भगवतपाद आद्य शंकराचार्य का सम्पूर्ण व्यक्तित्व विरोधाभासों से भरा ही प्रतीत होता है। एक क्षण में वे अद्वैत की महिमा को पूर्णता के साथ प्रकट करते है, तो अगले ही क्षण द्वैत में आसीन होकर भावप्रवणता की उच्चतम भावभूमि पर आसीन होकर किसी स्तुतिपरक रचना का सृजन करते हुये उपस्थित होते है। कहीं वे दर्शन की गंभीरता से अत्यन्त क्लिष्ट है, तो वही भगवती जगज्जनी के अत्यन्त लालित्यपूर्ण विवेचन से आपादमस्तक रससिक्त!
किन्तु इसमें आश्यर्च ही क्यों और कहां?
पूर्ण शिवत्व का आधार लिये ऐसे व्यक्तित्व तो सदैव विरोधाभासों की पराकाष्ठा पर आसीन रहते ही है।
यही तो सद्गुरू का लक्षण है। इसी कारणवश भगवतपाद को कदाचित देवाधिदेव के वर्णन में ही सर्वाधिक रूचि रही और उन्होंने उनकी स्तुति में अनेक मधुर, भाव-निपुण स्तुतियां एवं स्त्रोत सृजित किये।
वे अपने वर्णनों में भगवान शिव के शांत रूप का वर्णन करते है, उनके उग्र रूप को भी वर्णित करते है, उनके पूर्णत्व व ब्रह्मत्व को भी स्पष्ट करते है, किन्तु उन्हें यह प्रतीत होता ही रहता है, कि वे उनका (भगवान शिव का) पूर्ण वर्णन नहीं कर पा रहे और तब उनका वंदन ‘योगाय योगनमिताय नमः शिवाय’ के रूप में करने को एक प्रकार से बाध्य हो जाते है (विशेष विवरण के लिये देखिये श्रीमच्छंकराचार्य विरचित ‘शिवाष्टकम्’) क्योंकि वे भगवान शिव के जिस स्वरूप को अपने आत्मचक्षुओं से अपने ही हृदय पटल पर निरन्तर देख रहे थे, उसे शब्दों में बांधा भी कैसे जा सकते है? उसी अद्वितीय तत्त्व का वर्णन करने में तो ‘नेति-नेति’कह कर समस्त शास्त्र मौन हो गये।
भगवान शिव का पूर्ण स्वरूप तो वास्तव में ‘योगाय’ अर्थात् योगमय ही है, उसे तो केवल शिववत् बनकर ही ‘योगनमिताय’ अर्थात् केवल योग के माध्यम से ही प्रणाम करने योग्य भी है।
परम्पराओं में भगवान शिव को सर्वाधिक सरल देव माना गया है, जो अल्प पूजन से संतुष्ट हो जाते है, किन्तु इस परम्परा के मूल में जो गूढ़ार्थ निहित है, उसका स्पष्टीकरण भी आवश्यक है। अल्प पूजन से संतुष्ट होने का रहस्य वही है जिसे भगवतपाद ने अपने उपरोक्त पदों के माध्यम से वर्णित किया है। भगवान शिव का मूल पूजन तो नितांत आत्मगत अवस्था है, योग का प्रयास है। इस योग के लिये यह आवश्यक नहीं, कि साधक हठयोग का सहारा ले या अपने को तपा डाले वरन विनम्र होकर प्रयास करे, तो अनुभव कर सकेगा, कि वह जिन देवाधिदेव की साधना करने को आतुर है, वह तो पहले से ही उसके हृदय पटल पर विराजमान है ही।
इसी कारणवश भगवान शिव का बोध ज्ञान द्वारा संभव ही नहीं वरन् आत्मविवेचन द्वारा ही संभव होता है। आत्मविवेचन करने में किसी विश्वविद्यालय ज्ञान की आश्यकता नहीं होती और इसी कारणवश भगवान शिव प्रत्येक के सहज-सुलभ है, लोकदेव है।
भगवतपाद द्वारा वर्णित ‘योगाय’ स्वरूप का एक अन्य गूढार्थ भी है। इसका तात्पर्य केवल इतना ही नहीं है, कि साधक योग के माध्यम से उनको साक्षात करें वरन इसमें यह भी तथ्य निहित है कि प्रत्येक व्यक्ति मूलतः ‘शिव’ ही है, जब वह इसे समझने का प्रयास करता है अर्थात् स्वयं से ही, अपने आत्म से ही ‘योग’ करता है, बर्हिमुखी होने की अपेक्षा अन्तुर्मखी होने की क्रिया प्रारम्भ करता है, तो भावविभोर हो जाता है, कि वह तो स्वयं ही शिव है।
भगवतपाद ने इसी तथ्य का साक्षत अपने जीवन में कर ‘शिवोऽहं शंकरोऽहं’ अर्थात् ‘मैं ही शंकराचार्य हूँ, मैं ही शिव हूँ’ का घोष किया था। शिव वस्तुतः एक देव से भी अधिक एक भावभूति है, जीवन-चिंतन की पराकाष्ठा है। जिस प्रकार बुद्धत्व …….. भगवान बुद्ध ने यह स्पष्ट कहा था-मैं कोई पहला और अंतिम ‘बुद्ध’ नहीं हूँ वरन मेरे पहले भी ‘बुद्ध’ हुये है और मेरे पश्चात् भी बुद्ध होंगे।’
ठीक यही बात भगवान शिव के विषय में भी कहीं जा सकी है, क्योंकि जो साधक उनके आत्म को समझता हुआ तदनुरूप अपने आत्म को भी प्रस्फुटित करेगा, वही ‘शिव’ होगा। यही क्रिया दुष्कर है, किन्तु ‘शिव’ को प्राप्त करने का कोई अन्य मार्ग भी नहीं है।
कुण्डलिनी जागरण की अवस्था में पूर्णता तब मानी जाती है जब साधक ‘शिव’ का साक्षात् कर ले, इसका भावार्थ यही है, कि जब साधक भी योग की उच्चतम स्थिति प्राप्त करने के उपरान्त भी शांत चित्त, सरल, निस्पृह एवं उदार बन सके, तभी वह पूर्ण है अन्यथा उसकी उच्चता का कोई अर्थ ही नहीं।
जिसने भगवान शिव का इस प्रकार से ‘साक्षात्’ कर लिया, जिसने स्वयं को ‘शिवत्व’ में निमग्न कर दिया, फिर उसके लिये किसी अन्य पूजन की आवश्यकता ही कहां? फिर तो वह जो कुछ भी करे, वह ‘पूजा’ ही है। इसी कारणवश भगवान शिव की पूजा का कोई विशेष विधान है ही नहीं, पूर्ण शिवत्व प्राप्त करना ही उनकी वास्तविक एवं एकमात्र अभ्यर्थना जो है। यही ‘योगनमिताय’ का भी अर्थ है। उन्हें प्रणाम केवल दोनों हाथ जोड़कर अथवा साष्टांग रूप से करना ही पर्याप्त नहीं वरन स्वयं को अधिकाधिक योगमय बनाकर अर्थात् उनके तद्रूप बन कर ही किया जाता है।
कल्याण का प्रत्येक कार्य, करूणा का प्रत्येक चिन्तन, गुरू सेवा की हर एक युक्ति, गुरूवचनों का प्रत्येक श्रवण, निस्पृहता की प्रत्येक तृप्तिपूर्ण उच्छवास भगवान् शिव का वंदना ही है, उस ‘शिव’ का जो हृदय में विराजमान है।
योग केवल आँख मूदने से, नेति-धोति से ही नहीं आता वरन हृदय के आग्रह से होता है। साधक जितना अधिक कल्याण, परोपकार के चिंतन में लीन हो जाता है, उसका योग स्वतः ही इतना अधिक परिपक्व हो जाता है, कि वह ब्रह्मानन्द की अनुभूति करने लगता है।
संसार की जितनी त्याज्य वस्तुये है, वे ही भगवान शिव का अर्घ्य बनने की उपयुक्त सामग्री मानी गयी है। इसी प्रकार जो करने की भावना से युक्त हो, वही ‘शिव’ हो सकता है। सद्गुरू भी यही क्रिया करते है। इसी कारणवश उन्हें ‘प्रकट शिव’ ही माना जाता है। ‘शिव’ भक्ति के द्वारा बोधगम्य है ही नहीं वरन जो उन्हें विष की भेंट चढ़ाता है, उसी को आभासित होते है। यह विष उन्हें धतूरा और भांग के रूप में ही नहीं वरन अपने ही न्यून पक्षों का भेंट करना पड़ता है, वे उसी को प्राप्त कर प्रसन्न होते है, क्योंकि ऐसा ‘विष’ वही तो भेंट कर सकेगा जिसने आत्ममंथन किया है और अपनी न्यूनताओं से परिचित हुआ है, केवल परिचित ही नहीं वरन उन्हें स्वीकार कर उनसे मुक्त होने के लिये उद्यत भी हुआ है।
अपनी ही त्रुटियों को स्वीकार कर लेना-यह केवल शिवयोगी का लक्षण हो सकता है, आत्म मुग्धता में लीन रहने वाले भक्त कदापि नहीं। भक्त तो केवल इस बात से गद्गद् भर रहता है, कि वे संसार के कल्याणर्थ विष का पान करने वाले ‘नीलकंठ’ है, जबकि साधक और योगी उनकी इस क्रिया का रहस्य समझ कर आत्मक्ष जाग्रत कर लेते है।
इस विवेचना से साधकों को इस भ्रम में नहीं पड़ना चाहिये, कि भगवान शिव केवल भावगम्य ही है और उनकी साधना की कोई आवश्यकता ही नहीं। वस्तुतः साधना के द्वारा ही भाव की सृष्टि होती है तथा पुनः उस भावयुक्त साधना से ही योग के मार्ग में कुछ पग गतिशील होते है। साधना से भावजगत में एवं पुनः भावजगत से साधना में आकर इस प्रकार एक संतुलन बनाना पड़ता है, जिससे हमारा आत्मपक्ष पूर्णतयः प्रस्फुटित हो सके, जिस प्रकार भगवान शिव स्वयं समाधि की पराकाष्ठा पर आसीन होते हुये भी संसार के कल्याण हेतु प्रतिक्षण आतुर रहते हैं।
वे एक ही क्षण में आत्मलीन भी है और ठीक उसी क्षण में स्वयं को सम्पूर्ण जगत से जोड़ते हुये गतिशील भी है। इसी कारणवश वे योगीराज की उपमा से विभूषित है, क्योंकि वे जो कुछ भी कर रहे है, उसमें हित ही निहित है। वे एक ही क्षण में समस्त राग-द्वेष से मुक्त होते हुये भी ‘अनुराग’ से युक्त है, क्योंकि समस्त राग-द्वेष हो जाने के पश्चात् केवल अनुराग की ही भावभूमि शेष रह जाती है। परम योगीजन इसी अनुराग की भावभूमि का आश्रय लेकर ही तो इस जगत में अवस्थित रहते है, क्योंकि उन्हें धन की स्पृहा होती नहीं, पत्नी की मनुहारें करने का दायित्व नहीं होता और नहीं पुत्र-पुत्रियों के लिये धन संचय करना होता है, यश उनके लिये होता है और पद उनके लिये अस्पृश्य वस्तु… फिर जो भी कुछ शेष रह जाता है वह यही ‘शिवत्व’ ही होता है। इसी प्रकार अनुराग ही प्रेम की सही स्थिति हो सकती है, क्योंकि इसमें प्राप्ति की कोई आशा ही नहीं है, केवल प्रदान करने की भावना ही प्रबल है- यही शिव का औघड़दानीपन है।
वस्तुतः ‘शिव’ तो आत्म लीनता की पराकाष्ठा की एक संज्ञा ही है- ऐसी आत्मलीनता जो स्वयं में निमग्न रहते हुये भी सब पर दृष्टिपात कर रही है। यही ‘शिव’ का सहज धर्म है। ऐसा वे किसी अपेक्षा अथवा पूजन प्राप्ति के लिये नहीं कर रहे है। परम योगीजन इस प्रकार केवल ‘आत्म’ का ही पूजन करते है, क्योंकि केवल वे जान चुके होते है, कि वह सत्-चित् आनन्द उनके ही अन्दर अवस्थित है।
इसी कारणवश भगवान शिव के होठों पर सदैव एक मंद स्मित बनी ही रहती है, विष का पान करते हुये भी, क्योंकि वे विष का पान कर भी रहे है, तो किसी बलात् प्रक्रिया के अधीन नहीं वरन एक कौतुक और खिलवाड़ के रूप में। जो स्वयं ही अमृतमय है उसे विष की कुछ मात्रा भी क्या कर सकेगी? वरन वह तो उल्टे उस विष को भी अमृत कर देगा, इसी से तो वह देवाधिदेव है।
किन्तु उनकी यह करूणा, उनका लीला विस्तार किसी अन्य प्रकार से जाना ही नहीं जा सकता, केवल यदा-कदा अपने चित्त के पटल पर अंकित पाया जा सकता है। यही योग का वास्तविक अर्थ है। जो ऐसा यदा-कदा करे वह ‘योगी’ है, जो प्रायः करता रहे वह ‘महायोगी’ तथा निरन्तर इस प्रकार उनका साक्षात् ज्ञान चक्षुओं से करने वाला ही ‘परमयोगी’ है। इसी से ऐसे व्यक्ति को ‘शिव’ कहा जाता है।
योग के अन्य स्वरूप तो फिर भी सहज है, आँख मूंदना, कान मूंदना, नेति-धोती करना, पालथी मारना और प्राणायाम करना तो कोई भी कर सकता है, किन्तु यथार्थ योग तो शिव का सायुज्य ग्र्रहण करता है, उनके अन्दर निहित विष और अमृत दोनों का साक्षात् कर लेता है। इसी से शिव का पूजन तो सहज है, किन्तु शिव की उपासना अर्थात् शिव के समीप बैठना अत्यन्त कठिन है। फिर भी इस मार्ग का अवलम्बन लेना चाहिये, क्योंकि इसी मार्ग पर चलकर जीवन की वह वास्तविक तृप्ति प्राप्ति होती है, जो कि कदाचित किसी अन्य प्रकार से संभव नहीं। यही स्वयं को सहज-लक्ष रूपों में विभाजित कर देने की क्रिया का रहस्य है….. और जो इस प्रकार ‘विभाजित’ होगा, वही असीम सुख की अनुभूति हृदय से कर सकेगा, शिव का सायुजय तो ग्रहण करेगा ही। शिव तो एक भाव है-
-(शंकराचार्य)
अर्थात् ‘ जो न पृथ्वी है न जल है, न अग्नि है, न वायु है और न आकाश है, न तंद्रा है, न ग्रीष्म है, न शीत है, जिनका न कोई देश है, न वेश है, उन मूर्तिहीन त्रिमूर्ति की मैं वंदना करता हूँ।
यही सद्गुरू का भी स्वरूप है, क्योंकि जिस प्रकार ‘शिव’ समत्व पर आसीन है, योगम्य है, उसी प्रकार सद्गुरू भी अन्तःकरण से केवल योगगम्य है। ऐसे गुरू एवं शिव को मैं योग-नमस्कार करता हूँ।