जिसके जाग्रत होने पर ही क्रिया शक्ति महाकाली और इच्छा शक्ति महालक्ष्मी जाग्रत होती है। ज्ञान से बुद्धि आती है, बुद्धि से विद्या, विद्या से धैर्य, धैर्य से पराकाष्ठा और पराक्रम से साहस आता है और इन सभी से भाग्य जाग्रत होता है। भाग्य जागरण से जीवन में क्रिया और लक्ष्मी का आगमन होता है। मनुष्य का पुरूषार्थ सफल होता है।
त्रि-शक्ति का तात्पर्य है- ज्ञान-शक्ति, क्रिया-शक्ति और इच्छा-शक्ति इन तीनों का समन्वित स्वरूप ही शक्ति- स्वरूप कहा गया है। मूल रूप से ज्ञान-शक्ति सरस्वती के माध्यम से प्रकट होती है, क्रिया -शक्ति महाकाली के रूप में स्पष्ट होती है और इच्छा-शक्ति भगवती महालक्ष्मी के रूप में स्पष्ट होती है। विस्तृत विवेचन से पहले यह जान लेना चाहिये कि जगत का आधार ज्ञान है, क्रिया है और अथवा धन है? वास्तव में तीनों के समन्वित रूप से ही संसार -चक्र चल रहा है। जहां एक पक्ष भी कमजोर होता है तो दूसरा पक्ष पूर्ण रूप से सफलता नहीं दे सकता है। अतः जीवन में आवश्यक है कि हम ज्ञान, क्रिया एवं इच्छा तीनों को समन्वित करें।
जीवन का आधार ही ‘ज्ञान’ है क्योंकि ज्ञान के बिना क्रिया है इच्छा फलीभूत हो ही नहीं सकती है।
उद्यम, साहस, धैर्य, विद्या, बुद्धि और पराक्रम, ये छः तत्व जहां होते है वहां भाग्य भी सहायता करता है। अर्थात् इन गुणों से मनुष्य अपने भाग्य को भी बदल सकता है और उसके कार्य को सफल बनाने के लिये साहस के अलावा अन्य गुणों की भी आवश्यकता होती है। निरे जोश में आकर या हेकड़ी जताने के लिये किया गया कार्य साहस नहीं अपितु दुस्साहस व मूखपूर्ण होता है।
ज्ञान व्यक्ति को धैर्य प्रदान करता है, उसे चतुरता प्रदान करता है और इसके साथ ही उसके सोचने समझने के साथ क्रिया की शक्ति में भी विस्तार करता है। जब ज्ञान और विद्या से युक्त शक्ति क्रिया और इच्छा करते है तो यह कार्य अवश्य ही परिपूर्ण होता है।
भर्तृहरि कहते है-
जिनके पास विद्या रूपी धन है उसको चोर भी नहीं देख सकते और विद्या निरन्तर कल्याण की वृद्धि करती रहती है। गुरू द्वारा शिष्यों को सर्वदा विद्या देते रहने से भी यह धन बढ़ता ही रहता है, जिसका महाप्रलय में भी कभी नाश नहीं होता। विद्यायुक्त बुद्धिमान व्यक्ति से कोई भी स्पर्धा नहीं कर सकता है।
मनुष्य का शरीर नश्वर है, मरने के बाद नष्ट हो जाता है। फिर उसकी कोई स्मृति नहीं रहती है। आगे की पीढ़ियां उसका नाम तक भूल जाती है, शरीर नष्ट होने पर उसका यश रूपी शरीर सबके सामने रहता है। कहा हैः कीर्तिर्यस्य स जीवितः’ अर्थात् जिसकी कीर्ति है वह सदा जीवित रहता है, मर कर भी नहीं मरता है। उसके नाम को काल भी नहीं खाता।
उपरोक्त् विवेचन देने का सार यही है कि साधक अपने जीवन में ज्ञान रूपी सिद्धि प्राप्त करे, बुद्धि रूपी सिद्धि प्राप्त करें, उद्यम रूपी सिद्धि प्राप्त हो, साहस का संचार हो, धैर्य का विकास हो और पराक्रम का कभी ह्रास नहीं हो। यही ज्ञान तो शक्ति तत्व का आधार भूत ज्ञान है।
ज्ञान की आधार-शक्ति मां सरस्वती ही हैं जो जगत को प्रकाश देने वाली, अज्ञान का नाश करने वाली, मनुष्य में कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत करने वाली मनुष्य को पशु से श्रेष्ठ मनुष्य में परिवर्तित कर देने वाली, मूर्ख को बुद्धिमान बनाने वाली आधार-शक्ति है। जिनके ध्यान में नारद ऋषि ने कहा है-
अर्थात् देवी सरस्वती आप देह-कान्ति मुक्ता की चमक के समान उज्ज्वल है, ज्योत्स्ना जैसा प्रकाश उससे निकल रहा है, वे मोतियों के हार से विभूषित है, शुभ्र-वर्णा है और अर्ध-चन्द्र से शोभायमान है। वागीश्वरी देवी चतुर्भुजा है। दाएं हाथें में से एक में व्याख्या मुद्रा और दूसरें में वर्ण-माला है। बाएं हाथों में एक में अमृत-पूर्ण कुम्भ है और दूसरे में पुस्तक है।
इस बार दिनांक 14 फरवरी को सरस्वती जयन्ती है, बंसत पंचमी है, यह एक महाकल्प है। इस शुभ अवसर पर सरस्वती की साधना कर हम अपने जीवन को एक श्रेष्ठ आधार प्रदान कर सकते है। पत्रिका में कई बार सरस्वती साधना के बारे में लिखा गया, लेकिन मुझे यह लिखते हुये खेद है कि लोगों की रूचि सरस्वती साधना में कम और लक्ष्मी साधना में ज्यादा रहती है, जबकि वास्तव में होना चाहिये यह कि वे अपने पूरे परिवार के साथ सरस्वती साधना सम्पन्न करें, जिससे परिवार में श्रेष्ठता, साहस, धैर्य एवं सत्त जिज्ञासा आये और बालको में भी सरस्वती-ज्ञान प्रदान करने से उनके जीवन का आधार श्रेष्ठ बनता है और ये बड़े होकर अपने-अपने कार्य क्षेत्रों में पूर्ण सफल होते है।
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