तुम्हारे अधरों पर विधाता ने गुरु नाम का अंकन किया, पर तुमने छल, झूठ और वासना के कई नाम एकत्रित कर अपने स्वरूप को दूषित कर लिया है।
जिस दिन तुम्हारे हृदय से गुरु की पुकार उठेगी, उसी दिन तुम मुझसे एकाकार होकर पूर्णत्व प्राप्त कर लोगे।
तुम नदी से सीखों कि किस तरह नीरस जीवन को उमंग, उत्साह, जोश में परिवर्तित किया जा सकता है, और यह परिवर्तन ही तुम्हें जीवन जीने का सलीका बता देगा।
तुम हाड़-मांस से निर्मित कोई वस्तु, शरीर नहीं हों। तुम एक चैतन्य, ईश्वर के साक्षी स्वरूप हो।
किसी न किसी जीवन में, कभी ना कभी मैने तुमसे वायदा किया होगा, कि मैं तुम्हें अमृतत्व का पान कराऊंगा, सिद्धाश्रम की चैतन्य पावन भूमि पर तुम्हें ले जाऊंगा, इसीलिये मैं आज तुम्हारे बीच हूं।
तुम मेंरे मानस के राज हंस हो, तुम मेरे प्राण हो, उठो, जागो अपने पंखों को गति दो और सम्पूर्ण गगन को स्वयं में समाहित कर लो।
तुम मेरे प्राणों से प्रज्ज्वलित दीप हो, जिसकी लौ से तुम्हें पूरे विश्व के अंधेरे को समाप्त करना है।
सूर्य की तेजस्विता तुम्हें प्रदान की है, तुम्हारे आंसूओ को मैंने अपने नेत्र सौंपे है, तुम्हारे मृत, बेजान पड़े जीवन में अपनी तपस्या का तिल-तिल जलाकर प्रकाश बिखेरा है।
मेरे द्वारा प्रज्ज्वलित दीप को जलाये रखना तुम्हारा कर्तव्य है, इसकी लौ को तुम्हें अपनी दोनों हथेलियों से छिपाकर भयानक तफ़ूानों से बचाना है।
जो निजी स्वार्थो में लिप्त होता है, वह निस्वार्थ भाव से गुरु की सेवा नहीं कर पाता। और बिना निस्वार्थ सेवा के परमार्थ की प्राप्ति संभव नहीं है।
जैसे दूध का आश्रय लेने वाला पानी भी दूध हो जाता है, उसी तरह देवताओं की आराधना करने वाला भी देवतुल्य होकर सर्वजन पूज्य हो जाता है।
परमात्मा उसी की सहायता करता है, जो स्वयं के लिये निरंतर संघर्षशील रहता है।
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