अगर वह शिष्य है तो फिर उसके हृदय में गुरू ही स्थापित होंगे, चौबीस घंटे, उसके मानस में गुरू शब्द ही होगा, मुंह से कुछ निकलेगा तो केवल गुरू ही निकलेगा और उसका जो भी खाली समय होगा, चाहे एक घंटा हो या दो घंटे हों, वह गुरू के प्रति ही समर्पित होंगे।
शिष्य वह है जो कि गुरू की जो इच्छा है उसमें वह सहायक बने। गुरू के कार्य के प्रति उसके जीवन का प्रत्येक क्षण समर्पित हो। जिस कार्य को करने से गुरू को प्रसन्नता होगी वह कार्य शिष्य करे। उसके मन में तड़प होनी चाहिये कि मैं आगे बढ़कर गुरू सेवा का कार्य मांगू।
शिष्य वह है जो कि छाया की तरह गुरू के साथ रहे जैसे छाया, आदमी से अलग नहीं हो सकती, आप दो कदम चलेंगे तो छाया भी साथ चलेगी। शिष्य भी ऐसा ही हो और जब भी गुरू आवाज दे वह सामने खड़ा हो। उसके अंदर हर समय गुरू के पास रहने की तड़प हो। गुरू की रक्षा के लिये, गुरू की सेवा के लिये, गुरू के दर्द को बांटने के लिये वह हर समय तत्पर हो, तैयार हो।
शिष्य पूर्ण निष्ठा और विश्वास केवल और केवल अपने गुरू में रखे और उनके लिये अपना सब कुछ न्यौछावर भी कर दे। सब कुछ न्यौछावर करने का अर्थ यह नहीं कि आप अपना मकान गुरू के नाम लिख दे। इसका तो अर्थ यह है कि हर क्षण जीवन का गुरू सेवा में समर्पित कर दे।
अगर वह शिष्य है तो पूर्ण रूप से गुरू में समाहित हो जाये। फिर वह गुरू से अलग अपने आपको अनुभव ही न करे। हर क्षण उसे यही लगे कि वह गुरू से एकाकार हो गया है। गुरू और शिष्य में एक इंच का गैप भी दूरी बना देता है, फिर वह शिष्य नहीं कहलाया जा सकता। शिष्य का अर्थ यही है, जो पूर्ण रूप से गुरू में समा गया हो।
जो प्रेम की उच्चतम पराकाष्ठा को दर्शाता है वह गुरू शिष्य का संबंध है। शिष्य किसी स्वार्थ वश गुरू से नहीं जुड़ता। गुरू के प्रति उसकी भावना में कही कोई स्वार्थ का तत्व नहीं होता। अगर होता है तो केवल निश्छल प्रेम तत्व, समर्पण तत्व जैसा कि राधा का कृष्ण के प्रति था, मीरा का कृष्ण के प्रति था।
शिष्य सभी कुछ तो गुरू से प्राप्त करता है- भौतिक स्तर पर भी तथा आध्यात्मिक स्तर पर भी। परन्तु उसके मन में किसी प्रकार की कोई आकांक्षा नहीं होती- न तो भौतिकी सफलता की, न ही सिद्धी या साधनाओं की।
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