एक समय देवर्षि नारदजी ने जगत् पिता ब्रह्मा जी से कहा महाराज! आप मुझसे फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी विधान कहिये। ब्रह्मा जी कहने लगे कि हे नारद! विजया एकादशी का व्रत पुराने तथा नये पापों को नाश करने वाला है। इस विजया एकादशी की विधि मैंने आज तक किसी से भी नहीं कही। यह समस्त मनुष्यों को विजय प्रदान करती है। त्रेता युग में मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र जी को जब चौदह वर्ष का वनवास हो गया, तब वे श्री लक्ष्मण तथा सीताजी सहित पंचवटी में निवास करने लगे। वहाँ पर दुष्ट रावण ने जब सीताजी का हरण किया तब इस समाचार से श्री रामचंद्र जी तथा लक्ष्मण अत्यंत व्याकुल हुये और सीताजी की खोज में चल दिये।
घूमते-घूमते जब वे मरणासन्न जटायु के पास पहुँचे तो जटायु उन्हें सीताजी का वृत्तांत सुनाकर स्वर्गलोक चला गया। कुछ आगे जाकर उनकी सुग्रीव से मित्रता हुई और बाली का वध किया। हनुमान जी ने लंका में जाकर सीताजी का पता लगाया और उनसे श्री रामचंद्र जी और सुग्रीव की मित्रता का वर्णन किया। वहाँ से लौटकर हनुमानजी ने भगवान राम के पास आकर सब समाचार कहे।
श्री रामचंद्र जी ने वानर सेना सहित सुग्रीव की सम्पत्ति से लंका को प्रस्थान किया। जब श्री रामचंद्रजी समुद्र के किनारे पहुँचे तब उन्होंने मगरमच्छ आदि से युक्त उस अगाध समुद्र को देखकर लक्ष्मणजी से कहा कि इस समुद्र को हम किस प्रकार से पार करेंगे। श्री लक्ष्मण ने कहा हे पुराण पुरुषोत्तम, आप आदिपुरुष हैं, सब कुछ जानते हैं। यहाँ से आधा योजन दूर पर कुमारी द्वीप में वकदालभ्य नाम के मुनि रहते हैं। उन्होंने अनेक ब्रह्माण्ड देखे हैं, आप उनके पास जाकर इसका उपाय पूछिये। लक्ष्मणजी के इस प्रकार के वचन सुनकर श्री रामचंद्रजी वकदालभ्य ऋषि के पास गये और उनको प्रणाम करके बैठ गये।
मुनि ने भी उनको मनुष्य रूप धारण किये हुये पुराण पुरुषोत्तम समझकर उनसे पूछा कि हे राम! आपका आना कैसे हुआ? रामचंद्रजी कहने लगे कि हे ऋषि! मैं अपनी सेना सहित यहाँ आया हूँ और राक्षसों को जीतने के लिये लंका जा रहा हूँ। आप कृपा करके समुद्र पार करने का कोई उपाय बतलाइये। मैं इसी कारण आपके पास आया हूँ। वकदालभ्य ऋषि बोले कि हे राम! फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का उत्तम व्रत करने से निश्चय ही आपकी विजय होगी, साथ ही आप समुद्र भी अवश्य पार कर लेंगे। श्री रामचंद्र जी ने ऋषि के कथनानुसार इस व्रत को किया और इसके प्रभाव से दैत्यों पर विजय पाई।
इस विजया एकादशी पर्व के विशेष अवसर पर सद्गुरूदेव जी जगत् पालक भगवान श्री हरि साधना दे रहे हैं। यह साधना जीवन में नया अध्याय प्रारम्भ कर विजय की साधना है।
वेदों कों भारतीय संस्कृति का आधारभूत ग्रंथ माना गया है, इसमें ऋग्वेद में भगवान विष्णु के सम्बन्ध में पांच सूत्र आये है। भगवान विष्णु की देव रूप में व्याख्या करते हुये निम्न बातें कहीं गई है:-
इसी के साथ वेदों में भगवान विष्णु के सम्बन्ध में ही कहा गया हैः-
अर्थात जगत में भगवान विष्णु अपने सहस्त्र हाथों, सहस्त्र सिर के रूप में विराजमान है और अपने भक्तों पर कल्याण करने वाले है। उनको नमन है।
जो आदि है वही अनन्त हो सकता है और भगवान विष्णु आदि देव हैं तथा अनन्तदेव भी, जिन्हें समय काल की सीमा में बांधा नहीं जा सकता, जिनके स्वरूप को किसी एक रूप में स्थिर नहीं किया जा सकता, जिनके तेज से उत्पन्न सहस्त्रों देवी-देवताओं की नित्य-प्रति पूजा होती है, उस अनन्त देव विष्णु के तेज का एक अंश भी प्राप्त हो जाये, तो फिर जीव में कोई न्यूनता रह जाये – यह असंभव है, श्री विष्णु आकाश तत्व के अधिष्ठाता हैं, आकाश का तात्पर्य है- विशालता, गहनता, महानता, ऊँचाई और ये सब मन की स्थितियां ही तो हैं, कौन अपने जीवन में आगे नहीं बढ़ना चाहता? कौन अपने जीवन में विजय की प्राप्ति नहीं करना चाहता? कौन जीवन में अनन्त सिद्धियां प्राप्त नहीं करना चाहता? उसके लिये उस व्यक्ति में विष्णु तत्व तो प्रबल होना आवश्यक है। क्यों सभी नेतृत्व नहीं कर पाते? क्योंकि उनमें विष्णु तत्व नहीं है, उनमें तो केवल आँख मूंदकर एक निश्चित मार्ग पर चलने की भावना ही है, तो फिर जीवन घिसटता ही रहेगा।
विष्णु तो वह केन्द्रीय बिन्दु हैं, जहां से शक्तियों का, देवों का उद्भव हुआ, विष्णु के ही तो अवतारों का अवतरण हम सुनते, देखते हैं, चाहे वह राम हों, कृष्ण हों, नृसिंह हों अथवा वराह अवतार हो। तो आदि देव विष्णु को कैसे भूला जा सकता है?
विष्णु की साधना, अनन्त की साधना है, जो साधक के शरीर ही नहीं, मन के ऊपर के दोषों का भी निराकरण कर उसमें तेज, कर्मशीलता का उद्भव कर, उसकी शक्ति को जागृत कर, शक्ति का विकास कर, साधक को अनन्त की ओर अर्थात विशालता की ओर ऊपर ले जाती है। सूक्ष्म से विराट की ओर, धरती से आकाश की ओर उठने की साधना विष्णु साधना ही तो है। जिस एक स्वरूप की साधना करने से अनन्त साधनाओं का, अनन्त देवों के प्रभाव का फल, परम विजयी होने को मिलता हो वही विष्णु साधना है।
विष्णु का मूल नाम नारायण है, गायत्री इनका छन्द है, ऊँ बीज है, नमः शक्ति है, तथा इनका मूल अष्टाक्षर मंत्र -‘ऊँ नमो नारायणाय ’ ही है।
ये साधना विजया एकादशी को प्रारम्भ की जा सकती है, विष्णु मूल रूप से रजोगुण अर्थात् राज्य तत्व के देव हैं, इस कारण इनकी पूजा से व्यक्ति को राज्य लाभ, राज्य उन्नति, राज्य बाधा से निवृत्ति, प्रतिष्ठा एवं विजय विशेष रूप से प्राप्त होती है।
स्नान कर, शुद्ध वस्त्र धारण कर, अपने सामने एक बाजोट पर ‘विष्णु यंत्र’ और विजयश्री गुटिका स्थापित करें, सर्वप्रथम स्नान शुद्धि के पश्चात् दोनों हाथ जोड़ कर तुलसी पत्र ले कर, जल में डुबा कर, विष्णु के बारह स्वरूपों का ध्यान करते हुये सब दिशाओं में जल छिड़कें, विष्णु के ये बारह स्वरूप मंत्र हैं –
ऊँ अम् केशवाय धात्रे नमः।
ऊँ नम् आम् नारायणाय अर्यम्णे नमः।
ऊँ मोम् इम् माधवाय मित्राय नमः।
ऊँ मम् ईम् गोविन्दाय वरूणाय नमः।
ऊँ गम् उम् विष्णवे अंशवे नमः
ऊँ वम् ऊम् मधुसूदनाय भगाय नमः।
ऊँ तेम् एम् त्रिविक्रमाय विवस्वते नमः।
ऊँ वाम् ऐम् वामनाय इन्द्राय नमः।
ऊँ सुम् ओम श्री धराय पूष्णे नमः।
ऊँ देम् औम् हृषीके शाय पर्जन्याय नमः।
ऊँ वाम् अं पझनाभाय त्वष्टेª नमः।
ऊँ यम् अः दामोदराय विष्णवे नमः।
इसके पश्चात् विष्णु बीज मंत्र की एक माला का जप ‘आजानुलन्बिनी वैजन्ती माला’ से करें, पूजा स्थान में शुद्ध घी का दीपक तथा धूप अवश्य ही होनी चाहिये।
सम्पूर्ण पूजन के पश्चात् साधक दोनों हाथों में सुगंधित पुष्प को अंजलि में लेकर भगवान् को अर्पित करें, कि मैं आपको अभीष्ट सिद्धि तथा विजय प्राप्त हेतु अपनी सम्पूर्ण पूजा समर्पित करता हूँ।