शिष्य के जीवन में गुरु ही सर्वस्व होता है। इसलिये वह देवी देवताओं की साधना करने की अपेक्षा, गुरु साधना को ही सभी सफलताओं की कुंजी समझता है।
शिष्य अन्य साधना करता भी है तो इसी भाव से – हे गुरुदेव! आपके स्वरूप में सभी देवी देवताओं का वास है इसलिये इस देवी या देवता की पूजा द्वारा वास्तव में मैं आपके स्वरूप का चिंतन कर रहा हूँ आप ही मुझे जीवन में और सभी साधनाओं में पूर्ण सफलता देने में सक्षम हैं।
शिष्य को एहसास होता है कि बिना सद्गुरु की इच्छा के कोई भी देवी-देवता उसे कुछ भी प्रदान करने में सक्षम नहीं हैं, चाहे वह कितना ही मंत्र जप क्यों न कर ले। इसलिये वह हर साधना के पूर्व और समापन पर गुरु पूजन एवं चिंतन अवश्य करता है।
शिष्य के मंत्र जप में, साधना में कोई त्रुटि, कोई कमी भी रह जाये तो भी सद्गुरुदेव उसे उस साधना में पूर्णता प्रदान करने में सर्वथा सक्षम होते हैं, इसलिये शिष्य गुरु पूजन को और गुरुमंत्र जप को हर साधना का अभिन्न अंग मानता है।
अगर शिष्य गुरु मंत्र जप कर लेता है तो उसे आधी सफलता तो स्वतः ही प्राप्त हो जाती है फिर तो उसे मात्र साधना क्रम को पूरा करना होता है, क्योंकि फिर सद्गुरु की शक्ति स्वयं उसे साधना में सफलता की ओर अग्रसर करती रहती है।
शिष्य को ज्ञात होता है कि गुरु द्वारा प्रदत्त दीक्षा वह कुंजी है जिसके माध्यम से बड़ी से बड़ी साधना को सहज सिद्ध किया जा सकता है और बड़े से बड़े कार्य को पूर्ण किया जा सकता है। दीक्षा प्राप्ति का अर्थ है नब्बे प्रतिशत सफलता का स्वतः प्राप्त होना। इसलिये शिष्य प्रयत्न करके अवश्य किसी भी महत्वपूर्ण कार्य या साधना से पूर्व दीक्षा प्राप्त कर लेता है।
शिष्य द्वारा साधना में सफलता प्राप्त करना ही सद्गुरु के लिये सबसे बड़ी दक्षिणा है। अतः शिष्य पूर्ण मनोयोग से साधना में तत्पर होता हुआ सिद्धियां प्राप्त करता है तथा गुरु के ज्ञान को जीवित एवं सुरक्षित रखता है।
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