होना ही जीवन की पूर्णता और सफलता नहीं मानी जा सकती, इसके बाद भी विवाह, खुद का स्वास्थ्य, शत्रु-निवारण, घर की शान्ति जैसे बहुत से पक्ष शेष रह जाते हैं। दूसरी ओर सामान्य व्यक्ति को तो प्रारंभिक बिन्दु अर्थात् धन के उपार्जन से ही अपने जीवन का प्रारंभ करना पड़ता है।
जीवन के कर्तव्यों और इन आवश्यक प्राथमिक पक्षों को यदि क्षण भर के लिये परे रखकर देखें तो व्यक्ति की अपनी इच्छाओं और भावनाओं का भी संसार होता है और वह संसार ही उसके दैनिक जीवन में सरसता तथा गति का आधार होता है। लेकिन कब जीवन कर्तव्य भावना और वास्तविकताओं के बीच गुड्ड-गुड्ड होकर बीत जाता है इसका पता ही नहीं चलता और जब तक पता लगता है, जीवन में कुछ ठहराव आता है तब तक खुद की संतान बड़ी हो गई लगती है। पता लगता ही नहीं कि यौवन की उस पहली सीढ़ी के बाद कब 20-22 वर्ष बीत गये और जीवन के उस चरण तक आने के बाद मन में उमंगें बची हो या न बची हों, जीवन में आशा शेष रह गयी हो या न रह गयी हो, कुछ कहा नहीं जा सकता।
एक प्रकार से देखा जाये तो प्रायः पच्चीस वर्ष की अवस्था में कंधों पर कर्त्तव्यों का जो जुआ लाकर रख दिया जाता है वह फिर मृत्यु के साथ ही उतरता है और उतरता कहां है? व्यक्ति आते-जाते अपनी संतानों के कंधे पर रखकर चला जाता है, उसका क्या कारण है, इसका क्या उपाय है, यह सोचने के अवसर जीवन में आते ही नहीं क्योंकि धन कमा कर कुछ फुर्सत पायी तो पत्नी की बीमारी सामने आकर खड़ी हो गयी, पत्नी स्वस्थ हुई हो तो बेटा पढ़ाई में कमजोर पड़ने लगा, उससे निपटे तो कहीं धन फंस गया, ज्यों-त्यों उसको भी निबटाया तो खुद का स्वास्थ्य…
साधक पत्रिका में वर्णित साधनायें पढ़ते हैं, उनका लाभ भी प्राप्त करते हैं किन्तु उनके मन में एक प्रश्न शेष रह जाता है कि जीवन पूरी तरह से क्यों नहीं संवर रहा है? उन्हें शंका होती है कि मैंने अमुक-अमुक साधनाये की, दीक्षायें भी ली किन्तु पूर्णरूप से लाभ नहीं मिल सका और एक प्रकार से उनका सोचना गलत भी नहीं है क्योंकि प्रत्येक जागरूक साधक अपनी ओर से अपनी क्षमता भर प्रयास करता ही है, इसमें कमी केवल यह रह जाती है कि उनके जीवन में प्रत्येक साधना आवश्यक होते हुये भी फल अपने विशेष स्वरूप के अनुसार ही देती है, जबकि जीवन की सफलतायें अनेक पक्षों से निर्मित होती है।
जीवन के अनेक पक्ष और वे भी पूर्णता से, प्रत्येक साधना नहीं समेट सकती जबकि एक इच्छा के बाद दूसरी इच्छा का जन्म होता ही है, एक स्थिति में सफलता मिलने के बाद दूसरी स्थिति आती ही है और इनकी पूर्ति करना भी कोई दोष युक्त कार्य नहीं है। जीवन के ऐसे चिन्तन को लेकर योगियों ने वे सूत्र ढूंढने चाहे जो जीवन के आवश्यक सूत्र हैं और उनके साथ ही साथ कोई ऐसी साधना भी प्राप्त करनी चाहिये जो जीवन के सभी प्रारंभिक और आवश्यक तत्वों को अपने साथ समेटती हो। उन्होंने अपने निष्कर्षों में पाया कि जीवन के ऐसे पक्ष कुल 14 हैं जिनमें धन प्राप्ति, स्वास्थ्य, पारिवारिक सुख, शत्रु बाधा निवारण, राज्य सम्मान, विदेश यात्रा योग, पुत्र सुख, इत्यादि सम्मिलित किये और यह निष्कर्ष निकला कि जीवन में इन चौदह स्थितियों का प्राप्त होना ही जीवन की पूर्णता है जिसे उन्होंने भाग्योदय के नाम से वर्णित किया, जिसके द्वारा जीवन की प्रारंभिक स्थितियों को सुधारने के साथ ही साथ जीवन की भावी योजनाओं की पूर्ति भी हो सके।
जीवन में साधनायें तो महत्वपूर्ण होती ही हैं उनके साथ ही साथ वे दिवस भी महत्वपूर्ण होते हैं जिनका तादात्म्य साधना विशेष से किया जाय और जब ऐसा संभव हो सकता है अर्थात उचित मुहूर्त का समन्वय उचित साधना से कर दिया जाता है तब तो विशेष कुछ घटित होता ही है। यों तो जीवन में कोई भी साधना कभी भी सम्पन्न की जा सकती है किन्तु जो साधनायें प्रारंभ की, आधार एवं एक प्रकार से अंकुरण की साधनायें होती हैं उनके सन्दर्भ में मुहूर्त का महत्व सबसे अधिक होता है। ठीक यही बात उन साधनाओं के सन्दर्भ में भी कही जा सकती है जो सम्पूर्णता की साधनायें- इन दो दशाओं में साधना विशेष का महत्व काल के किन्हीं विशेष क्षणों से पूर्णतः बद्ध होता ही है।
भाग्योदय साधना एक ऐसी ही विशिष्ट साधना है। चार्तुमास का यह समय अत्यन्त ही विशेष है और इस देव सिद्धि मास में इस प्रकार की उच्चकोटि की साधना सम्पन्न करने के लिये सर्वश्रेष्ठ समय है। जहां सिद्ध योगी इस दिवस का उपयोग किसी उच्चकोटि की साधना को सम्पन्न करने में करते हैं वहीं गृहस्थ व्यक्ति इस दिन का उपयोग भाग्योदय साधना में कर सकते हैं। उच्चकोटि की साधनाओं में प्रवेश लेने से पूर्व, महाविद्या साधना अथवा जगदम्बा साधना में पूर्ण सफलता प्राप्त करने हेतु भी भाग्योदय साधना सम्पन्न करना अति आवश्यक माना गया है।
इस साधना की मूलशक्ति माँ भगवती महालक्ष्मी है और जहां केवल महालक्ष्मी साधना सम्पन्न करने से साधक को धन, ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है वहीं महालक्ष्मी को आधार बनाते हुये इन दिवसों पर भाग्योदय साधना सम्पन्न करने से उसे सर्वविधि सौभाग्य प्राप्त होता है। एक प्रकार से महालक्ष्मी अपने एक हजार आठ वर्णित स्वरूपों के साथ पूर्ण कृपालु हो जाती है और विशेष यंत्रों के माध्यम से विशेष प्रक्रिया के द्वारा उनको चिरस्थायित्व दिया जा सकता है, जिससे साधक के जीवन में कदम-कदम पर बाधाये और अड़चने न आये।
साधक को चाहिये कि साधना सम्पन्न करने के लिये समय से बहुत पहले ही सचेत होकर इस साधना की सामग्री को प्राप्त कर लें, क्योंकि यह अवसर ऐसा विशिष्ट अवसर है जो वर्ष में केवल एक बार ही घटित होता है। अन्य साधनाये तो किन्हीं भी शुभ दिवसों या नक्षत्रों में की जा सकती है किन्तु भाग्योदय की यह साधना तो केवल निश्चित सिद्धि दिवस पर ही सम्पन्न की जा सकती है।
इस साधना में केवल तीन सामग्रियों की आवश्यकता होती है- पारद श्रीयंत्र, सौभाग्य शंख एवं कमलगट्टे की माला इसके अतिरिक्त इस साधना में किसी विशेष विधि-विधान या पूजन की आवश्यकता नहीं है। यदि साधक के पास महालक्ष्मी का चित्र हो तो वह उसे मढ़वा कर स्थापित कर दे अथवा महालक्ष्मी के किसी भी स्वरूप का प्राण प्रतिष्ठित चित्र प्राप्त कर उसे साधना हेतु मढ़वा कर स्थापित कर लें।
साधना दिवस के दिन प्रातः 08:30 बजे से 11:30 बजे के मध्य साधना में अवश्य बैठ जाये और समय को इस प्रकार से निश्चित कर लें कि साधना बारह बजे के पहले-पहले अवश्य पूर्ण हो जाये। महालक्ष्मी के चित्र के सामने घी का बड़ा दीपक लगाये कुंकुम, केसर, अक्षत, पुष्प की पंखुड़ियां एवं नैवेद्य से उनका पूजन करने के उपरांत केसर से स्वास्तिक चिन्ह अंकित कर उस पर सौभाग्य शंख स्थापित करें और पहले से ही चुनकर रखे चावल के 108 बिना टूटे दानों को मंत्रोच्चार पूर्वक सौभाग्य शंख पर समर्पित करें।
Om Shreem Hreem Kleem Shreem Lakshmiraagchhaagachh
Mum Mandirae Tishtha Tishtha Swaha
इस पूजन के उपरान्त कमलगट्टे की माला से श्रीयंत्र पर त्राटक करते हुये निम्न मंत्र की एक माला मंत्र जप करें।
Om Shreem Hreem Kleem Shreem Siddha Lakshmayae Namah
मंत्र जप के उपरान्त भगवती महालक्ष्मी की आरती करें और प्रार्थना पूर्वक अपने स्थान को छोडें। उस सम्पूर्ण दिवस पूजन सामग्री को स्थापित रहने दें लेकिन ध्यान रखें कि चूहे आदि पूजा स्थान को अव्यवस्थित न करें।
सायं काल गोधूलि के पश्चात् उपरोक्त मंत्र की एक माला जप पुनः करें तथा सौभाग्य शंख पर चढ़ाये गये चावलों अथवा पुष्प की पंखुड़ियों को किसी रेशमी कपड़े में बांध लें जो आपके जीवन में स्थायी सौभाग्य के रूप में विद्यमान रहेंगे। सौभाग्य शंख एवं कमलगट्टे की माला को अगले दिन प्रातः विसर्जित कर दें और श्रीयंत्र को किसी भी पवित्र स्थान पर स्थापित कर दें। सौभाग्य प्राप्ति की यह विशेष सिद्ध सफल साधना किसी भी आयु वर्ग का कोई भी साधक या साधिका सम्पन्न कर सकती है।
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