गुरू की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि गुरू बहुत कुछ देना चाहता है। कोई गुरू यह नहीं चाहता, कि मेरा नाम हो या मैं ही दुनिया में पूजा जाऊं। गुरू तो यह चाहता है, कि मैं शिष्य को समर्थ, योग्य और अद्वितीय बनाऊं, ऐसा बनाऊं जिससे कि वह अपने जीवन में सफ़लता प्राप्त करे।
हमारे अन्दर एक तफ़ूान हो, संकल्प शक्ति हो, दृढ़ शक्ति हो और फ़ौलाद की तरह विचार हो। यह निश्चय हो कि यह तो दैवी कृपा प्राप्त करके रहूंगा या शरीर को समाप्त हो जाने दूंगा— जब ऐसा चैलेंज, ऐसी संकल्प शक्ति उसके मन में, उसके विचारों में आती है, तब उसे साधक कहा जाता है।
जिस प्रकार एक लोटे का जल समुद्र में डाल दिया जाता है, तो वह लोटे का जल भी समुद्र बन जाता है, ठीक उसी प्रकार जब सामान्य शिष्य गुरू की सेवा करता हुआ उनसे एकाकार हो जाता है, तो वह पूर्ण गुरूमय बन जाता है। इस गुरूमय बनने की क्रिया ही सिद्धि कहते हैं।
शिष्य ऐसा हो, जो कफ़न बांध कर निकले, जो समाज की परवाह नहीं करें, जो चुनौतियां को झेल सके, जिसकी आंखों में तेवर हो— अग्नि स्फ़ुलिंग हो, जिसके हाथों में वज्र की तरह प्रहार करने की क्षमता हो और जो सही अर्थों में गुरू चरणों में समर्पित होने की भावना रखता हो।
गुरू तो बहुत दूर की देखता है, वह देखता है कि शिष्य को जीवन की पगडण्डी पर कहां खड़ा करना है और जहां खड़ा करना है उसके लिये विलम्ब नहीं करना चाहिये।
तुम्हें बिल्कुल खाली पात्र की तरह मेरे पास आना है, खाली कागज की तरह मेरे पास आना है, जिसमें मैं पूर्णत्व लिख सकूंगा, मैं उस पर ब्रह्मत्व लिख सकूंगा। मैं तुम्हें बता सकूंगा, कि जीवन की पूर्णता क्या है, जीवन का आनन्द क्या है, जीवन की सर्वोच्चता क्या है, श्रेष्ठता क्या है ?
पूर्णता तो तब सम्भव होती है, जब शिष्य गुरू के चरणों में सिर रखकर आंसुओं से उनके चरणों को धोये, अपने को पूर्ण विसर्जित करे, उसका हृदय गद्गद् हो जाये, गला भर जाये और रूंधो हुये गले में जो कुछ शब्द निकले, तो गुरूदेव शब्द ही निकले।
समर्पण हाथ जोड़ने से नहीं हो सकता, और न ही गुरू की आरती उतारने से हो सकता है। समर्पण का तात्पर्य है, कि गुरू जो आज्ञा दे, उसका बिना नानूच किये पालन किया जाये।
शिष्य तो वह है, जिसका हर समय मन में यही इच्छा हो, कि मैं गुरू के पास दौड़कर पहुंच जाऊं, हो सकता है कोई मजबूरी हो, नहीं जा सके, यह अलग चीज है, मगर मन में उत्कण्ठा हो, तीव्र इच्छा हो छटपटाहट बनी रहे कि उसे हर हालत में गुरू के पास पहुंचना है।
छोटी मोटी सफ़लता जीवन की सफ़लता नहीं कही जा सकती, सफ़लता का तात्पर्य तो यह है, कि हम जिस क्षेत्र में हो अद्वितीय हो, और यदि जीवन में सफ़लता प्राप्त होगी तो केवल साधनाओं के माध्यम से ही प्राप्त हो सकती है।
जब शिष्य के विचार, उसका चिन्तन, उसका ध्यान, उसकी धारणा गुरूमय हो जाती है, वह जो भी करता है गुरू के निमित्त करता है, तब वह गुरूमय बन जाता है और तब वह गुरू के द्वारा समस्त सिद्धियों को प्राप्त कर पूर्ण सिद्धि पुरूष बन जाता है, विश्व में अद्वितीय बनकर दैदीप्यमान हो उठता है।
जिसका गौत्र ही गुरू बन जाता है, जिसकी चेतना ही गुरू बन जाती है, जिसका रक्त ही गुरूम बन जाता है, वही युग पुरूष बन पाता है, वही तेजस्विता युक्त और चेतना युक्त बन पाता है, वही सही अर्थों में शिष्य बन पाता है।
जो बहुत कुछ दांव पर लगा देता है, वही बहुत कुछ प्राप्त कर सकता है। जो कुछ खोयेगा नहीं, वह कुछ पा भी नहीं सकता। कुछ पाने के लिये बहुत कुछ खोना पड़ता है। अपने जीवन को दांव पर लगाना पड़ता है, अपने आप को न्यौछावर कर देना पड़ता है और बहुत कुछ न्यौछावर करने के बाद शिष्य को जो कुछ मिल जाता है, वह उसे हजारों-हजारों गुलाब के पुष्पों से भी ज्यादा सुगन्धित बना देता है।
शिष्य बनने की कसौटी है आज्ञा पालन। आज्ञा पालन की पगडण्डी पर चलकर ही शिष्य बना जा सकता है। समर्पण करके ही शिष्य बना जा सकता है। अपने सिर को उतार कर हथेली पर रखकर घूमने की जो कला जानते है, वे ही शिष्य बन सकते है।
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