हजारों लाखों व्यक्तियों में कोई बिरला होता है जो सद्गुरू की उंगली पकड़ कर आगे बढ़ता है, जो उनकी वाणी समझ सकता है, वही शिष्यत्व के गुण प्राप्तकर सकता है।
गुरू के ज्ञान को किसी प्रकार खरीदा नहीं जा सकता। केवल गुरू कृपा से वास्तविक ज्ञान और आनन्द को प्राप्त किया जा सकता है अतः गुरू के सामने सदैव विनीत भाव से ही रहना चाहिये ।
नित्य के कर्म प्रपंचो का प्रभाव शिष्य के मन और चित्त पर पड़ता है, अतः चित्त को निर्मल बनायें रखने के लिये शिष्य को निरंतर गुरू चरणों की शरण प्राप्त करनी चाहिये।
शिष्य जितना गुरू में एकाकार होता रहता है, उतना ही गुरू शिष्य को आगे ढकेलता रहता है। यह शिष्य पर निर्भर है कि वह अपने को पूर्ण रूप से समर्पित कर पाता है या नहीं ।
शिष्य यदि गुरूमंत्र का जप नियमित रूप से करता है तो उस जप के तेल से जीवन में कोई दुष्प्रभाव व्याप्त नहीं होता और सदैव समस्त संकटों से रक्षा होती है।
क्या आपने सद्गुरू के चित्र को प्राप्त कर स्थान-स्थान पर लगाने का प्रयास किया है ।
गुरू शिष्य को अपने समकक्ष बनाने का सदैव प्रयास करते हैं, इसी कारण से उन्हें स्वयं सर्वप्रथम शिष्य के अनुरूप स्वरूप धारण करना पड़ता है, परन्तु यह शिष्य की अज्ञानता होती है जो वह गुरू को सामान्य के रूप में देखता है, उसके लिये ऐसा चिंतन दुर्भाग्यपूर्ण होता है।
शिष्य वह है जिसके जीवन में गुरू के अलावा कोई अन्य भाव या चिन्तन न हों। ऐसा भाव होने पर वह सब कुछ प्राप्त कर लेने का अधिकारी हो जाता है ।
सद्गुरू के चरण कमल का एक रजकण भी संसार सागर के पार उतार सकने में पूर्ण सक्षम है, गुरू चरणों की धूलि ही सर्वस्व प्रदान करने में समर्थ है। शिष्य को ऐसा ही भाव मन में रखना चाहिये।
गुरू को कोई सिंहासन कोई रथ फ़ूलों से सजी गाडी नहीं चाहिये, गुरू को अपने साधकों के हृदय में जगह चाहिये ।
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