श्री विद्या विशिष्ट रूप से त्रिपुर सुन्दरी की ही साधना है, यह विद्या ही षोड़शी त्रिपुरी एवं ललिताम्बा है। ये ही पराशक्ति है, ये ही विश्व मोहिनी योगमाया है, ये ही श्री महाविद्या है और इनसे ही सारे जगत का आविर्भाव होता है। इन्हीं की शक्ति से संसार के समस्त शोकों, कष्टों, दुःखों और अभावों का नाश होता है।
सद्गुरुदेव नारायण ने इस तथ्य को स्पष्ट करते हुये कहा है कि- श्री विद्या साधना जहां एक ओर विशद गूढ़ार्थ है, वहीं इसके सामान्य जीवन में भी ऐसे प्रयोग हैं, साधनायें हैं, जिनके द्वारा साधक भोग व योग दोनों ही प्राप्त कर सकता है जिस प्रकार से इस विद्या का आध्यात्मिक अर्थ गूढ़ रखा गया, उसी प्रकार इसके भौतिक जीवन से सम्बन्धित प्रयोग भी गोपनीय रखे गये। बौद्ध मठों का धन-वैभव और साधना जगत में उनकी विलक्षण प्रगति का रहस्य भी यही श्री विद्या साधना है, जिसके द्वारा उन्हें कभी किसी के समक्ष याचक बनने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी।
इस साधना से सम्बन्धित श्रीचक्र के नौ आवरणों में ही रहस्य निहित है। श्री विद्या अर्थात् षोड़शी के नौ आवरण ललिता, त्रिपुर सुन्दरी, त्रिपुर वासिनी, त्रिपुरमालिनी, त्रिपुराम्बा, त्रिपुरासिद्धा, त्रिपुराक्षी, त्रिपुरभेदनी एवं त्रिपुरेशी है। ये शक्तियां मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन से पूर्ण तादात्मय रखती हैं। जब साधक इन्हीं नौ स्वरूपों का तादात्मय अपनी देह से कर लेता है, या ऐसा कहें कि विविध शक्ति स्वरूपों को समाहित करने पर ही उसे जीवन की पूर्णता मिलती है।
इन नौ स्वरूपों में ही जीवन की समस्त कामनाओं की पूर्ति का मंत्र भी निहित है। यदि विचार पूर्वक देखा जाये तो मानव जीवन में भी नौ स्थितियां ही महत्वपूर्ण हैं। सर्व प्रथम तनावमुक्त जीवन, प्रत्येक मनोकामना की पूर्ति, जीवन के रोग-शोक का शमन, शत्रु बाधा से मुक्ति, राज्य पक्ष से अनुकूलता, जीवन में पूर्ण भाग्योदय, प्रत्येक अनिष्ट का समापन, पूर्ण गृहस्थ सुख एवं प्रभावशाली व्यक्तित्व भौतिक रूप से मानव जीवन की ये प्रमुख आवश्यकतायें हैं।
जीवन के विकार- विकृत इच्छायें, छल, झूठ, कपट, विश्वासघात, घृणा, क्रोध, दुर्बुद्धि, दुर्व्यसन, मांस- मदिरा सेवन, कुसंस्कार, दरिद्रता और गरीबी है। आद्या शक्ति ललिताम्बा इन्हीं विषमताओं को समाप्त कर साधक को लालित्यता, कोमलता, सौम्यता, माधुर्यता, स्निग्धता, स्नेह, करूणा, प्रेम, आनन्द, सौन्दर्य, सात्विक काम शक्ति, ओज, तेज, आकर्षण, सम्मोहन, धन, सुख-सौभाग्य-समृद्धि प्रदान करती हैं अर्थात् सभी आनन्दमय स्थितियों से युक्त कर देती हैं। जिससे साधक सभी सुखों को भोगता हुआ पूर्णता प्राप्त करने में सफल हो पाता है।
इसके साथ ही सांसारिक जीवन की अनेक बाधायें, ग्रहों का दोष, दरिद्रता, मुकदमा, विवाह में रूकावट, रोजगार, कारोबार में बाधा इत्यादि स्थितियां जीवन को कष्टपूर्ण बना देती हैं। निश्चित रूप से इस साधना के द्वारा जीवन की इन प्रतिकूल स्थितियो को पूर्णता से अनुकूलता में परिवर्तित करती है।
1- कितनी भी दरिद्रता और दुर्भाग्य हो, इस साधना को सम्पन्न करने पर उनका दुर्भाग्य समाप्त होता ही है और वह आर्थिक दृष्टि से उन्नति की ओर अग्रसर होने लगता है।
2- इस लक्ष्मी आबद्ध क्रिया से कई पीढि़यों के लिये मूलभूत पूर्ति लक्ष्मी का निवास घर में हो जाता है।
3- व्यापार वृद्धि के लिये यह अपने आप में श्रेष्ठतम साधना है, जिससे व्यापार में आश्चर्यजनक उन्नति होती है।
4- रोग निवारण के लिये भी यह उपयुक्त विधान है, मंत्र सिद्ध साधक यदि एक गिलास पानी पर इस मंत्र को पढ़कर, फूंक देकर, यह पानी रोगी को पिला दें, तो आश्चर्यजनक रूप से उसको स्वास्थ्य लाभ होने लगता है। अथवा उस मंत्र चैतन्य जल को घर में छिड़क दें, तो घर में नित्य होने वाले कलह, उपद्रव पूर्ण रूप से समाप्त हो जाते हैं और घर में अनुकूलता तथा आरोग्यता व सुख-सौभाग्य की वृद्धि होने लगती है।
5- यदि इस मंत्र के द्वारा झाड़ दिया जाये तो जिसको भूत-प्रेत बाधा हो और उसके सामने इस मंत्र का उच्चारण किया जाये तो भूत-प्रेत उपद्रव समाप्त हो जाते हैं और घर में अनुकूलता आती है।
6- शत्रु नाश के लिये यह अमोघ कवच है, जो साधक इस मंत्र से सिद्ध कवच अपनी बांह पर धारण करता है, उसका हर स्वरूप में शत्रुओं से रक्षा होती है।
7- इस साधना के द्वारा ग्रह पीड़ा, सभी प्रकार के विघ्न, घर में किये तांत्रिक प्रयोग आदि समाप्त हो जाते हैं, यदि दुकान पर किसी ने तांत्रिक प्रयोग अथवा व्यापार बंधन किया हो तो इस साधना से वह दोष समाप्त हो जाता है।
8- यदि किसी चित्र के सामने संकल्प लेकर इस मंत्र का जप सम्पन्न करें, तो चित्र वाला व्यक्ति या स्त्री तुरन्त वशीकरण युक्त हो जाता है, इसी प्रकार सम्मोहन, वशीकरण, विद्वेषण क्रिया भी सम्पन्न की जाती है।
सांध्य बेला में चन्द्र ग्रहण काल प्रारम्भ होने से पूर्व स्नान आदि से स्वच्छ होकर अपने पूजन कक्ष में बैठ जायें तथा लाल वस्त्र धारण कर पूर्व दिशा की ओर मुंह कर अपने सामने चौकी पर लाल वस्त्र बिछाकर उसके मध्य में एक ताम्र पात्र में ललिताम्बा यंत्र की स्थापना करें। सामने पांच चावलों की ढे़री बनाकर प्रत्येक पर एक गोल सुपारी रखें। इन ढ़ेरियों के दाहिनी और एक अन्य ताम्र पात्र में रसराज जीवट का स्थापन पुष्प की पंखुडि़यों पर करें। बायीं ओर तेल का दीपक तथा दाहिनी ओर घी का दीपक स्थापित करें।
एक गोल सुपारी में मौली बांधकर उसमें गणपति का ध्यान करते हुये संक्षिप्त गणपति पूजन करें।
यंत्र के समक्ष स्थापित पांचों ढेरियों का पूजन केवल श्वेत चन्दन व केसर की पंखुडि़यों से तिलक करते हुये करें।
गुरुदेव के चित्र के सामने नमन कर इस महत्वपूर्ण व दुर्लभ साधना में प्रवृत्त होने के लिये मानसिक आज्ञा व आशीर्वाद प्राप्त करें।
श्री विद्या की चेतना से युक्त ललिताम्बा यंत्र को दाहिनी हाथ से स्पर्श कर त्राटक करते हुये, यह प्रार्थना करें कि वह न केवल आपसे वरन् आपकी वंश परम्परा से भी जुड़े और समस्त परिवार जनों का कल्याण और आगामी पीढ़ी के लिये भी वरदायक हों। यंत्र व जीवट का पंचोपचार पूजन सम्पन्न करें। पूजन के बाद ललिताम्बा मंत्र का 5 माला मंत्र जप श्रीं शक्ति माला से करें।
मंत्र जप के पश्चात् दुर्गा व गुरु आरती करें। पुष्प व अक्षत लेकर क्षमा प्रार्थना कर प्रसाद ग्रहण करें। साधना समाप्ति के पश्चात् सभी सामग्री को लाल कपड़े में बांध कर किसी जलाशय अथवा नदी में विसर्जित कर दें।
दैहिक, दैविक, भौतिक संतापों की समाप्ति जीवन में आवश्यक है। साथ ही सांसारिक व्यक्ति अष्ट पाशों से मुक्ति हेतु विशेष दिव्यतम ग्रहण काल में शिष्य और गुरु युग्म स्वरूप में चैतन्य स्थान पर साधना सम्पन्न करते हैं, तो निश्चिन्त रूप से दुःखो व कष्टों से मुक्ति संभव हो पाती है। इसी हेतु माघी शुक्ल पूर्णिमा 31 जनवरी को पूर्ण चन्द्र ग्रहण व आद्या शक्ति ललिताम्बा जयन्ती दिवस पर चन्द्र ग्रहण तेजस्वी ललिताम्बा साधना, दीक्षा, हवन व अंकन की क्रियायें गुरुदेव कैलाश श्रीमाली जी के सानिध्य में कैलाश सिद्धाश्रम-जोधपुर में सम्पन्न होंगी। इस दिव्य दिवस पर आने वाले प्रत्येक गृहस्थी व साधक को अवश्य ही साधना व दीक्षा प्राप्त करनी ही चाहिये।
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