भारतीय संस्कृति, धर्म-दर्शन, साहित्य और कला के विविध क्षेत्रों में श्रीकृष्ण की लीला-चरित का व्यापक प्रभाव देखा जाता है। श्रीमद्भागवत तो समग्रतः एक लीला परक ग्रंथ ही है, जिसके मुख्य प्रतिपाद्य श्रीकृष्ण ही हैं। वल्लभ सम्प्रदाय में इस ग्रंथ को प्रस्थान चतुष्ठय मानने का आधार यही प्रतीत होता है, कि इस ग्रंथ में उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र तथा गीता के अभावों की पूर्ति होती है। शंकराचार्य, रामानुजाचार्य तथा महवाचार्य अपने सिद्धान्तों की व्याख्या के लिये प्रस्थानमयी को ही आधार मानते हैं, किन्तु वल्लभ सम्प्रदाय में श्रीमद्भागवत को प्रस्थानमयी के समकक्ष मानकर उसे चतुर्थ प्रस्थान की संज्ञा दी गई है।
वल्लभाचार्य कहते हैंः वेद(उपनिषद्), श्रीकृष्ण के वचन(गीता), व्यास के सूत्र (ब्रह्म सूत्र) और व्यास की समाधि भाषा (भागवत)। ये चार ही प्रमाण हैं। चारों प्रस्थानों में एकात्मकता होने से वे प्रामाणिक ज्ञान के स्त्रोत हैं।
यह शंका की जाती है, कि प्रतिपाद्य विषय की पूर्णता वेद एवं गीता में हो जाने से चारों प्रमाणों का आश्रय व्यर्थ है।
इसका उत्तर देते हुये वल्लभाचार्य कहते हैं, कि इन चारों प्रमाणों में प्रत्येक उत्तरवर्ती प्रमाण अपने पूर्ववर्ती प्रमाण में उत्पन्न होने वाले संदेह का निराकरण करने वाला है। जो इन चारों प्रमाणों के अविरोधी हैं, वे प्रमाण माने जा सकते हैं, किन्तु जो इन चारों प्रमाणों के विरोधी हैं, वे किसी भी दशा में प्रमाण नहीं माने जा सकते हैं। अतः वल्लभ सम्प्रदाय में यह माना जाता है, कि वेद से उत्पन्न शंकाओं का निराकरण ब्रह्म-सूत्र से और ब्रह्म सूत्र की शंकाओं का निराकरण श्रीकृष्ण के वचनों(गीता) से होता है, किन्तु इन सबसे उत्पन्न शंकाओं का निराकरण श्रीमद्भागवत से होता है।
महाभारत तथा गीता एवं भागवत में श्रीकृष्ण के स्वरूप का विकास उत्तरोत्तर लक्षित होता है। महाभारत को एक ऐतिहासिक ग्रंथ माना जाता है। इसके विविध आख्यानों में भगवतत्त्व का निरूपण हुआ है। यदि उन लोकोत्तर आख्यानों को अलग-अलग कर दिया जाये, तो श्रीकृष्ण का उसमें मानवीय रूप ही अधिक भास्वर रूप में हमारे सामने आता है, किन्तु उन आख्यानों में जिस भागवत धर्म और तत्त्व का निरूपण हुआ है, वह अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है। गीता उसी भागवत धर्म और तत्त्व को वैज्ञानिक रूप से समन्वित करके प्रस्तुत करती है। श्रीमद्भागवत में इन्हीं सबकी तात्त्विक व्याख्या की गई है। भागवत में वर्णित पृथु, प्रियव्रत, प्रहलाद आदि भक्तों की कथायें तथा निष्काम कर्म के वर्णनों से यह स्पष्ट हो जाता है, कि महाभारत का नारायणीय धर्म और श्रीमद्भागवत का धर्म आदिकाल में एक ही था, परन्तु परिवर्ती युग में दोनों ग्रंथों में भिन्न-भिन्न सिद्धान्तों की प्रधानता हो गई।
शुद्धाद्वैत सम्प्रदाय में प्रमेय की तीन कोटियां निश्चित की गई हैं- स्वरूप कोटि, कारण कोटि और कार्य कोटि (स्वरूप कोटि में प्रमेय श्रीकृष्ण हैं तथा उन्हें क्रिया-विशिष्ट, ज्ञान-विशिष्ट तथा ज्ञान-क्रिया-विशिष्ट भेद से त्रिविध माना गया है।) पूर्व मीमांसा में प्रतिपादित कर्मकाण्ड के द्वारा ‘क्रिया विशिष्ट श्रीकृष्ण’ का, उत्तर मीमांसा में प्रतिपादित ज्ञानकाण्ड के द्वारा ‘ज्ञान विशिष्ट श्रीकृष्ण’ का तथा गीता और भागवत में प्रतिपादित कर्म और ज्ञान के द्वारा ‘कर्म-ज्ञान विशिष्ट श्रीकृष्ण’ का निरूपण होता है।
महाभारत में श्रीकृष्ण का रूप लोक-रक्षक भी है और लोक-रञजक भी। फिर गीता में, जो महाभारत का ही अंश है, सिद्धान्तों की व्याख्या की गई है। गीता और महाभारत में निष्काम कर्मयुक्त प्रवृत्ति तत्त्व का विवेचन किया गया है, किन्तु उसमें भक्ति का समावेश भागवत में ही हो सका है। भागवत की रचना का उद्देश्य ही कर्म प्रवृत्ति में भक्ति का निष्पादन प्रतीत होता है। भागवतकार के अनुसार भक्ति के बिना निष्काम कर्म सम्भव ही नहीं है। अतः भागवत का उद्देश्य निष्काम भक्ति का प्रतिपादन ही माना जाता है।
गीता में श्रीकृष्ण को प्रकृति और पुरूष से परे एक सर्वव्यापक, अव्यक्त तथा अमृत-पद माना गया है और उन्हें परम पुरूष भी कहा गया है। श्रीकृष्ण के दो स्वरूप माने गये हैं- ‘व्यक्त’ और ‘अव्यक्त’। अव्यक्त के भी सगुण, सगुण-निर्गुण तथा निर्गुण तीन भेद किये गये हैं। श्रीकृष्ण उस परम पुरूष के मूर्तिमान अवतार हैं और इसी कारण से गीता में श्रीकृष्ण ने अपने विषय में पुरूषोत्तम का निर्देश स्थान-स्थान पर किया है, कि अव्यक्त की उपासना अधिक सहज है।
महाभारत के शांति-पर्व में इसी प्रकार भगवान श्री कृष्ण ने नारद जी को अपना विश्व-रूप दिखलाया है तथा भागवत के भी एकाधिक प्रसंगों में विराट्-पुरूष का वर्णन किया गया है। इससे यह प्रतिपादित किया जाता है, कि सिद्धान्ततः महाभारत, गीता और भागवत में परब्रह्म को एक ही रूप में दिया है तथापि महाभारत और उसके अंश गीता में अन्तर यह है, कि महाभारत में श्रीकृष्ण का परमतत्त्व के रूप में तादात्मय इतने व्यापक रूप में नहीं मिलता, जितना गीता और भागवत में देखा जाता है।
यद्यपि महाभारत में भी श्रीकृष्ण को विशिष्ट अवतार माना गया है तथा पिण्ड और ब्रह्माण्ड सम्बन्धी ज्ञान के साथ आत्मविद्या के गूढ़ तत्त्वों को समझाया गया है। तथापि भागवत में इन सबका निरूपण विशेष रूप में करके भक्ति को सर्वोपरि महत्व दिया गया है। लीलापरक ग्रन्थ होने से भागवत में भगवान के प्रायः सभी अवतारों का वर्णन किया गया है, किन्तु श्रीकृष्ण को विशेष शक्तियों से युक्त साक्षात् पूर्ण पुरूष माना गया है। अवतारों का प्रभेद पुरूषावतार, गुणावतार तथा लीलावतार के रूप में करते हुये वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युमन तथा अनिरूद्ध का व्यूह भी मान्य किया गया है। गुणावतारों में विष्णु, ब्रह्मा और रूद्र को भी मान्य किया गया है। इनके अतिरिक्त मन्वन्तरावतार भी स्वीकार किये गये हैं, जो सभी चौदह मन्वन्तरों में देख जाते हैं। भागवत का यह वैशिष्ट्य ही उसे अन्य पुराणाों तथा महाभारत से अलग करता है।
भागवत में श्रीकृष्ण को ऐसा अवतारी माना गया है, जो भक्तों के वश में होते हैं। माता देवकी श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुये कहती हैं- ‘हे आद्य पुरूष! आपके अंश का अंशांश यह प्रकृति है, उसी के सत्वादि गुण-भाग परमाणु द्वारा इस विश्व की सृष्टि, स्थिति और प्रलयादि हुआ करते हैं, मैं आपकी शरण हूं।’
गीता में भी ऐसे भाव मिलते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘मैं अपनी माया के एक अंश मात्र से इस जगत को व्याप्त करके स्थित हूँ। अथवा- ‘हे अर्जुन! इस विश्व में मुझसे परे कुछ भी नहीं है।’
इस तरह गीता तथा भागवत में श्रीकृष्ण को ज्ञान, भक्ति, बल, ऐश्वर्य, वीर्य और तेज- इन षड् गुणों से सदैव संयुक्त माना गया है।
भागवत में कुन्ती, श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुये कहती हैं- ‘हे भगवान! कई लोग कहते हैं, कि आपने पुण्य-श्लोक राजा यदु का यश बढ़ाने के लिये ही यदुवंश में जन्म लिया है… जो लोग प्रेम तथा भक्ति-भाव से आपकी अद्भुत लीलाओं को सुनते हैं, सुनाते हैं तथा स्वयं गाकर और स्मरण करके आनन्दित होते हैं, वे शीघ्र ही सांसारिक प्रवाह से मुक्त होकर आपके श्रीचरणों के दर्शन प्राप्त करते हैं।’
इस प्रकार की अन्य स्तुतियों में श्रीकृष्ण का परत्व ही सिद्ध किया गया है, जो भागवत का अपना वैशिष्ट्य ही कहा जायेगा। तुलनात्मक दृष्टि से महाभारत, गीता तथा भागवत में श्रीकृष्ण के तीन भिन्न रूप दिखलायी देते हैं। भगवान के ‘वीरत्व विधायक स्वरूप’ के दर्शन महाभारत में, ‘परब्रह्म स्वरूप’ के गीता में तथा ‘रसिकेश्वर स्वरूप’ के दर्शन भागवत में होते हैं। यद्यपि भागवत में श्रीकृष्ण के सभी स्वरूपों का परिदर्शन होता है, तथापित प्रधानता उनके रसिकेश्वर स्वरूप की दिखलायी देती है। गीता के ‘‘परित्राणाय साधूनाम’’ की उक्ति केवल अवतार-दर्शन के रूप में है, जबकि उनके व्यावहारिक और क्रियात्मक पक्ष का स्पष्टीकरण भागवत में ही प्राप्त होता है।
श्रीकृष्ण की लीलाओं को भागवत में सर्वत्र एक प्रकार की लोकोत्तर भूमिका प्रदान की गई है। महाभारत में यह बात दिखलायी नहीं देती। भागवत के घटना प्रधान स्थलों पर अत्यन्त विलक्षणता का आभास होता है। जैसे गोस्वामी तुलसीदास मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम के चरित्र का अनुगायन करते हुये ‘रामचरित मानस’ में अपने प्रधानसूत्र भक्ति का कहीं त्याग नहीं करते और उसी भावना से अभिभूत होकर सर्वत्र श्रीराम के चरित्र में अलौकिकता का समावेश करते चलते हैं, उसी प्रकार भागवत में व्यासदेव श्रीकृष्ण चरित का अनुगायन करते हुये भगवत तत्त्व का निरूपण करते हैं तथा भक्ति रस का भी संचार करते हैं तथा भगवान के दिव्य, मंगलमय स्वरूप को भी उद्घाटित करते चलते है। ऐसे स्थलों पर भागवतकार स्वयं भगवान के स्वरूप में इतने तल्लीन हो जाते हैं, कि अन्य समस्त भाव तिरोभूत से हो जाते हैं तथा हृदयानुभूति रागात्मिका वृत्ति के साथ स्तुतियों एवं स्तोत्रों के रूप में कृष्ण का परब्रह्मतत्त्व प्रवाहित होता है।
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