सद्गुरुदेव का ओजस्वी आवाहन था और शिष्य का खून उफान न मारे, तो वह शिष्य ही क्या हुआ। पूज्य गुरुदेव के ऐसे ही एक प्रिय शिष्य हैं। जो हिमाचल प्रदेश से पधारे हुये थे। उनका साधना स्तर काफी उच्च स्तर का था और पूज्यपाद् सद्गुरुदेव के सानिध्य में रहकर उन्होंने अब तक कई साधनाओं में सिद्धियां भी प्राप्त कर ली थीं। अपनी क्षमताओं पर उनको पूरा विश्वास था और जब गुरुदेव ने आह्नान कर ही दिया था, तो उनका अपने को रोक पाना मुश्किल हुआ जा रहा था।
पूज्य गुरुदेव के जाने के थोड़ी ही देर बाद शिष्य महोदय भी वहां पहुंचे जहां गुरुदेव के ठहरने की व्यवस्था थी। वहां पहुंचने पर शिष्य महोदय ने गुरुदेव से मिलने के लिये पूछ-ताछ की। कक्ष के द्वार पर गुरुदेव का व्यक्तिगत सेवक खड़ा था। उससे शिष्य महोदय ने कहा- मुझे गुरुदेव से मिलना है, शिविर में उन्होंने अभी कुछ देर पहले घोषणा की है, अतः मुझे शीघ्र ही मिलवा दीजिये।
सेवक ने अपनी असमर्थता प्रकट करते हुये मिलवाने से इंकार करते हुये बताया, कि गुरुदेव अभी विश्राम कर रहे हैं और अभी नहीं मिल सकते। शिष्य महोदय को सेवक पर बड़ा क्रोध आया, कुछ देर उन्होंने और प्रतीक्षा की, कि शायद ये मुझे मिलवा दे। लगभग एक घण्टा बीत जाने के बाद भी जब उसकी ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई, तो शिष्य महोदय पुनः सेवक के पास पहुंचे और बोले- देखो मुझे गुरुदेव से मिलना है और मुझे उनसे मिलने से कोई नहीं रोक सकता या तो तुम मुझे सहज रूप में अन्दर जाने दो अन्यथा मैं स्वयं ही चला जाऊंगा।
सेवक उन शिष्य महोदय से भली-प्रकार परिचित था एवं एक वरिष्ठ गुरु भ्राता के रूप में आदर भी करता था, परन्तु उसने पूर्ण दृढ़ता और कठोरता के साथ उनको रोकते हुये कहा- मुझे तो गुरुदेव ने आते ही यह आज्ञा दी थी, कि चाहे कोई भी आये मुझे डिस्टर्ब मत करना, मैं विश्राम कर रहा हूं। अब गुरुदेव ने आपको जो कहा हो सो कहा हो, परन्तु उन्होंने जो मुझे आज्ञा दी है, उसके विपरीत मैं आपको किसी भी कीमत पर अन्दर नहीं जाने दूंगा। गुरु आज्ञा से मैं भी बंधा हूं।
शिष्य महोदय का क्रोध तो सातवें आसमान पर पहुंच चुका था, उनके मार्ग में कोई उन्हें रोक ले, उनके संकल्प के आगे कोई खड़ा हो जाये, यह उन्हें गवारा नहीं था। जब वे कुछ न कर सके, तो उन्होंने टेलीपैथी द्वारा गुरुदेव से सूक्ष्म रूप से सम्पर्क स्थापित करने का प्रयास किया। उनका साधनात्मक स्तर काफी ऊंचा था और वे ऐसा कर सकते थे। पूज्य गुरुदेव को उलाहनापूर्ण दृष्टि से देखते हुये प्रश्न किया, कि आपने शिविर में कहा था कि मैं शाम तक इंतजार करूंगा और यह सेवक है कि मुझे अन्दर आने ही नहीं दे रहा है।
गुरुदेव मुस्कुराते हुये बोले- बेटा! मुझे मालुम है कि तू शेर है, तुझमें दृढ़ संकल्प है, दम-खम है, लेकिन जिस समय तू यहां आया था उस समय तेरे अन्दर ‘मैं’ पन भाव आ गया था। तू शेर तो अवश्य है परन्तु मेरे सामने नहीं, इसलिये तुझे बाहर रोक देना आवश्यक था।
यह सुनना ही था, कि शिष्य महोदय के आंखों से अश्रुधार प्रवाहित होने लगी, तब तक सद्गुरुदेव निखिल स्वयं द्वार खोल कर बाहर आ गये थे और उन्हें पीठ पर थपकी दे रहे थे। गुरुदेव की हर क्रिया शिष्य को कुछ सिखाने के लिये ही होती है। अपनी इस लीला के माध्यम से उन्होंने शिष्य को ज्ञान के अगले जिस सूत्र से दीक्षित किया था, वह यह है-
शिष्य कितना भी क्षमतावान क्यों न हो जाये, उसका साधनात्मक स्तर कितना भी उच्च क्यों न हो जाये, चाहे उसमें ब्रह्माण्ड को दुबारा रचने की शक्ति भी आ जाये, तब भी वह सद्गुरु के सामने शिष्य के समान ही रहता है, बालक के समान ही रहता है। यदि उसमें कोई क्षमता आ भी जाती है, तो वह भी गुरु की ही दी हुई होती है, यह उसे नहीं भूलना चाहिये चाहे वह कितना भी प्रिय शिष्य क्यों न हो।
आज भी यह विषय शिष्यों के लिये विचारनीय है। शिष्य को हमेशा अपना आत्मचिंतन, आकलन, विश्लेषण करते रहना चाहिये। क्योंकि यदि अंह, मै पन आ गया तो जीवन के सब किये-कराये पर पानी फिर जायेगा।
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