जिसने अपने भीतर के ज्ञान को जान लिया, द्रष्टा को जान लिया उसकी सारी ग्रन्थियाँ कट गई, उसके जीवन में कोई गांठ न रही, उसका जीवन साफ़ सुथरा हो गया। फि़र वह जैसा भी जीता है उसमें एक सरलता है, एक विनम्रता है, उसके जीवन में एक सादगी है।
सद्गुरूदेव के पास तो विचार शून्य होकर बैठना पड़ता है, अपनी बुद्धि को विदाई ही दे देनी होती है। शिष्यों के लिये कठिन है क्योंकि उन्हें डर लगता है कि अपनी बुद्धि को विदा कर दिया तो निर्णय कैसे करेंगे? मगर तुम्हारी बुद्धि अगर निर्णय कर सकती तो गुरू के सानिध्य की जरूरत ही न थी। और यदि तुम्हारी बुद्धि निर्णय नहीं कर सकती तो उस बुद्धि का उपयोग ही क्या है। क्योंकि मेरे और तुम्हारे बीच की सबसे बड़ी बाधा तुम्हारी बुद्धि ही है, यही एक कारण जिससे तुम अपने गुरू को पहचान नहीं पाते, बुद्धि के विदा होते ही तुम्हारी आंखे निर्मल हो जायेगी, तुम्हारा हृदय सरल हो जायेगा, और ऐसा होते ही तुम अपने गुरू की दिव्यता को पहचान सकोगे।
सद्गुरूदेव के साथ बैठना हो तो सारे पक्षपात छोड़ देने होते हैं तब ही संभव है कि सत्संग हो तभी संभव है कि सत्य का आदान-प्रदान हो। मनुष्य के कई जन्म होते हैं, पहला जन्म तब उसका होता है, जब वह माता के गर्भ से बाहर आता है। दूसरा जन्म तब होता है जब अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान दूसरो से पढ़, सुनकर संसार को देखकर प्राप्त करता है। तीसरा जन्म तब होता है जब वह अपने गुरू से दीक्षा प्राप्त करता है, और यही उसका श्रेष्ठ जन्म होता है, जब वह अपने स्वरूप को जानने के लिये आध्यात्मिक यात्रा प्रारम्भ कर देता है। जब व्यक्ति गुरू के शरण में आता है तो निम्न कोटि की पराधीनता अर्थात वासना की वृत्तियां समाप्त होने लगती है। व्यक्ति स्वयं अपने मन का स्वामी बनन लगता है। विशेष बात यह है कि गुरू एक सर्जन की तरह है उसके हाथ में एक तेज चाकू है और उस चाकू से वह शिष्य की अविद्या की ग्रन्थियों को काटता रहता है। उस समय शिष्य को बड़ी तकलीफ़ होती है। लेकिन जब एक बार अविद्या की ग्रन्थि कट जाती है तो कई प्रकार के सांसारिक दुःखो से मुक्ति मिल जाती है। गुरू शिष्य को अनुशासन देते हैं, उसे पराधीन या गुलाम नहीं बनाते, यदि गुरू शिष्य को अपने ऊपर आश्रित करते हैं, निर्भर करते हैं तो उसका विनाश नहीं करते अपितु उसे संभालते है।
जब गुरू प्रथम बार शिष्य से मिलते हैं तो शिष्य उन्हें देखकर एक आत्मिक स्नेह अनुभव करता है, यह स्नेह माता पिता, बन्धु और प्रेमी से बढ़कर होता है, गुरू के स्नेह पाश में बंधकर सांसारिक बंधनो को तोड़कर शिष्य अपने गुरू के पास चला जाता है। तब उसे लगता है कि इस जगत में अब तक मैं क्या था वह अपने संस्कार तथा वासना के पिटारे को गुरू चरणों में सौप देता है। गुरू उसे स्वीकार कर लेते हैं, गुरू परीक्षाओं के बाद उसे साधना और तप की अग्नि में जलाकर निर्मल बनाकर अपने आत्म-ज्ञान को उसे सौंप देते हैं। इस आत्म समर्पण के कारण शिष्य गुरू के विशाल ज्ञानमय व्यक्तित्व को पहचान लेता है और उनके सम्पूर्ण क्रियाकलापों को आत्मसात कर लेता है। तब वह गुरू के संदेश को आज्ञा चक्र में सूक्ष्म माध्यम से ग्रहण करने मे समर्थ होता है। और उनके कार्यों का विस्तार करने में सहायक होता है।
यदि मानव जीवन की पूर्णता प्राप्त करनी है, तो वासना के दलदल से बाहर निकल कर प्रेम को पहचानना होगा, अपने इष्ट के चरणों में, सद्गुरू निखिल के चरणों में स्व का विसर्जन करना होगा, एक नदी के समान हरहराते हुये, मार्ग में आने वाली सभी बाधाओं को हटाते हुये जा कर समुंद्र में मिलना होगा, जिस तरह नदी एक धारा के रूप में बहती रहती है, परंतु जब समुंद्र में मिल जाती है तो वह नदी या धारा नहीं रहती वह विशाल समुद्र बन जाती है, ऐसे ही शिष्य गुरू से एकाकार होता है,तब ही जीवन का वास्तविक अर्थ, जीवन की श्रेष्ठता, तभी मिल पायेगी अद्वितीयता और तुम बन जाओगे समुद्र के समान विशाल, अनन्त, सर्वश्रेष्ठ, तब तुम सक्षम हो जाओगे काल के भाल पर अपना नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित करने में—–
प्राप्त कर पाओगे जीवन की वास्तविक चेतना, जीवन का वास्तविक आनन्द, जिसे परमानन्द कहा गया है, जिसे ब्रह्मानन्द कहा गया है, जिसे सच्चिदानन्द कहा गया है, जो चिर शाश्वत है, अमृत रस से पूर्ण है और अपने जीवन से दुर्भाग्य को मिटाते हुये अर्न्तयात्रा कर सकोगे उस दिव्य प्रेम लोक की, जहां बाधायें नहीं हैं, समस्यायें नहीं हैं, परेशानियां नहीं है, पीड़ा नहीं है, कष्ट नही है, दुःख नहीं है।
इस प्रेम पथ की शुरूआत गुरू चरणों से ही होती है, उन चरणों को अपने आंसुओं से पखार कर ही अपने अन्दर की मलिनता को साफ़ किया जा सकता है, उन चरणों में समर्पण कर ही प्रेम का पहला अक्षर सीखा जा सकता है, उन चरणों में अपने आपको मिटा कर बूंद से समुद्र बना जा सकता है, उन चरणों का पूजन करना ही प्रेम की पूजा करना है।
गुरू का बिम्ब अपने हृदय में अंकित कर अपने हृदय में प्रेम का स्थापन किया जा सकता है, क्योंकि इस संसार में वे मात्र गुरू ही नहीं है, वे साक्षात् प्रेम हैं और प्रेम करने वालों को ब्रह्ममय बना देने की सामर्थ्य रखते हैं। ऐसी ही अहम् ब्रह्मास्मि युक्त निर्मित करने की क्रिया गुरू पूर्णिमा पर्व पर सम्पन्न होगी । आप सभी का सपरिवार हृदय भाव से स्वागत है!
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