शिष्य के जीवन का लक्ष्य, ध्येय और कार्य बस इतना होना चाहिए कि वह प्रेम के हिमालय के सर्वोच्च शिखर को स्पर्श करें, अपने सद्गुरू से ऐसा प्रेम करें जैसा आज तक किसी ने न किया हो और भविष्य में कोई कर भी न सके।
शिष्य अपने हृदय की वीणा गुरू के हाथों में सौंप दे जिससे कि वें उसमें से अनहद नाद को झंकृत कर सकें।
शिष्य को निरंतर अपने को खाली करते रहना चाहिए जिससे कि गुरू का ज्ञान उसके भीतर समाहित हो सके।
शिष्य को हमेशा यह ध्यान रखना चाहिए कि सब कुछ क्षणभंगुर है, सब कुछ नाशवान है, केवल प्रेम ही शाश्वत है, जो मरता नहीं, जो जलता नहीं, जो समाप्त नहीं होता।
शिष्य को यदि अपना हृदय कमल विकसित करना है, साधना सम्पन्न कर सिद्धियों को हस्तगत करना है तो उसे प्रेम करने की कला सीखनी पडे़गी।
शिष्य अपने गुरू से शरीरगत नहीं, आत्मगत प्रेम करें क्योंकि आत्मगत प्रेम ही पूर्णता, सर्वोच्चता, श्रेष्ठता दे सकता है।
शिष्य को प्रेम करने की कला मछली से सीखना चाहिए, वह समुद्र से प्रेम करती है, पर एक क्षण के लिए उसे पानी से हटाकर तो देखिये, फ़ड़फ़ड़ा कर समाप्त हो जायेगी, प्राण त्याग देगी, प्रेमी से बिछुड़ कर।
शिष्य को चाहिए कि वह गुरू की परीक्षा में दृढ़ता पूर्वक खरा उतरे, असफ़ल न हो, घबरा न जाये।
शिष्य को यह याद रखना चाहिए कि जहां-जहां गुरू के चरण पड़ेंगे, वहां-वहां एक नया मन्दिर बन जायगा, एक नये काबे का निर्माण हो जायेगा।
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