तुम सयाने तो हो गये ही, पर बुद्धि के काले लबादे ने तुम्हारे व्यक्तित्व को बांध कर कसमसा दिया है ।
तुम्हारा मेरा परिचय कई-कई जन्मों का तो है, पर तुम भीरू हो, डरपोक हो, हिचकिचा रहे हो ।
तुम कब तक दरवाजे पर खड़े रहोगे, कब तक बाहर ठिठके रहोगे, कब तक दरवाजे की सांकल को ही खटखटाते रहोगे, कब तक संदेह-असंदेह की देहरी पर डोलते रहोगे ।
गुरु हृदय के अन्दर प्रवेश क्यों नहीं कर लेते, दरवाजा तो पूरा खुला हुआ है, और जब गन्तव्य, जब लक्ष्य ही इस द्वार में प्रवेश कर अन्दर पहुंचना है तो फि़र हिचकिचाहट क्यों ?
युग बीत गये, सदियां बीत गई और तुम ठिठके खड़े हो, इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है। बढ़ो! द्वार खुद आगे बढ़ कर तुम्हें निमन्त्रण दे रहा है ।
तुम मुझे छोड़ भी नहीं सकते, क्योंकि कई-कई जन्मों के सम्बन्ध है, तुम मेरे बिना रह ही नहीं सकते, क्योंकि कई-कई सदियों के ये बन्धन है ।
मैं बिछड़ूंगा, और तुम्हारी आंख में अश्रुकण लुढ़केंगे ।
तुम मेरी आलोचना कर सकते हो, मुझसे दूर रहने का प्रयत्न कर सकते हों, पर मुझे एक क्षण भी भुला नहीं सकते ।
मैं भुलाने लायक व्यक्तित्व ही नहीं हूं, क्योंकि मैं तुम्हारे हृदय की गहराई तक पैठ गया हूं ।
इसलिये तुम अपने आप को पहिचानो, तुम्हारे और मेरे सम्बन्धों को पहिचानो, मुझसे ‘उऋण’ होने का एक मात्र यही उपाय है ।
तुम व्यर्थ की साधनाओं के मामलों में उलझे हो । तुम सिद्धियों के बियाबान जंगल में व्यर्थ ही भटक रहे हो ।
ये सब तो सहज संभव है, क्योंकि सारी विद्यायें, उप-विद्यायें तो गुरु के रोम-रोम में निहित हैं, सारी सिद्धियां उनके शरीर में स्थित है ‘सर्वे सिद्धियां गुरुर्देहं’ ।
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