त्रेतायुग में वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि जिसे अक्षय तृतीया कहते है, इसी दिन भगवान विष्णु ने परशुराम जी के रूप में अवतार लिया था। यह तिथि अत्यन्त महत्वपूर्ण तिथि है क्योंकि इसी दिन सतयुग तथा त्रेतायुग की शरूआत हुई थी। इनके पिता महर्षि जमदग्नि एवं माता रेणुका थी। महादेव के परम भक्त होने के साथ ही श्री परशुराम पितृ भक्त भी थे, पिता से इन्हें चिरंजीवी होने का वरदान मिला था। इन्होंने अन्याय, अत्याचार और अधर्म के प्रतीक बने राजा कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन के दुष्कर्मो से आंतकित धर्मशील प्रजा का उद्धार करने के लिये ही परशुराम जी के रूप में अवतार लिया था।
कार्त्तवीर्यार्जुन ने अपनी तपस्या से भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न किया था। भगवान दत्तात्रेय ने युद्ध के समय कार्त्तवीर्यार्जुन को हजारों हाथों का बल प्राप्त करने का वरदान दिया था, जिसके कारण उसे सहस्त्रार्जन कहा जाने लगा। अत्यन्त पराक्रमी बन जाने से वह अहंकारी एवं अत्याचारी बन गया था। शक्ति के नशे में वह धर्म-कर्म भूल चुका था और ऋषि मुनियों सहित पूरी मानवता के लिये स्वयं विनाशकारी बन गया था।
एक बार सहस्त्रार्जुन ने परशुराम के पिता ऋषि जमदग्नि के यहां कामधेनु गाय को देखा और उसे बलपूर्वक उनके आश्रम से ले गया। जब श्री परशुराम को यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने पिता के सम्मान के लिये कामधेनु वापस लाने की सोची और सहस्त्रार्जुन से युद्ध किया। युद्ध में सहस्त्रार्जुन की भुजायें एवं मस्तक कट गये और उसका अंत हो गया। तब सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने प्रतिशोधवश परशुराम जी की अनुपस्थिति में उनके पिता ऋषि जमदग्नि का वध कर डाला। परशुराम की मां रेणूका पति की हत्या से विचलित होकर उनकी चिताग्नि में प्रविष्ट हो सती हो गई।
श्री परशुराम जिन्हें भगवान विष्णु का आवेशावतार भी कहते है इस घोर घटना से अत्यधिक क्रोधित हो गये और उन्होंने संकल्प लिया कि वे हेहैय वंश ( कार्त्तवीर्यजुन जिसका वंशज था) के सभी क्षत्रियों का नाश कर देंगे। तब अहंकारी और दुष्ट हेहैय क्षत्रियों से उन्होनें 21 बार युद्ध किया था।
इस संकल्प के तहत परशुराम जी ने इस वंश के लोगों से बार-बार युद्ध कर उनका 21 बार समूल नाश कर दिया था। परशुराम जी ने कुरूक्षेत्र में क्षत्रियों के रूधिर से पांच कुण्ड भर दिये थे। रूधिर से परशुराम ने अपने पितरों का तर्पण किया तब उस समय ऋषि ऋचीक (परशुराम जी के पूर्वज) प्रकट हुये तथा उन्होंने परशुराम जी को संकल्प पूर्ण होने का ज्ञात कराकर और आगे युद्ध करने से रोका। इसके पश्चात् परशुराम जी ने विशाल यज्ञ कर युद्ध में प्राप्त समस्त पृथ्वी ऋषि कश्यप् को दान कर दी, शस्त्र कला का ज्ञान अपने शिष्य द्रोणाचार्य को दे दिया। इसके पश्चात् चिरंजीवी श्री परशुराम जी महेन्द्र पर्वत पर जाकर ध्यान में लीन हो गये। कहा जाता है कि केवल भगवान परशुराम ही विष्णु जी के मात्र ऐसे अवतार है जो वर्तमान में भी अस्तित्व में है जो इनके अंतिम अवतार कल्कि को शस्त्र विद्या में निपुण बनायेंगे। भगवान परशुराम का वर्णन रामायण से लेकर महाभारत दोनों महान ग्रंथों में मिला है।
जन्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय श्री परशुराम जी को कई पीढ़ियों से आदर्श माना जाता रहा है और आज भी इनको शौर्य व पराक्रम का सर्वश्रेष्ठ प्रतीक माना जाता है। भगवान परशुराम एक ऐसे शूरवीर है जिन्होंने पृथ्वी पर धर्म, संस्कृति, न्याय, सदाचार व सत्य की रक्षा के लिये अवतार लिया है जो पितृ भक्ति के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।
निधि श्रीमाली
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