किसी भी दिन, किसी भी तिथि, वार या नक्षत्र का स्वयं में इतना महत्व नहीं है जितना महत्वपूर्ण है किसी तिथि या वार में कोई श्रेष्ठमय क्रिया या किसी विशिष्ट व्यक्तित्व के अवतरण को लेकर इस भू-भाग को धन्य किया हो, वे महान पुरूषों जिन के कर्म कार्यों से प्राणियों का कल्याण हुआ हो। उस तिथि, दिन या वार को इतिहास में पर्व के रूप में मनाया जाता है।
भगवान श्री कृष्ण का जन्म दिवस भादप्रद मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी जो भयानक काली रात्री भी पूर्णमासी की तरह चेतनामय, उल्लासमयी और एक उत्सवमयी रात्री बन गयी जो अष्ट पाशों से मुक्त करने वाली बन गयी। और भारतीय संस्कृति में गुरु जन्मोत्सव को पर्व के रूप में, उत्सव के रूप में, मनाने का प्रचलन है क्योंकि गुरु तो करूणावश इस धरा पर शिष्यों, भक्तों व प्राणि मात्र के कल्याण हेतु ही मानव रूप धारण करते है।
ऐसा ही चैतन्य दिवस 18 जनवरी को एक दिव्य चेतना (सद्गुरुदेव कैलाश चन्द्र श्रीमाली) ने इस धरा को स्पर्श किया जो करूणा वश सामान्य व्यक्ति के रूप में शिष्यों के बीच उन्हें आत्म कल्याण के मार्ग पर गतिशील कर रहें है। और गुरु तो ब्रह्मा के समान शिष्य का नवीन रूप में सृजन करते हैं। उसे एक नवीन चिन्तन देते है तथा जीवन की कठिनाईयों से मुक्त करते हैं।
विष्णु रूप में उसका पालन करते हैं तथा उसकी इच्छाओं, मनोकामनाओं की पूर्ति करते है। क्योंकि वे जानते है कि जब तक शिष्य की इच्छायें पूर्ण नहीं होंगी तब तक वह अध्यात्म की ओर अग्रसर नहीं हो सकता।
तथा अंत में शिव की भांति शिष्यों को मृत्यु देते है- उसके कुसंस्कारों की मृत्यु, उसके झूठे अहंकार की मृत्यु, उसकी दरिद्रता की मृत्यु आदि आदि। क्योंकि जब ये समाप्त होंगे तो ही कुछ नवीन सृजन होगा।
जो व्यक्ति सद्गुरु के मार्गदर्शन में रहकर गतिशील होते हैं, वह अवश्य ही आत्म कल्याण की ओर अग्रसर हो जाते हैं। कलिकाल उनका कुछ भी अहित नहीं कर पाता, जो शिष्य इस गुरु अवतरण दिवस पर गुरु चरणों में पहुंच जाता है वह सहजता से ही समस्त पर्वों पर की गयी साधनाओं का फल और पुण्य स्वतः ही प्राप्त कर लेता है।
गुरुदेव हमेशा ही अपने शिष्यों का आवाहन करते हैं और इस दिवस पर विशेष रूप से अपने आत्मजों की राह देखते हैं क्योंकि यह दिवस स्वयमेव पारलौकिक दिव्यता से युक्त होता है और जो शिष्य इस दिन गुरु के चरणों में पहुंचने में सफल हो जाता है, उस पर स्वतः ही अनन्त-अनन्त आशीर्वादों की वर्षा हो जाती है। हम सभी के लिये यह सर्व श्रेष्ठ दिवस है। जब गुरुदेव पूर्ण रूप से आनन्दातिरेक में होते हैं। जिस दिन वह औघड़धानी शिव के समान सब कुछ लुटा देने के लिये व्यग्र होते है और जिस दिन कोई भी शिष्य उनके पास से निराश नहीं लौटता।
इस दिन गुरु भी शिष्य को गुप्त दीक्षायें देने के लिये भी आतुर होते है। जिने शास्त्रों में ‘गोपनीयं गोपनीयं गोपनीयं प्रयलतः’ कहा गया है उन्हें बडी आसानी से शिष्यों को प्रदान कर देते हैं।
गुरुदेव तो आप सब को अपने अंक में समेटने के लिये अपनी बांहे फैलाये खड़े है, ताकि आपकी परेशानियों, चिन्ताओं एवं न्यूनताओं को लेकर बदले में आपको प्रसन्नता, सम्पन्नता, संप्रभुता, आनन्द एवं ब्रह्मत्व प्रदान कर सकें। लेकिन उस नदी की भांति जो कि वेग युक्त बहती हुयी सागर की अनन्तता में लीन हो जाती है। पहला कदम आपको ही तो उठाना है। गुरू से मिलन के लिये, गुरु में समा जाने के लिये।
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