आशा और विश्वास के साथ लगातार प्रयास करते रहो, हो सकता है सफ़लता बस एकदम दूर हो।
शत्रु के अच्छे गुण ग्रहण कर लो और गुरु के दुर्गण छोड़ दो।
सहनशीलता प्रत्येक शिष्य का गुण होना चाहिये, मजबूरी नहीं। अपनी सहनशक्ति को इतना मजबूत करों कि आस-पास के वातावरण का निरीक्षण करने में सक्षम हो सको।
साधनाओ में बार-बार असफल होने के बावजूद भी निरन्तर पिछली गलतियों में सुधार कर प्रयत्न करते रहना चाहिये, एक दिन ऐसा आयेगा जब आप बिना किसी गलती के अपनी साधना सफल कर ले जायेंगे।
शिष्य को अपना नजरिया बदलना चाहिये, लोग बोलते हैं कि कमल कीचड़ में ही खिलता है, यह सही है, पर शिष्य को यह सोचना होगा कि कमल कीचड़ के ऊपर होता है और कीचड़ में लिप्त नहीं होता, वह कीचड़ में नहीं गिरना चाहता और वह बाहर आकर समर्पित होना चाहता।
कोयल को देखकर सोचो कि जब कोयल आपके घर के छत पर बैठती है और आप उसे पत्थर मार कर भगा देते हैं, तो क्या कोयल कड़वा बोलने या गुनगुनाने लगती है, नही ना! फि़र आप थोड़ा सा कष्टसहकर इतने अधम कैसे बन जाते है ?
साधानाओं के आकाश में उड़ने से पहले अपने संकल्प रूपी पंख को मजबूत करो।
लोग अपने शुभचिंतक, अपने गुरु को बुरा सिर्फ इसलिये समझते हैं, क्योंकि उनके पास उनके जैसी दूर की सोच नहीं होती। आप जरा स्वयं सोचे जो आज तक आपको बेहतर बनाना चाहता था, वह अचानक बुरा कैसे होगा?
आपके अलावा आपको कोई सुधार नहीं सकता, जब तक आपके अन्दर स्वयं सीखने की जिज्ञासा नहीं होगी, आपको कोई भी नहीं सिखा सकता है, सीखता वही है जिसके भीतर जिज्ञासा हो।
गुरु भक्ति और आज्ञा से प्रेम पाकर जिस दिन आप ईर्ष्या, नफरत, अपराध, बोध, घृणा ओर द्वेष से मुक्त हो जायेंगे, उसी दिन आप एकलव्य बन सकेंगे।
एकलव्य अर्थात् अनेक विषयों से निकलकर मन एक तरफ हो जाये, मन में यदि एक से ज्यादा विषय हैं, तो विचारों का मेला, झमेला होता है। जैसे कलाई में नौं चूडि़यां होती हैं तो ज्यादा आवाज करती हैं मगर जब एक ही चूड़ी होती है तब कोई आवाज ही नहीं होती है और टूटने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता है।
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